अभिनेता मनोज वाजपेयी की एक फिल्म है ‘गली गुलियां’, जो पुरानी दिल्ली की पतलीसंकरी गलियों में प्रेमीप्रेमिका की तरह सटे घरों में रहने वालों की उस घुटनभरी जिंदगी के दीदार कराती है, जहां अंधेरा ज्यादा है और रोशनी कम. जहां रिश्तों में आई सीलन उघड़ कर सामने आती है और साथ ही हम मिलते हैं फिल्म के मुख्य किरदार ‘खुद्दूस’ से जो इतना अकेला है कि उसे दूसरों की जिंदगी में झांकने की बीमारी हो जाती है.

मनोज वाजपेयी ने ‘खुद्दूस’ को इतनी बारीकी से जिया है कि क्या कहने. पर जब उन्होंने अपने इस खड़ूस किरदार के बारे में अजीब सा खुलासा किया तो लगा कि जिंदगी में अकेलापन किसी घुन से कम नहीं जो धीरेधीरे अच्छेभले इंसान को चलताफिरता भूत बना देता है. वह सस्ता नशा करता है, बीड़ी फूंकता है और उस के खानेपीने का भी कोई ठिकाना नहीं होता है. ऐसा नहीं है कि वह काम नहीं कर सकता, पर दूसरों पर पलना उस की आदत सी बन जाती है.

दरअसल, मनोज वाजपेयी ने इस फिल्म का पोस्टर शेयर करते हुए एक इंस्टग्राम पोस्ट लिखी थी. उस में उन्होंने बताया था कि इस फिल्म में काम करते समय वे अपना मानसिक संतुलन खोने के कगार पर पहुंच गए थे. तो क्या यह मान लिया जाए कि जो इंसान अकेला है, वह कभी खुश नहीं रह सकता? उसे दुनिया की सुखसुविधाएं भोगने का हक नहीं है?

जी नहीं, ऐसा कतई नहीं है. अकेलापन कोई सजा नहीं है, बल्कि यह तो मजा है, जिंदगी अपने लिहाज से जीने का अंदाज है. फरीदाबाद के सैक्टर 31 में अमन नाम का एक इंजीनियर रहता है. उम्र 41 साल. शादी के झमेले में नहीं फंसा, पर अपने घर को संवार कर रखने की कला में माहिर है. वह 2 बैडरूम के फ्लैट में रहता है. कोरोना के बाद से वर्क फ्रौम होम ज्यादा करता है, पर अगर उस के घर में कभी जाएंगे तो लगेगा ही नहीं कि वह किसी अकेले का घर है.

दरअसल, जिस तरह का भारतीय समाज है, वहां किसी अकेले के रहने पर शक करने वालों की कमी नहीं होती. पर अमन अलग ही मिट्टी का बना है और उस के घर में जा कर जो अपनापन मिलता है, वह बेमिसाल है.

अमन ने अपने किराए के उस घर को करीने से सजाया हुआ है. उसे बागबानी करने का शौक है और उस के ड्राइंगरूम में सजे पौधे उस की चौइस का बेहतरीन उदाहरण हैं. नाग पौधा, चीनी सदाबहार पौधा, रबड़ का पौधा, ऐलोवैरा आदि प्लांट्स उस के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाते हैं. साफसुथरे सोफे, क्लीन सैंटर टेबल का होना यह जता देता है कि अमन कितना सफाईपसंद है.

अमन के घर की एक और खासीयत है- रसोई. साइज में छोटी है, पर हर शैल्फ में जरूरत का पूरा सामान दिखता है.

एक बार अमन के एक दोस्त ने उस से सवाल किया था कि किचन में इतना सामान भरने की जरूरत क्या है? इस पर अमन ने उसी से सवाल कर दिया, ‘क्यों नहीं? अरे, तुम जैसे लोगों को लगता है कि कोई अकेला रह रहा है, तो वह क्या ही रोजरोज नहाता होगा. उस के बैडरूम का हाल तो ऐसा होगा जैसे तीसरा वर्ल्ड वार यहीं हुआ था. मतलब, हम जैसों को तो रहने का सलीका ही नहीं आता होगा, फिर किचन में क्या ही सामान भरेंगे.

‘पर ऐसा नहीं है बंधु. मैं घरवाली नहीं लाया तो इस का मतलब यह नहीं है कि मुझे घर संवारना नहीं आता. फिर दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं जो किन्हीं दूसरी वजह से अकेले हैं. किसी का जीवनसाथी अब इस दुनिया में नहीं है, तो कोई तलाकशुदा है. इस का मतलब यह तो नहीं है कि वे सब बेहूदा ढंग से रहना शुरू कर दें?

