शिमला अब केवल 5 किलोमीटर दूर था…यद्यपि पहाड़ी घुमाव- दार रास्ते की चढ़ाई पर बस की गति बेहद धीमी हो गई थी…फिर भी मेरा मन कल्पनाओं की उड़ान भरता जाने कितना आगे उड़ा जा रहा था. कैसे लगते होंगे बिल्लू भैया? जो घर हमेशा रिश्तेदारों से भरा रहता था…उस में अब केवल 2 लोग रहते हैं…अब वह कितना सूना व वीरान लगता होगा, इस की कल्पना करना भी मेरे लिए बेहद पीड़ादायक था. अब लग रहा था कि क्यों यहां आई और जब घर को देखूंगी तो कैसे सह पाऊंगी?

जैसे इतने वर्ष कटे, कुछ और कट जाते. कभी सोचा भी न था कि ‘अपने घर’ और ‘अपनों’ से इतने वर्षों बाद मिलना होगा. ऐसा नहीं था कि घर की याद नहीं आती थी, कैसे न आती? बचपन की यादों से अपना दामन कौन छुड़ा पाया है? परंतु परिस्थितियां ही तो हैं, जो ऐसा करने पर मजबूर करती हैं कि हम उस बेहतरीन समय को भुलाने में ही सुकून महसूस करते हैं. अगर बिल्लू भैया का पत्र न आया होता तो मैं शायद ही कभी शिमला आने के लिए अपने कदम बढ़ाती. 4 दिन पहले मेरी ओर एक पत्र बढ़ाते हुए मेरे पति ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिल्लू भैया इतने भावुक व कमजोर दिल के कैसे हो गए?

मैं ने तो इन के बारे में कुछ और ही सुना था…’’ पत्र में लिखी पंक्तियां पढ़ते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए, गला भर आया. लिखा था, ‘छोटी, तुम लोग कैसे हो? मौका लगे तो इधर आने का प्रोग्राम बनाना, बड़ा अकेलापन लगता है…पूरा घर सन्नाटे में डूबा रहता है, तेरी भाभी भी मायूस दिखती है, टकटकी लगा कर राह निहारती रहती है कि क्या पता कहीं से कोई आ जाए…’ सम?ा में नहीं आ रहा था कि कैसे आज बिल्लू भैया जैसा इनसान एक निरीह प्राणी की तरह आने का निमंत्रण दे रहा है और वह भी ‘अकेलेपन’ का वास्ता दे कर. यादों पर जमी परत पिघलनी शुरू हुई. वह भी बिल्लू भैया के प्रयास से क्योंकि यदि देखा जाए तो यह परत भी उन्हीं के कारण जमानी पड़ी थी.

बचपन में बिल्लू भैया जाड़ों के दिनों में अकसर पानी पर जमी पाले की परत पर हाकी मार कर पानी निकालते और हम सब ठंड की परवा किए बिना ही उस पानी को एकदूसरे पर उछालने का ‘खेल’ खेलते. एक बार बिल्लू भैया, बड़े गर्व से हम को अपनी उपलब्धि बता ही रहे थे कि अचानक उन से बड़े कन्नू भैया ने उन का कान जोर से उमेठ कर डांट लगाई… ‘अच्छा, तो ये तू है, जो मेरी हाकी का सत्यानाश कर रहा है…मैं भी कहूं कि रोज मैच खेल कर मैं अपनी हाकी साफ कर के रखता हूं और वह फिर इतनी गंदी कैसे हो जाती है.’ और बिल्लू भैया भी अपमान व दर्द चुपचाप सह कर, बिना आंसू बहाए कन्नू भैया को घूरते रहे पर ‘सौरी’ नहीं कहा.

बचपन से ही वे रोना या अपना दर्द दूसरे से कहना अच्छा नहीं सम?ाते थे, कभीकभी तो वे नाटकीय अंदाज में कहते थे, ‘आई हेट टियर्स…’ दूसरों से निवेदन करना जो इनसान अपनी हेठी सम?ाता हो आज वह इस तरह…इस स्थिति में. कितना अच्छा समय था. जब हम छोटे थे और एकता के धागे से बंधा कुल मिला कर लगभग 20 सदस्यों का हमारा संयुक्त परिवार था, जिस में दादी, एक विधवा व निसंतान चचेरी बूआ, हमारे पिता, उन से बड़े 3 भाई, सब के परिवार, हम 10 भाईबहन जोकि अपनीअपनी उम्र के भाईबहनों के साथ दोस्त की तरह रहते थे. सगे या चचेरे का कोई भाव नहीं, ताऊजी की दुकान थी…

जहां पर ग्राहक को सामान से ज्यादा ताऊजी की ईमानदारी पर विश्वास था. मेरे पिता, ताऊजी के साथ दुकान पर काम करते थे और उन के अन्य 2 भाइयों में से एक स्थानीय डिगरी कालेज में तथा एक आयकर विभाग में क्लर्क के पद पर थे जोकि निसंतान थे. कन्नू व बिल्लू भैया ताऊजी के बेटे थे. उस के बाद नन्हू व सोनू भैया थे. हम 3 बहनें, 1 भाई थे. अध्यापन का कार्य करने वाले ताऊजी के 2 बच्चे अभी छोटे थे क्योंकि वे उन की शादी के लगभग 10 साल बाद हुए थे.

