69 वर्षीय पवन कुमार वर्मा के बारे में राजनीति में बहुत ज्यादा दिलचस्पी रखने वाले लोग ही जानते हैं कि वे कई अहम किताबें लिख चुके हैं और 2014 में जनता दल यूनाइटेड की तरफ से राज्यसभा भी भेजे गए थे लेकिन पार्टी के खिलाफ बयानबाजी करने के चलते मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. इस के बाद उन्होंने ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जौइन कर ली थी लेकिन नामालूम वजहों के चलते उसे भी छोड़ दिया. हालांकि, उन्होंने सामयिक मुद्दों पर लिखना और बोलना नहीं छोड़ा. अप्रैल के तीसरे हफ्ते में उन्होंने अपने एक कौलम में लिखा था-

मीडिया प्लेटफौर्म्स को धमकाना, उन पर दबाव बनाना, उन्हें सजा देना, विज्ञापन न देना लोकतंत्र की सीमारेखा को लांधने वाली गतिविधि कहलाएगी. तो, क्या सरकार ने यह सीमारेखा लांघी है. हां और न दोनों, यह तो कोई भी नहीं कह सकता कि भारत में स्वतंत्र मीडिया नहीं है लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि उस पर अंकुश लगाने की कोशिशें नहीं हुई हैं.

हाल के समय में कुछ परेशान कर देने वाले ट्रैंड्स उभरे हैं जिन की अनदेखी नहीं की जा सकती. पहला तो यही कि सरकार की किसी भी तरह की आलोचना को तुरंत राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रीय सुरक्षा के विरुद्ध करार दिया जाता है.

पवन कुमार वर्मा की बातों को राजनेता या लेखक होने के अलावा इस नजरिए या पहलू से भी देखा जाना जरूरी है कि वे लंबे समय तक विदेश सेवा के अधिकारी, विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता और भूटान में भारत के राजदूत भी रहे हैं. उन की राजनीतिक आस्था चलायमान हो सकती है लेकिन मीडिया की स्वतंत्रता को ले कर उन की चिंता पर शक नहीं किया जा सकता जो वे मौजूदा सरकार की पीठ पर तकिया बांध कर लठ मारने से नहीं चूकते. नंगी पीठ पर प्रहार करने से शायद इसलिए कतराते हैं कि अंदर से वे हिंदू धर्म के हिमायती हैं जिस के चलते नीतीश कुमार उन से खफा हो गए थे.

जैक डार्सी का छलका दर्द

पवन कुमार का यह कहना कि, मीडिया प्लेटफौर्म्स को धमकाया जाता है, 2 महीने बाद बीती 14 जून को एक बड़े बवाल की शक्ल में सामने आया जब ट्विटर के संस्थापक रहे जैक डार्सी ने भारत सरकार पर कई गंभीर आरोप लगाए. जैक डार्सी ने यूट्यूब के एक शो ‘ब्रेकिंग पौइंट्स विद क्रिस्टल एंड सागर’ को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि किसान आंदोलन के दौरान भारत सरकार ने ट्विटर पर दबाव बनाया था. सरकार कुछ ऐसे ट्विटर अकाउंट बंद करने को कह रही थी जिन में किसान आंदोलन को ले कर केंद्र सरकार की आलोचना की जा रही थी. यह बात न मानने पर सरकार ने ट्विटर को बंद करने और कर्मचारियों के घरों पर छापे मारने की धमकी दी थी.

जब बात किसी खरबपति मीडिया कारोबारी की हो, तो बात क्या कही गई, इस से ज्यादा अहम यह हो जाता है कि बात कब कही गई. खासतौर से, जब कहने वाला जैक डार्सी जैसा कामयाब कारोबारी हो तो इस से बचा नहीं जा सकता.

असल में इस इंटरव्यू के कुछ दिनों पहले ही अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका के मियामी की अदालत से गोपनीय दस्तावेजों से छेड़छाड़ के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और उस के भी कुछ दिनों पहले कांग्रेसी नेता राहुल गांधी अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान भारत में दलितों और अल्पसंख्यकों की बदहाली के साथसाथ वाशिंगटन के नैशनल प्रैस क्लब में मीडिया की दुर्दशा पर भी खुल कर बोले थे कि भारत में मीडिया की ताकत कमजोर हो रही है.

