अमेरिका और चीन को विश्व की 2 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और शक्तिशाली देश माना जाता था, मगर आज चीन अमेरिका से कई मानों में आगे निकलता दिख रहा है.चाहे सैन्य ताकत बढ़ाने की बात हो या व्यापार की, कछुआ गति से चुपचाप आगे बढ़ते चीन ने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है.इसवजह से अमेरिका की पेशानी पर चिंता की लकीरें हैं.

अर्थव्यवस्था के मामले में, हालांकि, जरमनी और जापान भी उभर कर सामने आए हैंमगर चीन का हर क्षेत्र में पैर पसारते जाना अमेरिका को ज्यादा बड़े खतरे का एहसास करा रहा है. दूसरे, चीन लगातार रूस को सहयोग कर रहा है. एक समय रूस और अमेरिका 2 महाशक्तियां थीं. आज रूस की स्थिति कुछ कमजोर है. ऐसे में चीन उसका बड़ा मददगार है.

रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिका का हस्तक्षेप और यूक्रेन को अप्रत्यक्ष रूप से लगातार सैन्य मदद पहुंचाना रूस को भी बड़ा नागवार गुजर रहा है. जानकारों की मानें तो इस युद्ध में यूक्रेन के लिए बाइडेन प्रशासन की तरफ से अच्छीखासी रकम खर्च की जा रही है. विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि यूक्रेन की आड़ में अब अमेरिका ही रूस से जंग लड़ने में लगा है. अमेरिका नहीं चाहता कि चीन उसकी मदद करे, इसलिए वह चीन को अन्य मोरचों पर भी उलझाए रखना चाहता है, जैसे ताइवान और भारत के खिलाफ.

यह वह वक्त है जब विश्व के कई देश महाशक्ति के रूप में अपनाअपना वर्चस्व स्थापित करने की फिराक में हैं. विश्व इस वक्त मल्टीपोलर वर्ल्ड बन चुका है और ऐसे में इन सबके बीच भारत की स्थिति और उसकी विदेश नीति की बात करना जरूरी हो जाता है क्योंकि भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, उसकी सैन्य ताकत भी धीरेधीरे बढ़ रही है. आबादी की दृष्टि से भारत दुनिया में पहले पायदान पर खड़ा है.

आबादी मतलब उपभोक्ता. आबादी मतलब कम पैसे में मेहनती लेबर. व्यापार की दृष्टि से और इतनी विशाल जनसंख्या यानी उपभोक्ता के रूप में भारत लाभ देने वाला देश है. रूस,अमेरिका, चीन इन तीनों ही देशों से भारत के बड़े व्यापारिक रिश्ते हैं. भारत एक बहुत बड़ा मार्केट है जहां सभी देश अपना सामान बेचने को लालायित हैं. वे यहां अपने उद्योग स्थापित करना चाहते हैं क्योंकि यहां उन्हें कम पैसे में ज्यादा वर्कफ़ोर्स मिल जाती है.

भारत को अपने साथ मिलाए रखने के लिए सभी बड़ी शक्तियां लगी हुई हैं. इसमें भारत से ज्यादा उन्हें लाभ है. बीते कुछ समय से अमेरिका का भारत की तरफ झुकाव काफी बढ़ गया है. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन तक से भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकातों का सिलसिला जारी है.

2014 से अब तक मोदी कई बार अमेरिका यात्रा कर चुके हैं. वाइट हाउस में उनका बढ़िया स्वागत होता है और दुनियाभर के मीडिया में फोटोग्राफ सर्कुलेट किए जाते हैं. नमस्ते ट्रंप से लेकर जो बाइडेन का ‘आ गले लग जा’ वाला अंदाज विश्वभर के मीडिया में छाया रहा. अमेरिका में बसे भारतीयों में भी मोदी को लेकर बड़ा क्रेज है. उनको देखने और मिलने के लिए अमेरिकी भारतीयों की बड़ी भीड़ उमड़ती है. मोदी उन्हें देख कर गदगद होते हैं. जबकि ये वो लोग हैं जो भारत की गरीब जनता के बारे में नहीं सोचते, जो भारत के संसाधनों पर पढ़लिख कर आज अमेरिका को अपनी सेवाएं दे रहे हैं और अमेरिका की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं.