आयकर विभाग वाले ताऊजी निसंतान थे. समय के साथ घर में परिवर्तन आने शुरू हुए, दादी व बूआ की मौत एक के बाद एक कर हो गई. घर के लड़के शहर छोड़ कर बाहर जाने लगे. कोई डाक्टरी की पढ़ाई के लिए, तो कोई नौकरी के लिए. मेरी भी बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी. बिल्लू भैया की भी नागपुर में एक दवा की कंपनी में नौकरी लग गई, जब वे भी चले गए तब अचानक एक दिन ताऊजी पापा से बोले, ‘छोटे, अच्छा हुआ कि सभी अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं, मैं चाहता भी नहीं था कि आने वाले समय में नई पीढ़ी यहां बसे. हम ने तो निभा लिया पर ये बच्चे हमारी तरह साथ नहीं रह सकते.

बड़ी मुश्किल से परिवार जुड़ता है और उस में किसी एक का योगदान नहीं होता बल्कि सभी का धैर्य, निस्वार्थ त्याग, स्नेह व समर्पण मिला कर ही एकतारूपी मजबूत धागे की डोर सब को जोड़ पाती है, वर्षों लग जाते हैं…यह सब होने में.’ वैसे तो दूसरे लोग भी घर से गए थे पर ताऊजी ने यह बात बिल्लू भैया के जाने के बाद ही क्यों कही? यह विचार मेरे मन में कौंधा और उस का उत्तर मु?ो मात्र 6 महीने बाद ही मिल गया. वह भी एक तीव्र प्रहार के रूप में. ऐसी चोट मिली कि आज तक उस की कसक अंदर तक पीड़ा पहुंचा देती है. बात यह हुई कि मात्र 6 महीने बाद ही बिल्लू भैया नौकरी छोड़ कर घर वापस आ गए. ‘मैं भी दुकान संभाल लूंगा क्योंकि मुझे लगता है कि बुढ़ापे में आप लोग अकेले रह जाएंगे, आप लोगों की देखभाल के लिए भी तो कोई चाहिए,’ कहते हुए जब बिल्लू भैया ने अपना सामान अंदर रखना शुरू किया तो घर के सभी सदस्य बहुत खुश हुए किंतु ताऊजी अपने चेहरे पर निर्लिप्त भाव लिए अपना कार्य करते रहे. मु?ो जीवन की कड़वी सचाइयों का इतना अनुभव न था अन्यथा मैं भी सम?ा जाती कि यह चेहरा केवल निर्लिप्तता लिए हुए नहीं है बल्कि इस के पीछे आने वाले तूफान के कदमों की आहट पहचानने की चिंता व्याप्त है और यही सत्य था.

तूफान ही तो था, जिस का प्रभाव आज तक महसूस होता रहा. धमाका उस दिन महसूस हुआ जब मैं अलसाई सी अपने बिस्तर पर आंखें मूंदे पड़ी थी कि एक तेज आवाज मेरे कानों में पड़ी : ‘चाचाजी, कभीकभी मु?ो लगता है कि आप अपने फायदे के लिए हमारे पिताजी के साथ रह रहे हैं. आप को अपनी बेटियों की शादी के लिए पैसा चाहिए न इसीलिए…’ यह क्या, मैं ने आंखें खोल कर देखा तो अपने पापा के सामने बिल्लू भैया को खड़ा देखा… ‘यह क्या कह रहे हो? हमारे बीच में ऐसी भावना होती तो हम इतने वर्षों तक कभी साथ न रह पाते. संयुक्त परिवार है हमारा, जहां हमारेतुम्हारे की कोई जगह नहीं.