इस सीरीज या घटनाक्रम के बारे में यह भी कहा जा सकता है कि यह दक्षिणपंथियों पर वामपंथियों का श्रृंखलाबद्ध हमला था जो पूर्वनियोजित नहीं था. वामपंथी विचारधारा के जैक डार्सी बोलने की आजादी, खुलेपन और वैचारिक उदारता के पक्षधर हैं. यह बात साल 2018 में एक अमेरिकी न्यूज चैनल सीएनएन को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकारी भी थी, हालांकि, उन्होंने यह सफाई भी दी थी कि इस से उन की कंपनी की पौलिसी प्रभावित नहीं होती. ट्विटर द्वारा लिए गए फैसलों के बारे में भी उन्होंने स्पष्ट किया था कि ट्विटर राजनीतिक चश्मे से फैसले नहीं लेता बल्कि फैसले कंटैंट के हिसाब से लिए जाते हैं.

यह वह वक्त था जब एपल से ले कर स्पोटीफाई जैसी नामी और दिग्गज टैक कंपनियों पर सार्वजानिक विचारों को प्रभावित करने का आरोप लगा था. इस विवाद के दौर में ही ट्विटर ने एक दक्षिणपंथी टौक शो होस्ट करने वाले एलेक्स जोन्स का अकाउंट सस्पैंड कर दिया था. इस से भी पहले ट्विटर ने राष्ट्रपति रहते डोनाल्ड ट्रंप का भी अकाउंट अस्थाई रूप से बंद कर दिया था. तभी से यह कहा जाने लगा था कि ट्विटर मोदीविरोधी है क्योंकि तब डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी की दोस्ती के चर्चे दुनियाभर में चटखारे ले कर होने लगे थे. सोशल मीडिया के ‘वीर’ तो मजाक में उन की तुलना ‘शोले’ फिल्म के जय और वीरू की दोस्ती से करने लगे थे.

मुमकिन है, यह सीरीज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिकी यात्रा के दौरान उन्हें असहज कर देने की कोशिश हो लेकिन इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि किसान आंदोलन में आंदोलनकारियों ने सरकार की मनमानी के आगे घुटने नहीं टेके थे और काले कानूनों पर उसे झुकने पर मजबूर कर दिया था. यह नरेंद्र मोदी और उन की सरकार की पहली बड़ी और करारी  शिकस्त थी जिसे वे कभी याद नहीं करना चाहेंगे.

सरकार की तरफ से केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने जैक डार्सी के बयान का खंडन करते हुए कहा कि उन्होंने 2020 से ले कर 22 तक बारबार भारतीय कानूनों को तोड़ा है लेकिन इस दौरान न तो कोई जेल गया और न ही भारत में ट्विटर का शटडाउन हुआ. जनवरी 2021 में विरोध प्रदर्शनों के दौरान कई गलत सूचनाओं को हटाने को सरकार को बाध्य होना पड़ा.

लेकिन जब किसान आंदोलन याद दिला ही दिया गया तो सरकार के घाव फिर हरे हो गए और जवाब में जैक डार्सी के पांव उन्हीं के गले में उलझाने की नाकाम कोशिश की गई जिस से असल मुद्दे यानी जैक डार्सी की मंशा पर लोगों का ध्यान न जाए. बात कायदे, कानूनों और नियमों की भी की गई जिस के जैक डार्सी आदी हैं और ऐसे हालात से बच कर निकलने के हुनर में माहिर हैं. हालांकि ब्रेकिंग पौइंट का इंटरव्यू देख फौरीतौर पर ऐसा लगता है कि वे प्रसंगवश और यों ही तुर्की के साथसाथ भारत का जिक्र कर बैठे थे लेकिन यह एक खुशफहमीभर है क्योंकि इस बयान में उन का दर्द, बेबसी व खीझ तीनों एकसाथ छलक रहे थे.