ये वो लोग हैं जिन्हें यदि भारत और अमेरिका में से किसी एक का पक्ष लेने के लिए कहा जाए तो वे निसंदेह अमेरिका के पक्ष में ही खड़े होंगे. फिर भी मोदी के अमेरिका पहुंचने पर वे जमावड़ा लगा कर ‘मोदी-मोदी’ के नारे लगाते हैं तो निश्चित ही यह अमेरिकी रणनीति का एक हिस्सा है. महाशक्ति बनने की कामना पालने वाला अमेरिका, जो चीन और रूस को अपना बड़ा प्रतिद्वंद्वी मानता है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही राजनीतिक पृष्ठभूमि के आईने में भारत के साथ रिश्ते को नया आयाम देने की कोशिश में है.

अमेरिका चाहता है कि चीन और भारत के बीच टकराव बढ़े, जंग छिड़े और अगर ऐसा करने में अमेरिका नाकाम रहता है तो कम से कम वह भारत को अपनी ढाल बना कर जरूर रखेगा. उसकी लगातार कोशिश है कि भारत-अमेरिका दोस्ती की खबरें अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनें और चीन व रूस तक यह संदेश जाए. हालांकि, भारत अमेरिका की इस मंशा को समझता है.

2 दशकों पहले तक सैन्यशक्ति के हिसाब से अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश था. लेकिन धीरेधीरे एशिया पैसिफिक में चीन ने धीमी और खामोश गति से अपनी आर्थिक ताकत कई गुना बढ़ा ली और जब कोई देश आर्थिक रूप से मजबूत होता है तो वह सैन्यशक्ति भी बढ़ाता है, जो चीन ने किया और जिसका प्रदर्शन वह लगातार भारतचीन सीमा क्षेत्र में भी कर रहा है, दक्षिण चीन सागर में भी दिखा रहा है और ताइवान पर भी जोरआजमाइश में लगा है.

चीन की बढ़ती आर्थिक और सैन्य शक्ति को अमेरिकी नीतिनिर्धारक काफी समय तक भांप नहीं पाए. मगर अब उनको एहसास हो रहा है कि चीन अगर महाशक्ति के रूप में स्थापित हुआ तो वह अमेरिका के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकता है.

अमेरिका को अपनी बादशाहत कायम करनी है. एक वक्त था जब दुनिया 2 ध्रुवों में बंटी हुई थी- अमेरिका और रूस. मगर रूस अपनी ताकत खोता गया. इधर एक साल में यूक्रेन के साथ युद्ध में भी रूस को काफी नुकसान उठाना पड़ा है. दूसरी तरफ यूक्रेन को लगातार मदद पहुंचा कर अमेरिका ने रूस के सामने चुनौती खड़ी कर रखी है. चीन को ताइवान से भिड़ाए रखने में भी अमेरिका का हाथ है. मगर ताइवान छोटा देश है. उससे निबटने में चीन को ज्यादा वक्त नहीं लगेगा और उसकी ताकत भी नहीं घटेगी.

अगर युद्ध होता भी है तो अमेरिका की अप्रत्यक्ष मदद के बावजूद ताइवान चीन के सामने ज्यादा देर टिक नहीं पाएगा. चीन अमेरिका की शातिराना हरकतों से अच्छी तरह वाकिफ है.यही वजह है कि कोरोनाकाल में उसने किसी अमेरिकी टीम को जांच के लिए चीन में घुसने नहीं दिया. वह जानता था कि अमेरिका अगर वहां से 2 बातें ढूंढ कर ले जाएगा तो उसकी 10 बना कर दुनिया के सामने रखेगा और नमकमिर्च लगा कर चीन को बदनाम करेगा.

चीन अमेरिका के किसी झांसे में न आया और न आएगा. अब अमेरिका को यही चिंता खाए जा रही है कि चीन अगर इसी तरह अपनी आर्थिक और सैन्य ताकत बढ़ाता रहा और उसे अन्य देशों, खासकर रूस, का सहयोग मिलता रहा तो वह महाशक्ति के रूप में दुनिया में स्थापित हो जाएगा. रूस और भारत तो पहले भी दोस्त थे और आज भी दोस्त हैं. ऐसे में अमेरिका की कोशिश है कि कम से कम वह भारत को अपनी ओर खींचे रहे.

इसी मंशा के चलते अमेरिका भारत को चीन के खिलाफ उकसाने की लगातार कोशिश में है. भारत को उकसाने और अपने पाले में मजबूत करने के लिए वह बारबार यह बता रहा है कि चीन से भारत और अमेरिका दोनों को एकजैसा खतरा है. जबकि, ऐसा नहीं है.