इतनी छोटी बात तुम्हारे दिमाग में आई कैसे?’ पापा लगभग चिल्लाते हुए बोले. पापा की एक आवाज पर थर्राने वाले बिल्लू भैया की आज इतनी हिम्मत हो गई कि उम्र का लिहाज ही भूल गए थे. मैं सिहर कर चुपचाप पड़ी सोने का नाटक करने लगी पर ताऊजी के उस वाक्य का अर्थ मेरी सम?ा में आ गया था. नई पीढ़ी का रंग सामने आ रहा था. पिता होने के नाते वे अपने बेटे की नीयत जानते थे और अपने संयुक्त परिवार को हृदय से प्यार करने वाले ताऊजी इस की एकता को हर खतरे से बचाना चाहते थे. हतप्रभ से मेरे पापा ने जब यह बात मेरे ताऊजी से कही तो वे केवल एक ही वाक्य बोल पाए, ‘शतरंज की बाजी में, दूसरे के मजबूत मोहरे पर ही सब से पहले वार किया जाता है. वही हो रहा है.

तुम मु?ा पर विश्वास रखोगे तो कुछ नहीं बिगड़ेगा.’ कही हुई बात इतनी कड़वी थी कि उस की कड़वाहट धीरेधीरे घर के वातावरण में घुलने लगी…उस का प्रभाव धीरेधीरे अन्य लोगों पर भी दिखने लगा और एक अदृश्य सी सीमारेखा में सभी परिवार सिमटने लगे. एक ताऊजी कालेज के वार्डन बन कर वहीं होस्टल में बने सरकारी घर में चले गए. दूसरे भी मन की शांति के लिए घर के पीछे बने 2 कमरों में रहने लगे. अपमान से बचने के लिए उन्होंने रसोई भी अलग कर ली. अलगाव की सीमारेखा को मिटाने वाले सशक्त हाथ भी उम्र के साथ धीरेधीरे अशक्त होते चले गए. ताऊजी को लकवा मार गया और पापा भी अपने सबल सहारे को कमजोर पा कर परिस्थितियों के आगे ?ाकने को मजबूर हो गए, परंतु अंत समय तक उन्होंने ताऊजी का साथ न छोड़ा. अब घर बिल्लू भैया व उन की पत्नी के इशारे पर चलने लगा, समय आने पर मेरी भी शादी हो गई और मैं शिमला के अपने इस प्यारे से घर को भूल ही गई. ताऊजी, ताईजी, पापा का इंतकाल हो गया.

मां मेरे भाई के पास आ गईं. अब मेरे लिए उस घर में बचपन की यादों के सिवा कुछ न था. समय का चक्र अविरल गति से घूम रहा था…और आज बिल्लू भैया भी उम्र के उसी पड़ाव पर खड़े थे, जिस पड़ाव पर कभी मेरे पापा अपमानित हुए थे, पर उन्होंने ऐसा पत्र क्यों लिखा? क्या कारण होगा? अचानक कानों में पति के स्वर पड़े तो मेरी तंद्रा भंग हुई थी. ‘‘तुम शिमला क्यों नहीं चली जातीं, तुम्हारा घूमना भी हो जाएगा और उन का अकेलापन भी दूर होगा…चाहे थोड़े दिनों के लिए ही सही,’’ अचानक अपने पति की बातें सुन कर मैं ने सोचा कि मु?ो जाना चाहिए…और मैं तैयारी करने लग गई थी. शिमला पहुंचते ही, मैं अपनी थकान भूल गई. तेज चाल से अपने मायके की ओर बढ़ते हुए मु?ो याद ही नहीं रहा कि दिल्ली में रोज मु?ो अपने घुटनों के दर्द की दवा खानी पड़ती है.

कौलबेल पर हाथ रखते ही, बिल्लू भैया की आवाज सुनाई पड़ी, मानो वे मेरे आने के इंतजार में दरवाजे के पीछे ही खड़े थे… ‘‘छोटी, तू आ गई…बहुत अच्छा किया.’’ मु?ो ऐसा लगा मानो ताऊजी सामने खड़े हों. ‘‘तेरी भाभी तो तेरे लिए पकवान बनाने में व्यस्त है…’’ तब तक भाभीजी भी डगमग चाल से चल कर मु?ा से लिपट गईं. सच कहूं तो उन के प्यार में आज भी वह आकर्षण नहीं था, जो किसी ‘अपने’ में होता है. आज हम सब को अपने पास बुलाना उन की मजबूरी थी. अकेलेपन के अंधेरे से बाहर निकलने का एक प्रयास मात्र था…उस में अपनापन कहां से आएगा. ‘‘चलचल, अंदर चल,’’ बिल्लू भैया मेरा सामान अंदर रखने लगे, घर में घुसते ही मेरी आंखें भर आईं. यों तो चारों ओर सुंदरसुंदर फर्नीचर व सामान सजा हुआ था. पर सबकुछ निर्जीव सा लगा. काश, बिल्लू भैया व भाभीजी सम?ा पाते कि रौनक इनसानों से होती है, कीमती सामान से नहीं. घर से हमारे बचपन की यादें मिट चुकी थीं.