कहासुनी और कानूनों का अर्धसत्य

विवाद 2 साल से भी ज्यादा पुराना यानी किसान आंदोलन के दौरान का है जब 4 फरवरी, 2021 को केंद्र सरकार के कहने पर ट्विटर ने 500 से भी ज्यादा अकाउंट्स पर रोक लगा दी थी जबकि सरकार ने उसे 1,178 अकाउंट्स की लिस्ट दी थी. इस बात की जानकारी ट्विटर ने इन शब्दों के साथ 11 फरवरी, 2021 को एक ब्लौग के जरिए दी भी थी कि, भारत सरकार द्वारा देश में कुछ अकाउंट्स को बंद करने के निर्देश के तहत उस ने कुछ अकाउंट्स पर रोक लगाई है. नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं, राजनीतिज्ञों एवं मीडिया के ट्विटर हैंडल को ब्लौक नहीं किया गया है क्योंकि ऐसा करने से अभिव्यक्ति की आजादी के मूल अधिकार का उल्लंघन होता.

ट्विटर ने यह भी कहा था कि वह भारतीय कानूनों के तहत ट्विटर एवं प्रभावित खातों दोनों के लिए विकल्प तलाश करने की सक्रियता से कोशिश कर रहा है. विवादित अकाउंट्स के बारे में सरकार की दलील यह थी कि उन का जुड़ाव पाकिस्तानी और खालिस्तानी समर्थकों के साथ पाया गया है और जिन से किसानों के प्रदर्शन के संबंध में भ्रामक और भड़काऊ सामग्री शेयर की गई. इस से पहले भी सरकार ने किसान आंदोलन के संबंध में हुए ट्वीट्स को ले कर 257 अकाउंट्स पर रोक लगाने के लिए कहा था. असल फसाद की जड़ यही अकाउंट्स थे जिन्हें ट्विटर ने कुछ घंटों के लिए तो रोका लेकिन ये अकाउंट्स फिर से ऐक्टिव हो गए.

अपने हुक्म की तामील न होते देख सरकार हत्थे से उखड़ गई और ट्विटर को कानूनी नोटिस दे दिया. सरकार ने आईटी एक्ट की धारा 69 ए (3) का हवाला दिया जिस के तहत ट्विटर के अधिकारियों को 7 साल की जेल की सजा हो सकती थी. इस पर भी ट्विटर ने ब्लौगपोस्ट के जरिए कहा कि नुकसानदेह सामग्री वाले हैशटैग की दृश्यता घटाने के लिए उस ने कदम उठाए हैं जिन में ऐसे हैशटैग को ट्रैंड करने से रोकना एवं सर्च के दौरान इन्हें देखने की सिफारिश नहीं करने देना है. उस ने यह सूचना इलैक्ट्रौनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय को देते यह भी स्पष्ट किया कि अकाउंट्स बंद करने के आदेश में चिन्हित अकाउंट्स के एक हिस्से पर हमारी विषयवस्तु नीति के तहत केवल भारत में रोक लगाई गई है. ये अकाउंट्स भारत के बाहर उपलब्ध रहेंगे.

ट्विटर ने सरकार की मनमानी पर बेहद विनम्र लहजे में अपनी यह बात भी रखी कि हम नहीं मानते कि जिस तरह की कार्रवाई के हमें निर्देश दिए गए हैं वे भारतीय कानून और अभिव्यक्ति की रक्षा करने के हमारे सिद्धांत के अनुरूप हैं. बात अब बोलने और लिखने की आजादी को ले कर अपनीअपनी परिभाषाओं, पैमानों और सिद्धांतों की हो गई थी जिस पर ट्विटर भारी पड़ा क्योंकि जहांजहां उसे आपत्तिजनक सामग्री दिखी वहांवहां उस ने सरकार की बात मानी लेकिन जहां उसे लगा कि यह सामग्री आपत्तिजनक या भड़काऊ नहीं है वहां उस ने, खासतौर से, मीडिया, राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपनी बात कहने दी.

ट्विटर का यह कहना भी सरकार को नागवार गुजरा कि अहम यह है कि लोग समझें कि कैसे सामग्री में संतुलन और दुनियाभर की सरकारों से संवाद वह बढ़ाती है. स्वतंत्र इंटरनैट एवं अभिव्यक्ति के पीछे के मूल्यों पर पूरी दुनिया में खतरा बढ़ रहा है. ट्विटर उन आवाजों को ताकत देने के लिए है जिन्हें सुना जाना चाहिए.

