सितंबर 2001 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका की यात्रा सैलानियों और छात्रों के लिए एक बुरा स्वप्न सी हो गई है. सुरक्षा जांच के नाम पर होने वाली जटिल व सघन प्रक्रिया किस तरह से अमेरिका को विदेशी यात्रियों से दूर कर रही है, बता रहे हैं महेंद्र राजा जैन.
11सितंबर, 2001 को लोग शायद कभी नहीं भूल पाएंगे. इस दिन आतंकवादियों ने भले ही न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर आक्रमण कर उसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया हो, उस के परिणाम आज 12 वर्ष बाद भी पूरी दुनिया में, विशेषकर हर देश के हवाई अड्डों पर देखे जा सकते हैं. आजकल हवाई जहाज से यात्रा करने वालों की हवाई अड्डों पर जिस प्रकार सघन जांचपड़ताल की जाती है, उड़ान के लिए निर्धारित समय से 2 या 3 घंटे पूर्व तक एअरपोर्ट पहुंचना पड़ता है, सामान चैक कराने के बाद हवाई जहाज पर चढ़ने के पूर्व जिस प्रकार तलाशी ली जाती है और पासपोर्ट पर आप का फोटो होने के बाद भी जिस तरह आप के चेहरे को किसी आत्मघाती आतंकवादी के चेहरे से मिलाने की कोशिश की जाती है, इस की सामान्य जन कल्पना भी नहीं कर सकते. भुक्तभोगी ही इसे जान सकते हैं. ये सब देख कर इच्छा हो उठती है कि भविष्य में फिर कभी हवाई जहाज से यात्रा नहीं की जाए. पर नहीं, इस के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं है.
इसे भी क्या संयोग ही कहा जाना चाहिए कि ब्राजील की यात्रा से लौटे अभी कुछ ही दिन हुए थे कि बेटे ने कहा, अमेरिका चलना है. यद्यपि 3 वर्ष पूर्व मैं अमेरिका जा चुका था पर उस बार लास एंजिल्स, हौलीवुड, लास वेगास की तरफ गया था. इस बार न्यूयार्क, वाश्ंिगटन, फ्लोरिडा, आरलेंडो जाना था.
न्यूयार्क में जेएफके एअरपोर्ट पर हवाई जहाज उतरे डेढ़ घंटे से ऊपर हो चुका था और अभी तक हम इमिग्रेशन काउंटर से आगे नहीं बढ़ पाए थे. लंदन में भी हवाई जहाज पर चढ़ने के पूर्व अच्छी तरह तलाशी ली जा चुकी थी, चैकिंग हो चुकी थी. गंतव्य पर पहुंचने के बाद फिर वैसी ही नहीं बल्कि उस से भी ज्यादा गहन चैकिंग का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था. बोर्डिंग यानी प्लेन पर चढ़ते समय चैकिंग के कारण हुई देरी की बात तो समझ में आती थी पर हवाई जहाज से उतरने के बाद पासपोर्ट आदि कागजात ठीक होने के बावजूद एअरपोर्ट से बाहर निकलने में इतनी देर होने का कोई औचित्य समझ में नहीं आ रहा था. हम लोग ही नहीं, सभी यात्री ऐसा ही सोच रहे थे.
इस समय जान पड़ता है कि अमेरिका ने सारी दुनिया में ‘फ्रीडम’ यानी स्वतंत्रता निर्यात करने का ठेका लिया हुआ है. शायद इसी कारण उसे पहले अफगानिस्तान, फिर इराक में वह सब करना पड़ा जिस के विषय में पहले कभी किसी ने कुछ सोचा क्या, कल्पना भी नहीं की होगी. पर आज स्वयं अमेरिका में वहां के लोग कितने स्वतंत्र हैं, यह वहां पहुंच कर ही पता चलता है.
आज पूरा अमेरिका ‘पैट्रिऔट’ ऐक्ट की गिरफ्त में है. वैसे तो अंगरेजी में पैट्रिऔट का अर्थ होता है देशभक्त, पर यहां इस का अर्थ होता है आतंकवाद अंतररोधन करने या रोकने के लिए उपयुक्त साधनों को सुलभ करना. कहने का अर्थ यही है कि आज अमेरिका में जो कुछ भी हो रहा है या किया जा रहा है, वह आतंकवाद को रोकने, उस पर अंकुश लगाने के लिए ही किया जा रहा है. पर मैं तो इसे आतंकवाद के नाम पर परेशान करना ही कहना चाहूंगा. यह अमेरिका में जितना अधिक उच्च शिक्षा के क्षेत्र में देखा जा सकता है वैसा शायद किसी अन्य क्षेत्र में नहीं.
यदि हवाई जहाज से यात्रा करने वाले इस बात के शुक्रगुजार हैं कि अभी तक कोई भी यात्री नहीं पकड़ा गया है जिस के पास हथियार हों या जो आतंकवादी हो तो अमेरिका के विश्वविद्यालयों के अधिकारियों के लिए यह बुरी खबर है. आमतौर पर वे इसे अपने लिए अभिशाप मानते हैं कि 11 सितंबर, 2001 की घटना के लिए जिम्मेदार सऊदी आतंकवादी अमेरिका का ‘स्टूडैंट वीजा’ ले कर आए थे. शायद यही वजह है कि आज पैट्रिऔट ऐक्ट का शिकंजा जिस मजबूती से अमेरिकी विश्वविद्यालयों पर है वैसा अन्यत्र नहीं. सुरक्षा की आड़ में आज कैंपस की पुलिस एफबीआई के प्रति जिम्मेदार कर दी गई है यानी एफबीआई से संपर्क बनाए रख कर ही कैंपस की पुलिस कुछ कर सकती है. यही स्थिति अमेरिकी कालेजों के पुस्तकालयाध्यक्षों की है. अली, मुहम्मद, रजा या फारूख किन विषयों की पुस्तकें पढ़ते हैं, यह सूचना एफबीआई को पुस्तकालयों से ही तो मिलेगी.