अमेरिका को लगता है कि चीन के खिलाफ अगर किसी को खड़ा कर सकते हैं तो वह भारत है. रूस को यूक्रेन से उलझाए रखने की तरह ही अगर चीन को किसी के साथ उलझाए रखा जा सकता है तो वह भारत है. यही वजह है कि अमेरिकी नेता समयसमय पर ऐसी बयानबाजी कर रहे हैं जिससे यह संदेश भारत को मिले कि चीन की बढ़ती ताकत से उसको बहुत ज्यादा खतरा है.

हाल ही में एक अमेरिकी टौप कमांडर ने कहा कि चीन अमेरिका और भारत दोनों के लिए एक ही तरह का चैलेंज पेश कर रहा है. ऐसे में हम भारत की मदद कर रहे हैं. अमेरिका की इस उकसाऊमंशा को बहुत गंभीरता से समझने की जरूरत है और अमेरिका के किसी बहकावे में न आकर भारत का तटस्थ बने रहना ही ठीक है.

यूक्रेन और रूस के मुद्दे पर भारत ने जो रुख अख्तियार कर रखा है, उससे अमेरिका बौखलाया हुआ है और अगर अमेरिका के पास इंडो-पैसिफिक की मजबूरी न होती व भारत की स्थिति मजबूत न होतीतो अमेरिका भारत पर भी प्रतिबंध लगाने से न चूकता, जैसाकि उसने पाकिस्तान पर 55 मिलियन डौलर जुर्माना लगाकर किया है.

वहीं, यूक्रेन को लेकर ऐसी वैश्विक परिस्थिति बनीकि पहली बार भारत और चीन एकसाथ आए. यूनाइटेड नैशंस में भारत और चीन का रुख रूस को लेकर एकसमान था और सबसे दिलचस्प बात यह कि भारत की मौजूदा विदेश नीति की चीन ने जमकर तारीफ की और चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स के संपादकीय में यह तक लिखा गयाकि, भारत ने अमेरिका को उसकी ‘औकात’ दिखा दी है. इस संपादकीय से यह संकेत जाता हैकि रूस पर भारत और चीन ने एकदूसरे द्वारा उठाए गए कदमों पर बारीक नजर रखी हुई है.

भारत का चीन के साथ बौर्डर पर सिक्योरिटी चैलेंज भले हो, आएदिन दोनों देशों की बौर्डर सिक्योरिटी फोर्सेज में झड़पें भी होती रहती हों, भारत और चीन के राजनेताओं के बीच वाकयुद्ध भी चलते हों, मगर भारत और चीन दोनों ही आपस में युद्ध नहीं चाहते हैं. यह एक अच्छी डिप्लोमैसी कही जाएगी.

चीन के साथ भारत का इतना बड़ा आर्थिक लेनदेन है कि चीन कभी नहीं चाहेगा कि भारत के साथ उसके रिश्ते में खटास आए और भारत जैसे महाबाजार में उसका व्यापार खराब हो. चूंकि चीन की अर्थव्यवस्था कोरोनाकाल के दौर में कमजोर हुई है और वह उसे दुरुस्त करने में भी लगा है, इसलिए वह कभी नहीं चाहेगा कि भारत के साथ कोई युद्ध करके वह अपनी अर्थव्यवस्था चौपट कर दे.

सबसे बड़ी बात यह है कि भारत और चीन दोनों ही देशों की आम जनता अमेरिकी जनता के मुकाबले बहुत गरीब है. दोनों ही देशों की सरकारों पर अपनी जनता के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है, ऐसे में न भारत और न ही चीन आपस में युद्ध की बात सोचेंगे.

भारत और चीन के बीच ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर विवाद है, फिर भी दोनों एकदूसरे के दुश्मन नहीं हैं. भारत चीन के साथ हर मामले को बातचीत के जरिए हल करना चाहता है.सबसे बड़ा विवाद सीमा क्षेत्र का है. भारत और चीन के बीच करीब 4,000 किलोमीटर की सीमा लगती है. चीन के साथ इस सीमा विवाद में भारत और भूटान 2 ऐसे मुल्क हैंजो उलझे हुए हैं. भूटान में डोकलाम क्षेत्र को लेकर विवाद है तो वहीं भारत में लद्दाख से सटे अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश को लेकर विवाद जारी है. दोनों तरफ के बौर्डर सिक्योरिटी क्षेत्र के जवानों में अकसर झड़पें भी होती हैं, मगर इस मामले का हल बातचीत से निकालने की ही कोशिश दोनों ओर से है.