लेकिन सरकार को सलाहमशवरे की नहीं बल्कि किसानों के समर्थन में उठ रही आवाजें बंद करने की दरकार थी. इस बाबत देसी मीडिया तो हमेशा की तरह मैनेज था लेकिन विदेशी सोशल मीडिया पकड़ में नहीं आ रहा था. लिहाजा, उसे कानून का डंडा दिखाया गया. इस से बात बनी तो, लेकिन आधीअधूरी बनी, क्योंकि ट्विटर ने बेहद सधे लहजे में भारतीय कानूनों की व्याख्या अदालत से बाहर ही कर दी थी कि वह सरकार की मंशा या स्वार्थसिद्धि का साधन नहीं बन सकते. साबित यह भी हो गया कि सरकार ने ट्विटर पर दबाव बनाया था और वक्तवक्त पर दूसरे अकाउंट्स बंद करने का दबाव वह ट्विटर पर बनाती रही है.

एक मामले में 22 मार्च, 2022 को दिल्ली हाईकोर्ट ने एक हिंदू देवी काली के बारे में लगातार ईशनिंदा करने वाले नास्तिक संगठन को ब्लौक न किए जाने पर ट्विटर की आलोचना की थी. इस मामले पर लंबीचौड़ी बहस अदालत में हुई थी लेकिन उस से यह साफ नहीं हो पाया था कि ट्विटर किस हद तक भारतीय कानूनों को मानने के लिए बाध्य है और क्या सरकार के कहने पर उसे किसी अकाउंट पर बिना सोचेसमझे रोक लगा देनी चाहिए. इसी तरह पौप सिंगर रौबिन रिहाना के एक शूट के दौरान उस के गले में गणेश का पेंडेट लटका देख भी हिंदूवादियों ने जम कर बवाल काटा था और ट्विटर के खिलाफ दिल्ली और मुंबई पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

मामला कारवां का

ऐसा ही एक मामला दिल्ली प्रैस की लोकप्रिय इंग्लिश मैगजीन ‘कारवां’ का है जिस का ट्विटर अकाउंट ब्लौक कर दिया गया था. एक स्वतंत्र खोजी पत्रकार सृष्टि अग्रवाल ने जब इस संबंध में आरटीआई के तहत जानकारी मांगी तो मामला कानून के मकड़जाल में उलझ कर रह गया और सृष्टि को चाही गई जानकारी नहीं मिली. उन्होंने 30 अप्रैल, 2021 को इलैक्ट्रौनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सामने एक आरटीआई दायर कर उन सभी उपयोगकर्ताओं के नाम और हैशटैग की लिस्ट मांगी थी जिन्हें केंद्र सरकार ने ट्विटर को ब्लौक करने का निर्देश दिया था.

इन में से एक हैशटैग मोदी प्लानिंग फार्मर जिनोसाइड भी था, यह भी ब्लौक कर दिया गया था. इस के पीछे आईटी मंत्रालय का कहना यह था कि यह लिंक विरोधों के बारे में गलत सूचना फैला रहा था जो देश में सार्वजनिक व्यवस्था की स्थिति को प्रभावित करने वाली आसन्न हिंसा को जन्म देने की क्षमता रखती हैं. ‘कारवां’ ने किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली में एक किसान नवप्रीत सिंह की मौत की सूचना दी थी.

नवप्रीत की मौत पर खासा बवंडर उस वक्त मचा था जिस पर कारवां ने पड़ताल की थी. इस मौत के बारे में चश्मदीदों, नवप्रीत के घर वालों और पोस्टमौर्टम करने वाले फौरेंसिक विशेषज्ञों ने ‘कारवां’ को बताया था कि नवप्रीत की गोली मार कर हत्या की गई थी. उलट इस के, दिल्ली पुलिस का दावा यह था कि यह मौत तेज रफ़्तार से ट्रैक्टर चलाने से हुए हादसे के चलते हुई.

इस के बाद तो देशभर से ‘कारवां’ के संपादक, मालिकान और पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने की होड़ सी लग गई थी, मानो एक किसान की मौत की खबर देने की अपनी जिम्मेदारी निभा कर उन्होंने कोई संगीन गुनाह कर दिया हो. हैरानी की बात यह भी कि ‘कारवां’ ने उक्त हैशटैग का इस्तेमाल ही नहीं किया था.

