70 वर्षीया सुनंदा हमेशा ऐक्टिव थी. एक दिन अचानक उस की एक आंख की रोशनी चली गई. वह एक आंख पर निर्भर हो गई. परिवार वालों ने आसपास के 4-5 केंद्रों पर उस की आंखों की जांच करवाई. पता चला मोतिया बिंद के साथसाथ ग्लूकोमा भी है. धीरेधीरे दूसरी आंख की रोशनी भी कम होने लगी. वह बिस्तर पर आ गई. डेढ़ साल तक वह बिस्तर पर रही.

सुनंदा अब डिप्रैशन की शिकार हो चुकी थी लेकिन जब उस का ट्रीटमैंट सही तरह से करवाया गया तो उसे 40 प्रतिशत आंखों की रोशनी मिली. वह खुद चलफिरने में समर्थ हो गई. सही इलाज किसी भी समय आंखों की थोड़ी रोशनी वापस ला सकता है.

बहुत से परिवारों में वृद्ध होते वयस्कों पर ध्यान कम दिया जाता है. सुनंदा के केस में परिवार वालों को लगा था कि अब उस की उम्र हो चुकी है और उस की रोशनी वापस नहीं आ सकती. पर सही इलाज से वह फिर से ऐक्टिव हो गई. असल में आंखों की ऐसी कई बीमारियां है जो उम्र के साथसाथ दिखाई पड़ती हैं. उन में से कई ऐसी हैं जिन की जानकारी समय रहते मिलने पर इलाज संभव है.

  • प्रेस्बायोपिया: प्रेसबायोपिया उम्र के साथ होने वाली निकट में फोकसिंग करने की क्षमता का सामान्य नुकसान है. ज्यादातर लोग 40 साल की उम्र के बाद कुछ समय में प्रेस्बायोपिया के प्रभावों को नोटिस करना शुरू कर देते हैं, जब उन्हें छोटे प्रिंट को स्पष्ट रूप से देखने में परेशानी होने लगती है. इस उम्र के बाद सभी को पढ़नेलिखने, सिलाई करने, सूई में धागा पिरोने या कंप्यूटर पर काम करते वक्त चश्में का प्रयोग करना चाहिए. मधुमेह और ब्लडप्रैशर के रोगी हर 6 महीने बाद अपनी आंखों की प्रैशर जांच करवाएं जबकि नौर्मल कंडीशन में साल में एक बार जांच करवाना ठीक रहता है. यह जांच चश्मों की दुकान पर नहीं बल्कि अच्छे आई सर्जन से करवाएं ताकि आप को आंखों की सही पावर का पता लगे. ये चश्में बाईफोकल, रीडिंग ग्लास या प्रोग्रैसिव पावर लैंस हो सकते हैं.
  • कैटेरैक्ट या मोतियाबिंद: जब आंखों की रोशनी साफ न हो, थोड़ी धुंधली या दोहरी इमेज दिखे तो आप मोतियाबिंद के शिकार हो सकते हैं. जैसेजैसे व्यक्ति की उम्र बढ़ती है, नजर में धुंधलापन बढ़ता है. कभी पढ़ने में तकलीफ होती है तो कभी खड़े व्यक्ति को देखने में तकलीफ होती है. कई बार व्यक्ति इसे नजरअंदाज करते हैं. अगर दूर से टीवी नजर नहीं आ रहा है तो कुरसी पास ले जा कर बैठ जाते हैं.

कैटेरेक्ट 30 या 40 की उम्र में भी हो सकता है. चश्मा बदलने के बाद भी अगर दृष्टि में कमी है, कैटेरेक्ट बिंद का औपरेशन करवाना सही होता है. आजकल कई नई तकनीकें उपलब्ध हैं जिन के द्वारा औपरेशन करने पर व्यक्ति 3 से 4 दिनों में ठीक हो जाता है.

नई तकनीक में एक छोटा सा छिद्र कर औपरेशन किया जाता है. इस में किसी प्रकार के इंजैक्शन या टांके की आवश्यकता नहीं पड़ती. इस में प्रयोग किया जाने वाला लैंस इतना पतला होता है कि आसानी से उसे मोड़ कर छोटे से कट में डाल सकते हैं. पहले मोनोफ़ोकल लैंस डाला जाता था, अब मल्टीफोकल लैंस डाले जाते हैं.