आज मां के हाथ के बने आलू की खुशबू, मात्र कल्पना में महसूस हो रही थी. मकान की शक्ल बदल चुकी थी… दुकान से मिसरी, गुड़, किशमिश गायब थी. बिल्लू भैया भी तो वे बिल्लू भैया कहां थे? ‘‘कितना बदल गया सबकुछ…’’ मेरे मुंह से अचानक ही निकल गया. ‘‘सच कहती है तू…वाकई सब बदल गया, देख न, तनय, जिसे बच्चे की तरह गोद में खिलाया था…आज मु?ा से कितनी ऊंची आवाज में बात करने लगा,’’ बिल्लू भैया के मन का गुबार मौका मिलते ही बाहर आ गया. ‘‘तनय, कन्नु भैया का बेटा… क्यों, क्या हो गया?’’ ‘‘कहता है, मैं जायदाद पर अपना अधिकार जमाने के लिए, नौकरी छोड़ कर यहां आया था,’’ बता भला, मैं ऐसा क्यों करने लगा. जानता है न कि मैं कमजोर हो गया हूं तो जो चाहे कह जाता है, अपना हिस्सा मांग रहा है… कौन सा हिस्सा दूं और लोग भी तो हैं,’’ कहतेकहते बिल्लू भैया हांफने लगे, ‘‘बंटवारे का चक्कर होगा तो मैं और तेरी भाभी कहां जाएंगे.’’ विनी (भैया की बेटी) भी अमेरिका में बस गई थी. असुरक्षा व भय का भाव भैया की आवाज में साफ ?ालक रहा था.

मेरे कदम जम गए… कानों में दोनों आवाजें गूजने लगीं… एक जो मेरे पापा से कही गई थी और दूसरी आज ये बिल्लू भैया की. कितनी समानता है. न्याय मिलने में सालों तो लगे पर मिला. शायद इसीलिए परिस्थितियों ने बिल्लू भैया से मु?ो ही चिट्ठी लिखवाई, क्योंकि उस दिन अपने पापा को मिलने वाली प्रत्यक्ष पीड़ा की प्रत्यक्षदर्शी गवाह मैं ही थी. इसीलिए आज न्याय प्राप्त होने की शांति भी मैं ही महसूस कर सकती थी. आंखें बंद कर मन ही मन मैं ने ऊपर वाले को धन्यवाद दिया. आज बिल्लू भैया को इस स्थिति में देख कर मु?ो अपार दुख हो रहा था… बचपन के सखा थे वे हमारे. ‘‘भैया, हम आप के साथ हैं.

हमारे होते हुए आप अकेले नहीं हैं. मैं वादा करती हूं कि तीजत्योहारों पर और इस के अलावा भी जब मौका लगेगा हम एकदूसरे से मिलते रहेंगे,’’ मैं ने अपनी आवाज को सामान्य करते हुए कहा क्योंकि मैं किसी भी हालत में अपने हृदय के भाव भैया पर जाहिर नहीं करना चाहती थी. मेरे इतने ही शब्दों ने भैया को राहत सी दे दी थी…उन के चेहरे से अब तनाव की रेखाएं कम होने लगी थीं. आखिर मेरे चलने का दिन आ गया. पूरे घर का चक्कर लगा कर एक बार फिर अपने मन की उदासी को दूर करने का प्रयास किया पर प्रयास व्यर्थ ही गया. बस स्टैंड पर भैया की आंखों में आंसू देख कर मेरे सब्र का बांध टूट गया क्योंकि ये आंसू सचाई लिए हुए थे. पश्चात्ताप था उन में, पर अब खाइयां इतनी गहरी थीं कि उन को पाटने में वर्षों लग जाते… ताऊजी की सहेजी गई अमानत अब पहले जैसा रूप कैसे ले सकती थी.

बस चल पड़ी और भैया भी लौट गए. मन में एक टीस सी उठी कि काश, यदि बिल्लू भैया जैसे लोग कोई भी ‘दांव’ लगाने से पहले समय के चक्र की अविरल गति का एहसास कर लें तो वे कभी भी ऐसे दांव लगाने की हिम्मत न करें… यह अटल सत्य है कि यही चक्र एक दिन उन्हें भी उसी स्थिति पर खड़ा करेगा जिस पर उन्होंने दूसरे व्यक्ति को कमजोर सम?ा कर खड़ा किया है. इस तथ्य को भुलाने वाले बिल्लू भैया आज दोहरी पीड़ा ?ोल रहे थे… निजी व पश्चात्ताप की.

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