आज विश्वविद्यालयों के लिए सरकारी आदेश के तहत यह आवश्यक कर दिया गया है कि मुसलिम और अरब विद्यार्थियों (विशेषकर उन देशों से आए विद्यार्थी जिन के अलकायदा से अच्छे संबंध हैं या जो जाहिर तौर पर इस संगठन को सहायता देते हैं) के संबंध में इमिग्रेशन विभाग को विश्वस्त सूचनाएं दें.
फरवरी 2003 में अमेरिका की आईएनएस (इमिग्रेशन ऐंड नैचुरलाइजेशन सर्विस) ने कुछ खास अरब व मुसलिम देशों के 44 हजार से अधिक लोगों के फिंगर प्रिंट लिए थे. इन में छात्रों की संख्या ही अधिक थी. कुछ ऐसे लोगों से मिलने पर पता चला कि उन्होंने अपने साथ इस प्रकार का व्यवहार किए जाने पर खुद को बहुत अपमानित महसूस किया.
मुसलिम और अरब देशों के छात्रों पर अब शिकंजा और भी कसता जा रहा है. सितंबर 2003 से सभी कालेजों के लिए आवश्यक कर दिया गया कि सेवी यानी स्टूडैंट ऐंड ऐक्सचेंज विजिटर इन्फौरमेशन के प्रावधानों के अंतर्गत वे अपने यहां पढ़ने वाले सभी विदेशी छात्रों के संबंध में पूरी सूचना सरकारी कार्यालयों में दर्ज कराएं. कहा तो यही गया कि इस का उद्देश्य अमेरिका में विदेशी विद्यार्थियों की सूची तैयार करना है, लेकिन न्यूयार्क विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने इस आदेश पर इस आधार पर आपत्ति की है कि न्यूयार्क शुरू से ही अमेरिका में विदेशी छात्रों के लिए खुला द्वार रहा है.
इसलिए इस से बुरी बात और क्या हो सकती है. अब तो स्थिति यह है कि छात्रों को अपने वीजा के नवीनीकरण में भी कठिनाई हो रही है. पर्याप्त कागजात न होने का कारण बता कर भी अब बहुत से छात्रों को देश छोड़ने का आदेश दे दिया गया है. जो लोग अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए बाहर से यानी अपने देश से आवेदन करते हैं उन की स्थिति तो और भी बदतर है. ‘सेवी’ में शामिल होने के लिए आवेदनकर्ताओं को पहले अपने देश में अमेरिकी अधिकारियों (दूतावास के कर्मचारियों) के समक्ष साक्षात्कार देना होता है. पर उस में भी तरहतरह की बाधाएं हैं. उन सभी बाधाओं को पार करने में करीब 1 वर्ष का समय लग जाता है. यह नियम केवल मुसलिम और अरब आतंकवादियों के संदेह वाले देशों पर ही नहीं वरन सभी देशों के लिए है.
कुछ समय पूर्व न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट स्कूल औफ आर्ट्स ऐंड साइंस की डीन कैथरीन स्ंिटप्सन का एक लेख छपा था, ‘विदेशी छात्र आवेदन नहीं करें.’ इस लेख में उन्होंने लिखा था कि हमारे कुछ बहुत ही प्रतिभाशाली आवेदनकर्ताओं का आवेदन बिना कोई कारण बताए 5 मिनट से भी कम समय के साक्षात्कार के बाद अस्वीकृत कर दिया गया है. यदि छात्रों की शैक्षणिक योग्यता पर ध्यान न दे कर उन्हें इसी प्रकार अस्वीकृत कर दिया जाता रहा तो ‘सेवी’ की सेवा पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है.
अपने कार्यालय से बाहर कैथरीन स्ंिटप्सन को वर्ल्ड ट्रेड सैंटर की दोनों मीनारों की खाली जगह अच्छी तरह दिखाई देती है, पर सेवी में रहते हुए वे अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं. खासतौर से एक शिक्षाविद होने के नाते वे अपने को और भी गरीब महसूस करती हैं. स्ंिटप्सन के अनुसार, अमेरिका के एक-तिहाई नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिका में पैदा नहीं हुए थे. इंजीनियरिंग जैसे विषयों के 50 प्रतिशत से अधिक ग्रेजुएट ‘अंतर्राष्ट्रीय’ रहे हैं. आज यह देख कर दुख होता है कि अपनी जिन विशेषताओं के कारण अब तक यह देश ‘बड़ा’ कहलाया जाता रहा है, आज उन्हीं का वहां हनन हो रहा है. ऐसी स्थिति में क्या यह उचित नहीं होगा कि ‘स्टैच्यू औफ लिबर्टी’ का नाम बदल कर ‘स्टैच्यू औफ सिक्योरिटी’ कर दिया जाए?