चीन को इस बात की भी शिकायत है कि भारत ने तिब्बती धर्मगुरु दलाई लाम को भारत में शरण दे रखी है. मगर भारत शरण में आए मनुष्य की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध है. यह बात चीन भी अच्छी तरह जानता है. और अब उसने इस बात को उठाना बंद कर दिया है.

दूसरा मामला स्ट्रिंग औफ पर्ल्स का है. ‘स्ट्रिंग औफ पर्ल्स’ भारत को घेरने के लिहाज से चीन द्वारा अपनाई गई एक अघोषित नीति है. इसमें चीन द्वारा भारत के समुद्री पहुंच के आसपास के बंदरगाहों और नौसेना ठिकानों का निर्माण किया जाना शामिल है. वहीं ब्रह्मपुत्र नदी के जल के बंटवारे को लेकर भी भारत और चीन के बीच में विवाद है. चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपरी इलाके में कई बांधों का निर्माण किया गया है. हालांकि, जल बंटवारे को लेकर भारत और चीन के बीच में कोई औपचारिक संधि नहीं हुई है.

चीन भारत को एनएसजी का सदस्य बनने से भी रोकना चाहता है. इसके अलावा चीन लगातार पाकिस्तान की मदद कर रहा है जो कि भारत के लिए आएदिन मुसीबत बना रहता है. चीन ने बड़े पैमाने पर पकिस्तान में निवेश किया है. चीन-पाक आर्थिक गलियारा और ‘वन बेल्ट वन रोड’ जैसे उसके मेगा प्रोजैक्ट भारत के लिए खतरा हैं. ऐसे अनेक मामले दोनों देशों के बीच हैं लेकिन इन सभी मुद्दों पर लगातार बैठकें और चर्चाएं जारी हैं.

भारत और चीन के बीच रिश्ते उतारचढ़ाव से भरपूर रहे हैं. कभी रिश्तों में गरमी देखने को मिली तो कभी सीमा विवादों के चलते रिश्ते तनावपूर्ण रहे. मगर युद्ध की स्थिति न बने, ऐसी कोशिश दोनों तरफ से है. अमेरिका अगर यह सोचता है कि इन मुद्दों पर उकसा कर वह भारत को चीन से लड़वा देगा तो यह उसकी खामखयाली से ज्यादा कुछ नहीं है.

भारत की रूस, चीन और अमेरिका से ही नहीं, बल्कि, बंगलादेश, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब और यूक्रेन से भी सौहार्दपूर्ण संबंध हैं.’वसुधैव कुटुंबकम’ के विचार से ओतप्रोत भारत शांति से आगे बढ़ना चाहता है. मगर यह बात अमेरिका को अच्छी नहीं लग रही है. अमेरिका को लगने लगा है कि दुनिया का बाप होने का उसका मकसद भारत के इस रवैएसे बिखर जाएगा. चीन ने वैसे ही तमाम छोटे देशों, जैसे बंगलादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका को कर्ज दे देकर उनको अपने साथ मिलाया हुआ है और इन देशों में चीन की सेनाएं भी मौजूद हैं. भारत के साथ उसका अच्छा व्यापार है. रूस से उसकी दोस्ती है. पाकिस्तान उसकी हर बात मानने को बाध्य है.ये सब चीन के साथ हैं और उस की ताकत को बढ़ा रहे हैं. अमेरिका अकेला पड़ गया है,इसलिए वह चीन के खिलाफ लगातार भारत को उकसा रहा है.

ऐसे में भारत को बहुत फूंकफूंक कर कदम रखने की जरूरत है. अमेरिका के मोहजाल में फंसने से बचना होगा क्योंकि यह अमेरिका की रिक्वायरमैंट है कि चीन को चैक करने के लिए वह उसे या तो ताइवान से साथ भिड़ा दे या फिर भारत को आगे करके उसे चीन के साथ लड़वा दिया जाए. ऐसे में चीन भी कमजोर होगा व भारत भी. और फायदा अमेरिका का होगा.

भारत को अलग नहीं करेगा रूस

भारत के साथ रूस का संबंध सदियों पुराना है. आज के परिदृश्य में अमेरिका कितनी ही कोशिश कर ले, भारत रूस के खिलाफ नहीं जाएगा.वहीं, भारत से अपने संबंधों को तोड़ना रूस के लिए तो एक तरह की ‘रणनीतिक आत्महत्या’ होगी क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो वह स्थायी तौर पर चीन का गुलाम बन जाएगा.