बहरहाल, सृष्टि की आरटीआई इस आधार पर खारिज कर दी गई कि ‘कारवां’ के ट्विटर अकाउंट को आईटी एक्ट की धारा 69 के तहत ब्लौक किया गया था जो राष्ट्रीय सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता से ताल्लुक रखते मुद्दों से जुड़ी है और आईटी अधिनियम की ही धारा 8 (1) (ए) के तहत इसे उजागर नहीं किया जा सकता. सृष्टि ने हार नहीं मानी और लगातार कानूनों के तहत ही कार्रवाई करती रहीं और सरकार ने हर बार गोपनीयता की आड़ ले कर उन्हें टरका देने में ही अपनी भलाई समझी.

किसलिए हैं ये कानून

धारा 8 (1) (ए) सरकार के लिए ढाल का काम ज्यादा करती है. आम लोगों के भले या हित से इस का कोई लेनादेना नहीं. जो जानकारी सरकार छिपाना चाहती है उस की वजह झट से इस कानून को बता देती है, जबकि ‘कारवां’ के मामले में स्थिति बहुत साफ थी कि उस ने किसी को भड़काया या उकसाया नहीं था, बस, एक किसान की मौत की खबर दी थी. मुमकिन है इस के पीछे सरकार के अपने पूर्वाग्रह रहे हों क्योंकि दिल्ली प्रैस पत्रिकाएं किसी के भी गलत का लिहाज नहीं करती हैं.

मोदी सरकार की नोटबंदी के दौरान भी साल 2018 में भारतीय रिजर्व बैंक ने इसी धारा के सहारे दायर हुई आरटीआई याचिकाएं खारिज की थीं और कोविड-19 वैक्सीन मूल्य निर्धारण नीति पर दायर याचिकाओं पर भी इसे ढाल बनाया था. ऐसी ही एक याचिका खारिज करते कहा यही गया था कि जानकारी का खुलासा करना राज्य के रणनीतिक, वैज्ञानिक और आर्थिक हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है.

इसी अधिनियम का हवाला दे कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री की मांग खारिज कर दी जाती है जिस के पीछे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल फिर हाथ धो कर पीछे पड़ गए हैं. जैक डार्सी ने अपने इंटरव्यू में यों ही भारतीय लोकतंत्र पर कटाक्ष नहीं कर दिया बल्कि इस की अपनी वजहें भी हैं कि आप अपने देश के मुखिया की शक के दायरे में आ गई डिग्री भी नहीं मांग सकते. अब उस से कैसे देश की अखंडता, संप्रभुता, गोपनीयता को खतरा है, यह सरकार जाने. यह मामला न तो आर्थिक है, न वैज्ञानिक है और न ही रणनीतिक है. कमोबेश दूसरे मामले भी इस से बहुत ज्यादा भिन्न नहीं हैं.

इस तरह के उदहारण बहुत हैं जिन में सरकार अपने ही देश के नागरिकों को जानकारी देने से कतराती और डरती रही है. भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों राफेल की विवादस्पद खरीदी हो या फिर विदेशों से वापस आए कालेधन की तथाकथित वापसी की जिज्ञासा हो, आप को इन पर भी जानने का हक नहीं. बिलाशक हर किसी को कानूनों का पालन करना चाहिए लेकिन यह भी देखा जाना जरूरी है कि उन से जनता को कोई सुविधा मिल रही है और सुरक्षा हो रही है या फिर वे सरकार की नाकामी व मनमानी छिपाने के लिए हैं, जैक डार्सी के इंटरव्यू ने यही परदा उठाया है.