‘मैं रहता भले ही अकेला हूं, पर पूरी तरह सामाजिक हूं. मेरे घर में कामवाली आती है. रोज सुबह अखबार वाला न्यूजपेपर फेंक कर जाता है. दूध वाला भी हर तीसरे दिन दूध दे जाता है. मैं अपनी आरडब्ल्यूए का सक्रिय सदस्य हूं और एक जिम की मैंबरशिप भी मेरे पास है. मैं ट्रैवलिंग करता हूं, मूवी देखता हूं और हर वह काम करता हूं, जो मुझे बिजी रखता है.’

अमन की बात का उस के दोस्त के पास कोई जवाब नहीं था. अमन की अच्छी सेहत और अकेलेपन के तनाव से बचे रहने की वजह यह थी कि वह अपनी जिंदगी को भरपूर जी रहा था.

पर जापान जैसे विकसित देश में लोगों पर अकेलापन हावी होता दिख रहा है. इस बात में कोई दोराय नहीं है कि कोरोना महामारी के बाद लोगों में अकेलापन बढ़ा है और जापान में तो ‘हिकिकोमोरी’ या ‘शटइंस’ जैसी जीवनशैली चलन में आ गई है, जो जवानी फूटने से ले कर बुढ़ापे तक बड़े पैमाने पर वहां के समाज पर असर डाल रही है.

इस अवस्था में लोग किराने का सामान खरीदने या महज शौक पूरा करने के लिए घरों से बाहर जाते हैं या फिर गंभीर मामलों में ही घर से बाहर निकलते हैं.

एक सर्वे में यह पाया गया कि 15 से 64 साल के बीच के तकरीबन 2 फीसदी लोगों ने कुछ हद तक समाज से किनारा कर लिया है. इन की तादाद तकरीबन साढ़े 14 लाख है.

इसी सर्वे के मुताबिक, पूछे गए सवालों के जवाब देने वाले लोगों ने कहा कि उन की खुद को समाज से अलग करने की वजह नौकरी छोड़ना थी, इस के ठीक बाद कोविड महामारी आ गई थी, जिसे 15-39 आयुवर्ग के 18 फीसदी और 40-64 आयुवर्ग के 20 फीसदी लोगों ने एकांत में रहने की अहम वजह बताया.

एकांत में रहने की यह आदत लोगों को शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान कर सकती है. उन में दूसरों से अलगाव की भावना पनपने लगती है. वे सामने वाले से बात करने से बचते हैं. उन्हें अपने इमोशन दबाने की आदत पड़ जाती है, जो उन्हें घर के दायरे में ही कैद कर के रख देती है.

भारत जैसे देश में तो किसी को अकेले रहते देख कर उसे अजीब सी निगाहों से तोला जाता है. अगर वह कोई शादीशुदा औरत हो और अपनी नौकरी के चलते परिवार से अलग कहीं दूर किराए के मकान में रह रही हो तो आप मामले की गंभीरता को समझ सकते हैं.

हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले की रहने वाली टीचर प्रियंवदा शर्मा को कुछ साल तक अकेले पोंटा साहिब इलाके में रहना पड़ा था. बेशक उन के सामने कई तरह की मुश्किलें थीं, पर उन्होंने अपने अकेलेपन को भरपूर एंजौय किया.

प्रियंवदा शर्मा ने बताया, “बतौर शिक्षिका मेरी नियुक्ति जिला सिरमौर के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, जामनीवाला में हुई. परिवार से दूर अकेले रहने का यह मेरा पहला और अनोखा अनुभव था. पढ़नेपढ़ाने में ही नहीं, बल्कि अपने कमरे में अपनी बादशाहत के साथ अकेले रहना चुनौतीपूर्ण भी था.

“मेरे लिए एक विकल्प बाहर खाना खाने का था, लेकिन स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए यह उचित नहीं लगा, इसलिए अपने लिए खाना बनाना, बरतन धोना, लौंड्री में कपड़े न दे कर खुद धोना मेरा बैस्ट टाइमपास रहा. शारीरिक व्यायाम के साथ आत्मनिर्भर बनने की ओर उठाए गए कदम बेहतर जान पड़े.

“इस के बाद मेरे लिए अकेले रहना आनंदमय अनुभव लगा. साथियों से बातचीत की तो उन का मिलने आना. यह व्यस्तता को बढ़ाने वाला तो था, मगर इस से मिली प्रसन्नता से मन हमेशा प्रफुल्लित रहता था. अकेले रहने के इस अनुभव ने इतना आत्मनिर्भर बना दिया कि मैं ने वहीं स्कूटी चलाना भी सीखा और अपनी नई एक्टिवा खरीद कर घूमने का खूब आनंद लिया.”

याद रखिए, अकेलापन अगर आप को आनंदित करने लगे तो वह आप की आत्मनिर्भरता की पहली सीढ़ी बन सकता है, जो आप के जीवन को 360 डिगरी बदल देता है, इसलिए अकेले रहिए, मस्त रहिए.

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