साल 2022 में यूक्रेन पर हमले के बाद रूस पहले ही यूरोपियन यूनियन में मौजूद अपने सहयोगियों का भरोसा खो चुका है. ऐसे में भारत की दोस्ती वह नहीं खोना चाहता है.

हाल ही में रूस ने अपनी विदेश नीति अवधारणा पत्र में साफतौर पर चीन के साथसाथ भारत को ‘सत्ता के 2 अनुकूल संप्रभु वैश्विक केंद्र’ के रूप में पहचाना है. चीनभारत को एशिया में अपने दुश्मन के तौर पर नहीं बल्कि प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखता है तो वहीं रूस नई दिल्ली को अपने लिए कोई खतरा नहीं मानता है.

रूस और भारत चीन की वजह से अलग हो जाएंगे, ऐसी संभावना कम ही है. भारत के लिए रूस के साथ संबंध बनाए रखना महत्त्वपूर्ण है. भारत और रूस के संबंध, मास्को को चीन की झोली में गिरने से रोकने के लिए जरूरी हैं.

मोदी को मिल रही है भारी तवज्जुह

अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी इकोनौमी है जबकि हाल के वर्षों में भारत ने भी तेजी से आर्थिक विकास किया है. भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार अब 191 अरब डौलर के रिकौर्ड स्तर पर पहुंच चुका है. हाल में अमेरिका की कई कंपनियों ने भारत में अपना कारोबार फैलाया है. अमेरिका की कंपनियों ने भारत में करीब 60 अरब डौलर का निवेश किया है जबकि भारतीय कंपनियों ने अमेरिका में 40 अरब डौलर से अधिक का इन्वैस्टमैंट किया है.

अमेरिकी कंपनियों ने भारत में मैन्युफैक्चरिंग, टैलीकम्युनिकेशंस, कंज्यूमर गुड्स से लेकर एयरोस्पेस में निवेश किया है. भारतीय कंपनियों ने अमेरिका में आईटी, फार्मा और ग्रीन एनर्जी में इन्वैस्ट किया है. अमेरिका बारबार दोनों देशों के बीच ट्रेड की अपार संभावनाओं की बात कर रहा है. दरअसल, अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देश अब चीन पर अपनी निर्भरता कम करके उसकी आर्थिक ताकत को बढ़ने से रोकना चाहते हैं और इसके लिए भारत उनको सबसे ठीक जगह नजर आ रही है. उल्लेखनीय है कि अबकी अमेरिका यात्रा में मोदी की वहां की टौप20 कंपनियों के सीईओ से मीटिंग होगीजिसमें मास्टरकार्ड, एक्सेंचर, कोकाकोला, एडोब सिस्टम्स और वीजा मुख्य हैं.

मतलब साफ है कि अमेरिका यह जताना चाहता है कि भारत व अमेरिका की दोस्ती दोनों देशों के पक्ष में है और बहुत फायदेमंद है. कोरोनाकाल में अमेरिका समेत पश्चिमी देशों की कई कंपनियां अब सप्लाई चेन के लिए सिर्फ चीन पर निर्भर नहीं रहना चाहती हैं. वे विकल्प के तौर पर भारत को देख रही हैं. भारत से अपने रिश्तों को बढ़ाने के लिए अमेरिका कितना लालायित है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत के साथ अभी विभिन्न स्तरों पर 50 से अधिक द्विपक्षीय डायलौग मैकेनिज्म चल रहे हैं.

भारत को अपने खेमे में करने के लिए मोदी की अमेरिका यात्रा को कितनी तवज्जुह दी जा रही है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि अमेरिकी कांग्रेस के दोनों चैंबर्स के लीडर्स ने उन्हें दूसरी बार कांग्रेस के जौइंट सैशन को संबोधित करने का न्योता दिया है. अब तक दुनिया के कुछ ही नेताओं को यह सम्मान मिला है. इनमें विंस्टन चर्चिल, नेल्सन मंडेला और इजराईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और यित्जाक रैबिन शामिल हैं. इससे पहले मोदी ने 8 जून, 2016 को अमेरिकी संसद की संयुक्त बैठक को संबोधित किया था. उन्हें दोबारा यह सम्मान दिया जाना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के बढ़ते प्रभाव को दिखाने के साथ रूस और चीन के लिए एक संदेश भी है.

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