आप को छूट और अधिकार सिर्फ देश में जगहजगह हो रहीं रामकथाओं और भागवद कथा सुनने के लिए हैं. आप कलश यात्राओं और कांवड़ यात्राओं में नंगेपांव चलने के भी अधिकारी हैं जिन से आप के लोकपरलोक दोनों सुधरते हैं. बाबाओं को चढ़ोत्री देते रहने से आप मोक्ष के हकदार हो जाते हैं. बाकी ट्विटर, मीडिया, बोलने की आजादी वगैरह सब मिथ्या बातें हैं. सरकार जो भी करती रहे, कहती रहे उसे खामोशी से देखते और सुनते रहिए. उस की हां में हां मिलाते रहिए, वही इस नश्वर जीवन का सार और सार्थकता व देशभक्ति भी है. इस पर भी जी न भरे, तो जीभर कर दिनरात हिंदूमुसलमान करने की भी सहूलियत है जो 8 साल से देश में इफरात से हो रहा है.

आजादी पर आंच

जैक डार्सी ने अपने इंटरव्यू के जरिए जो इशारा किया वह मीडिया की बदहाली की तरफ ज्यादा  था. देश के अधिकतर न्यूज चैनल भगवा गैंग के हाथों बिके माने जाते हैं. बीती 3 मई को वर्ल्ड प्रैस फ्रीडम यानी विश्व प्रैस स्वतंत्रता सूचकांक की रिपोर्ट में भारत का स्थान 180 देशों में 161वें नंबर पर है जो पिछले साल 150 नंबर पर था. साल 2002 में जब पहली बार यह सिलसिला शुरू हुआ था तब मीडिया की आजादी के मामले पर भारत 80वें नंबर पर था. मीडिया की हालत इसी से समझी जा सकती है कि न्यूजरूम में छाता पकड़ कर ऐक्टिंग की जा रही है. यानी, मीडिया की आजादी सालदरसाल छिनती गई. मोदी सरकार के राज में तो इस की और भी दुर्गति हो रही है.

यह रिपोर्ट कुछ तयशुदा पैमानों पर आरएसएफ यानी ‘रिपोर्टर्स विदाउट बौर्डर्स’ नाम की संस्था, जो कि अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ है, तैयार करती है. इस रिपोर्ट की एक टिप्पणी में यह भी कहा गया है कि भारत में पत्रकारों के खिलाफ हिंसा राजनीतिक तौर पर पक्षपाती मीडिया, कुछ लोगों के हाथ में मीडिया का मालिकाना हक, यह दिखाता है कि 2014 से भारतीय जनता पार्टी के नेता और राष्ट्रवादी हिंदू विचारधारा से जुड़े नरेंद्र मोदी शासित दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र में प्रैस की आजादी खतरे में है.

प्रिंट मीडिया के लिहाज से भी आरएसएफ की इस टिप्पणी से असहमत नहीं हुआ जा सकता जहां अखबारों का धंधा पुश्तैनी है. जो अखबार दादा देखता था, उस की कमान अब उस पोते के हाथ में है जिस की प्रतिबद्धता हमेशा सत्तापक्ष के साथ रही है. इन से निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद पूरी न होना उतनी दिक्कत की बात नहीं जितनी यह है कि ये सब सिरे से चाटुकार हो गए हैं.

भारत में अभी भी प्रिंट मीडिया ज्यादा भरोसेमंद माना जाता है लेकिन अकेले सत्तापक्ष का गुणगान कैसे पाठकों को भ्रमित और गुमराह कर एक पूर्वाग्रह से ग्रस्त कर देता है, इसे सुप्रीम  कोर्ट के एक फैसले में दी गई इस टिप्पणी से समझना ज्यादा अहम होगा. यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने मलयालम न्यूजचैनल ‘मीडिया वन’ के लाइसैंस के नवीनीकरण की सुनवाई के दौरान बीती 5 अप्रैल को दी थी. इस चैनल पर सरकार ने पाबंदी लगा दी थी-

एक मजबूत लोकतांत्रिक गणराज्य के कामकाज के लिए एक आजाद प्रैस चाहिए लोकतांत्रिक समाज में प्रैस की भूमिका अहम है. राज्य काम कैसा कर रहा है, प्रैस इस पर रोशनी डालती है. प्रैस का कर्तव्य है कि वह सच बोले और नागरिकों के सामने तथ्य रखे ताकि लोकतंत्र सही दिशा में चले. प्रैस की आजादी पर अगर प्रतिबंध लग जाए तो सभी नागरिक एक ही तरह से सोचने लगेंगे और अगर समाज सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तौर पर एक ही तरह की विचारधारा रखने लगे तो इस से प्रजातंत्र को गंभीर खतरे पैदा होंगे.