औपरेशन के बाद कई बार लैंस के पीछे जाली बन जाती है जिस से इमेज धुधली दिखती है. ऐसा करीब 20 प्रतिशत लोगों में होता है, जिसे लेजर पद्धति से साफ कर दिया जाता है. कई बार किसी को काला मोतियाबिंद भी होता है लेकिन इस औपरेशन से व्यक्ति को अपनी दृष्टि वापस मिल सकती है.

मधुमेह के रोगी की आंखों में कई बार मोतियाबिंद के औपरेशन करने से पहले उसे कंट्रोल कर दिया जाता है. मधुमेह के रोगी को आंखों की रेटिना की 6 महीनों में एक बार अवश्य जांच करवानी चाहिए. रेटिना खराब हो जाने पर आंखों के औपरेशन से कोई फायदा नहीं होता.

  • ग्लूकोमा: यह किसी व्यक्ति को भी 40 वर्ष के बाद हो सकता है. यह अंदरूनी तकलीफ है, इसलिए बाहर से इस का पता नहीं लगाया जा सकता. इसे साइलैंट किलर औफ औप्टिक नर्व कहा जाता है. इस में आंखों में पानी जाने का रास्ता बंद हो जाता है. आंखों में प्रैशर बढ़ जाता है. नया पानी आंखों में बनता रहता है लेकिन बाहर नहीं निकल पाता. इसलिए आंखों के अंदर का प्रैशर बढ़ जाता है. औष्टिक नर्व मस्तिष्क की तरफ चली जाती है. अगर आंखों का प्रैशर ठीक न रहा तो नस धीरेधीरे सूख जाती है. इस से दृष्टि चली जाती है. एक बार दृष्टि चली जाने पर उसे वापस नहीं लाया जा सकता. इस के लिए कई ड्रौप्स हैं जिस से प्रैशर कंट्रोल में रहता है.

ओसीटी स्कैन ग्लूकोमा के लिए प्रयोग किया जाता है. इस स्कैन द्वारा नसों की कमजोरी का पता लगा कर उस का इलाज संभव है. इस स्कैन के जरिए यह पता लगाया जाता है कि कब तक आप को रुकना है या फिर कौन सी आंख में अधिक और किस में कम ग्लूकोमा का प्रकोप है. पेरिमेटरी मशीन से भी विजन की जांच की जा सकती है.

  • डायबीटिक रेटिनोपैथी: अगर व्यक्ति को मधुमेह है तो रेटिना में ब्लीडिंग हो सकती है. इस की वजह से आंखों की रोशनी जा सकती है. इसे ओसीटी स्कैन और फ्लूरेसिन एंजियोग्राफी से पता लगा कर लेजर की सहायता से इलाज किया जाता है. ये सारे टैस्ट नौनइन्वेसिव टैस्ट हैं जो 5 मिनट में हो जाता है, जिस से सही इलाज संभव हो पाता है. साधारण मशीन से इस का पता लगाना संभव नहीं. नसों में खून का रिसाव होने से आंखों में सूजन आ जाती है. लेजर के साथ स्पैशल इंजैक्शन से सूजन कम कर ब्लीडिंग कम की जाती है.
  • एज रिलेटेड मेक्यूजर डिजेनरेशन: इस में रेटिना के सैंसिटिव भाग को मेक्यूणा कहा जाता है. उम्र बढ़ने के साथसाथ आंखों की रोशनी कम हो जाती है. ओसीटी स्कैन से ही परीक्षण कर इस का इलाज किया जाता है. आजकल मूविंग आई सर्जरी बहुत पौपुलर हो रही है. 10 मिनट में इस में औपरेशन संभव होता है. मरीज को लाइट की तरफ आंखों में देखना पड़ता है. बिना दर्द के यह औपरेशन होता है.

आजकल लेजर मशीनों से कैटेरेक्ट का औपरेशन होने लगा है जिस से वह सेफ भी हो गया है. इस में दर्द भी कम होता है.

वैसे, आजकल नैचुरल लैंस की पारदर्शिता बढ़ाने पर भी रिसर्च हो रही है और हो सकता है कि सर्जरी की जरूरत कम होने लगे.

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