गौरतलब है कि ‘मीडिया वन’ चैनल के लाइसैंस का नवीनीकरण न करने पर भी राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला दिया गया था. इस पर कोर्ट ने दो टूक कहा था कि सरकार की नीतियों के खिलाफ चैनल के आलोचनात्मक विचारों को देशविरोधी नहीं कहा जा सकता. मीडिया की आजादी पर मंडराते इसी खतरे से अगर जैक डार्सी ने आगाह किया है तो कौन सा गुनाह कर दिया. यह तो देश के हित और भले की बात है.

जानिए ट्विटर और जैक डार्सी को

अमेरिका के सैंट लुईस में जन्मे 46 वर्षीय जैक डार्सी ने बहुत कम उम्र में ही उम्मीद से ज्यादा दौलत और शोहरत यों ही हासिल नहीं कर ली है, इस के पीछे उन के खुराफाती दिमाग और उन की रिस्क लेने की क्षमता शामिल है . बिलाशक प्रतिभाशाली तो वे हैं ही. वे साल 2006 का एक कोई दिन था जब एक शाम की पार्टी में उन के 2 दोस्तों बिज स्टोन और नोआ ग्लास की बातचीत में ट्विटर के आइडिए पर चर्चा हुई थी. तब मकसद यह था कि एक ऐसा प्लेटफौर्म या वैबसाइट बनाई जाए जिस पर लोग अपने दिलोदिमाग में आ रही बातें शेयर कर सकें.

इस के बाद हर कभी इस पर चर्चा होने लगी और आइडिए को ट्विटर नाम दिया गया. माइक्रोब्लौगिंग प्लेटफौर्म ट्विटर के वजूद में आते ही पहला ट्वीट 22 मार्च, 2006 को जैक डार्सी ही ने किया था. जैक डार्सी की विलासी जिंदगी अकसर सुर्ख़ियों में रही. वे आलीशान मकान में रहते हैं, स्पोर्ट्स कारों व डेटिंग के शौक़ीन हैं और माडल्स के प्रति उन का झुकाव है. हालांकि, वे एक वक्त ही खाना खाते हैं और नहाते बर्फ से हैं जो कोई असामान्य बात नहीं है, बल्कि यह एक खास किस्म की स्टाइल है, जिस की आलोचना भी अमेरिका में होती रही थी.

जैक डार्सी कोई रईस घराने के नही हैं. उन के पिता टिम डार्सी मध्यवर्गीय थे, वे एक कंपनी में काम करते थे. कैथोलिक परिवेश में पलेबढ़े इस किशोर ने कामचलाऊ माडलिंग भी की थी और पैसा कमाने के लिए वे मालिश भी करते थे. यह साल 2002 की बात है जब उन्होंने अमेरिकी कानून के मुताबिक मालिश करने का लाइसैंस लिया था. लेकिन महज 14 साल की उम्र में उन्होंने टैक्सी

डिस्पैचिंग सौफ्टवेयर बना कर इस कहावत को चरितार्थ कर दिया था कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं. सौफ्टवेयर में बढ़ती दिलचस्पी और कुछ लापरवाह मिजाज ने उन्हें कालेज की पढ़ाई पूरी नहीं करने दी, सो, उन्होंने ओडियो नाम की एक पौडकास्टिंग कंपनी में नौकरी कर ली. ट्विटर चल निकला, तो 2015 में उन्हें उस का सीइओ बना दिया गया. साल 2021 को उन्होंने यह पद छोड़ दिया जिसे भारतीय मूल के पराग अग्रवाल ने संभाला.

अच्छे मैनेजर और बिजनैसमन साबित हुए जैक डार्सी के साथ विवादों की भी लंबी फेरहिस्त है. इस की शुरुआत उस वक्त हुई थी जब उन्होंने अपने साथी  नोआ ग्लास को बाहर का रास्ता दिखा दिया था. 2013 में ट्विटर जब लोकप्रिय होने लगा और इसे इस्तेमाल करने वालों की तादाद बढ़ने लगी तो रूढ़ियों के विरोधी जैक डार्सी सुर्ख़ियों में रहने लगे क्योंकि उन पर लक्ष्मी बरसने लगी थी. उस साल तक उन की संपत्ति 2.2 अरब डौलर की आंकी गई थी जो अब लगभग 4.3 बिलियन डौलर है. उन्हीं के कार्यकाल में डोनाल्ड ट्रंप का अकाउंट सस्पैंड किया गया था जिस की चर्चा दुनियाभर में हुई थी और पहली बार घोषिततौर पर उन पर लेफ्ट यानी वामपंथी होने का ठप्पा लगा था जिस पर उन्होंने कभी एतराज नहीं जताया, उलटे, खुद को वामपंथी कहे जाने पर फख्र ही महसूस करते रहे.

अपने सीईओ रहते उन्होंने एक आर्थिक जोखिमभरा फैसला यह भी लिया था कि ट्विटर पर राजनीतिक विज्ञापन नहीं लिए जाएंगे. 2011 में राष्ट्रपति बराक ओबामा का उन का लिया इंटरव्यू भी चर्चित रहा था जो उस वक्त ट्विटर की शब्दसीमा 140 का था. साल 2020 में ट्विटर पर सौ से भी ज्यादा अकाउंट हैक हुए थे, जिन में से एक बराक ओबामा का भी था, तब भी खासा बबाल मचा था.

ट्विटर के मुखिया रहते उन की पूछपरख स्वाभाविक रूप से थी. दुनियाभर के जिन देशों के प्रमुखों से वे मिले, उन में नरेंद्र मोदी का नाम प्रमुखता से शामिल है जिन से साल 2018 में वे मिले थे. तब जैक डार्सी ने नरेंद्र मोदी के साथ अपना एक फोटो शेयर करते यह भी लिखा था कि ट्विटर के लिए सुझाव देने का धन्यवाद. ट्विटर छोड़ने के बाद उन्होंने अपनी कंपनी ब्लैक इंक और ब्लू स्काई नाम का एप बनाया जिसे ट्विटर का ही संस्करण कहा जाता है, लेकिन दोनों आज भी ट्विटर के सामने कहीं नहीं ठहरते

जैक डार्सी की भारत यात्रा भी विवादों से घिरी रही थी. 19 नवंबर, 2018 को एक तसवीर में उन के हाथ में एक पोस्टर दिखा था जिस पर लिखा था- ‘ब्राह्मण पितृसत्ता का नाश हो’ इस पर भी खूब हल्ला मचा था. तब सवाल यह भी पूछा गया था कि आप क्या केवल लेफ्ट विंग वालों के लिए ही भारत आए थे. असल में वह महिला लेखकों, एक्टिविस्टों और पत्रकारों का एक आयोजन था और ब्राह्मणविरोधी प्लेकार्ड स्वाति अर्जुन नाम की पत्रकार ने उन्हें पकड़ा दिया था. लेकिन ऐसा लगता नहीं कि जैक डार्सी जैसे चतुर कारोबारी ने यों ही नादानी या अनजाने में उसे पकड़ लिया होगा.

ट्विटर को खड़ा करने वाले जैक डार्सी ने कम वक्त में ही दुनिया की राजनीति और हालात समझ लिए हैं और उन्हें भुनाने का कोई मौका वे नही छोड़ते. जब ट्विटर को एलन मस्क ने 44 अरब रुपए में खरीदा था तो हर किसी को समझ आ गया था कि यह एक विचारधारा का नकद के एवज में स्थानांतरण है. एलन मस्क घोषिततौर पर दक्षिणपंथी हैं, इसीलिए उन्होंने ट्विटर की कमान संभालते ही सब से पहले डोनाल्ड ट्रंप व उन के साथियों के अकाउंट बहाल किए थे. अमेरिका में ट्विटर के सब से ज्यादा 9 करोड़ 54 लाख यूजर हैं, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उस का प्रभाव वहां आने वाले चुनावों पर नहीं पड़ेगा. भारत में यह संख्या 3 करोड़ छूने वाली है, इसलिए ट्विटर का असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा. लेकिन यह अब ट्विटर की नई सीईओ लिंडा पर निर्भर करेगा जिन का रुख अभी साफ़ नहीं हुआ है.

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