अभीअभी मंथन का फोन आया था. उस के फोन ने करुणा के मन के पट खोल दिए, जिन से आए झोंके के साथ करुणा अतीत में उड़ चली.
वह दिन आज भी उस के मानस पटल पर अंकित है, जब मंथन और 2 बच्चों, अंकित और संचित सहित सुखद संसार था उस का. तब उसे क्या पता था कि सुख के जिन सतरंगी रंगों में वह सराबोर है, वे इतने कच्चे हैं कि काली घटा की एक झड़ी ही उन्हें धो देगी. पर, सच सामने आ ही गया.
एक दिन मंथन सारे बंधन तोड़ कर महिमा के मोहपाश में बंध गया. जिस घने वृक्ष की छाया में वह अपने नन्हेमुन्ने 2 बच्चों के साथ निश्चिंत और सुरक्षित थी, जब वह वृक्ष ही उखड़ गया तो खुले आकाश के नीचे उसे कड़ी धूप और वर्षा का सामना तो करना ही था.
कुछ दिन तो इस आघात के प्रहार से सुधबुध खोए हाथ पर हाथ धरे बैठी करुणा महिमा को कोसती रही, जिस ने उस का सर्वस्व छीन लिया था. फिर जीवनयापन का प्रश्न सामने आया. मम्मीपापा थे नहीं और भैया सुदूर आस्ट्रेलिया में बस गए थे. मात्र स्नातक, अनुभवहीन को नौकरी मिलना आसान न था. ऐसे में उस की बचपन की सहेली रुचि उस का संबल बनी. उसी की प्रेरणा और सहयोग से अपनी एकमात्र पूंजी आभूषण बेच कर उस ने एक बुटीक खोला.
धीरेधीरे उस के कौशल और परिश्रम से बुटीक सफलतापूर्वक चलने लगा, जिस से उस की माली हालत तो मजबूत हो गई, पर प्यार और विश्वास की छत के अभाव में घर अधूरा ही रहा.
बच्चे जब भी पापा के लिए मचलते, करुणा महिमा को शापित करती जिस ने इन निश्छल बच्चों से उन के पापा की छत्रछाया छीन ली थी.
उस का दिन बच्चों के पालनपोषण और बुटीक के कार्यों में कब बीत जाता, उसे पता ही न चलता, पर रात्रि के अंधकार में जब वह शैय्या पर लेटती तो अनायास ही यह कल्पना कि मंथन की बांहों में महिमा होगी, उसे विचलित कर देती और वह अपमान और घृणा से झुलसती हुई तपती शैय्या पर करवटों में ही रात काट देती. उसे मंथन का प्यार, मनुहार और प्रणय याद आता. उसे विश्वास ही न होता कि जो व्यक्ति उस पर इतना आसक्त था वह कैसे इतनी दूर चला गया.
वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचती कि सुदर्शन और उच्च पदासीन मंथन को महिमा ने अपने तिरियाचरित्तर से फंसा लिया होगा, पर उस की आस का दीप अभी बुझा न था. उस में एक लौ अभी भी प्रज्वलित थी, जो मंथन के लौटने का विश्वास दिलाती थी. इसी आशा में वह आएदिन उपवास करती, मन्नतें मानती. उस की तो बस, एक ही आकांक्षा थी, महिमा को पराजित कर मंथन को वापस पाना.
करुणा को स्वयं के दुख और संघर्ष तो प्रताड़ित करते ही थे, पर उन से भी अधिक कष्ट उसे तब होता, जब लोग अपनी उत्सुकता शांत करने हेतु तरहतरह के विचित्र, व्यक्तिगत प्रश्न पूछते और सहानुभूति के आवरण में उस के घावों पर नमक छिडक़ते.
करुणा का स्वाभिमान इन बातों से लहूलुहान हो जाता था, पर किसी को चुप कराना उस के वश में न था. अत: वह खून का घूंट पी कर रह जाती थी और उस के मन का दबा आक्रोश महिमा के प्रति उस की घृणा को और भी बढ़ा देता था.
उस ने एक बार महिमा को समारोह में देखा था. मंथन और महिमा एकदूसरे का हाथ थामे घूम रहे थे. लज्जित तो मंथन और महिमा को होना चाहिए था, जो अवैध संबंधों का पोषण कर के समाज के नियमों का उल्लंघन कर रहे थे, पर लोगों की उत्सुकता भरी नजरें और महिमा की गर्वमिश्रित मुसकान को सहना करुणा के वश में न था. अत: वह बीच में ही घर लौट आई, पर उस दिन महिमा की विजय दृष्टि का जो दंश उस के दिल में चुभा, वह निरंतर टीसता रहा.
कालचक्र निर्बाध गति से घूमता रहा. करुणा के तप और परिश्रम से अंकित और संचित क्रमश: कंप्यूटर कोर्स और एमबीए करने पूना और अहमदाबाद चले गए. अब करुणा शहर की प्रतिष्ठित ड्रैस डिजाइनर थी, पर अति व्यस्त दिनचर्या में भी उस टीस से वह उबर न पाई थी.
एक दिन करुणा सूट की डिजाइन बनाने में लीन थी, तभी फोन घनघना उठा. किसी ग्राहक का फोन होगा, सोच कर उस ने रिसीवर उठाया. उधर से आते स्वर ने उस के दिल की धड़कनें बढ़ा दीं. आज वर्षों बाद उसे मंथन ने फोन किया था. उस की आवाज पहचानने में करुणा को एक क्षण भी न लगा.
आज मंथन की आवाज में विशेष प्रेम और आत्मीयता थी. उस नेे कहा, ‘‘करुणा, मैं जानता हूं कि क्षमायोग्य नहीं हूं, पर यदि तुम मुझे क्षमा कर दो तो मैं घर लौटना चाहता हूं.’’
करुणा कुछ क्षण तो विमूढ़ सी रह गई. उस के कंठ से शब्द ही न फूटे, फिर चौंक कर बोली, ‘‘इस घर के द्वार तो तुम्हारे लिए सदा ही खुले थे, तुम ही न आए.’’
यह सुन कर मंथन उत्साहित हो गया. बोला, ‘‘करुणा, तुम महान हो. मैं तो डर रहा था कि तुम मुझे दुत्कार दोगी. पर, सच मानो तो आज भी मैं तुम्हें दिल से प्यार करता हूं और तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’’
यही वे शब्द थे, जिन्हें सुनने को करुणा वर्षों से तरस रही थी. उस के मस्तिष्क में महिमा की गर्वमिश्रित मुसकान घूम गई. महिमा पर विजय के एहसास ने मंथन के प्रति सारे गिलेशिकवे मिटा दिए. उस ने निश्चित किया कि आज वह स्वयं जा कर मंथन को लाएगी, जिस से अपनी आंखों से महिमा को पराजित देख सके.
शाम तक करुणा की मित्रमंडली उस की विजय उद्घोषणा सुन चुकी थी. वह सब को बता देना चाहती थी कि मंथन प्यार तो उसी को करता है.
जब घड़ी ने 5 बजाए, तो वह चौंक कर उठी और एक बार दर्पण में स्वयं का निरीक्षण किया और अपने यत्न से संवारे रूप पर स्वयं ही मोहित हो कर वर्षों से प्रतीक्षित विजय अभियान पर चल पड़ी.
करुणा अपनी गाड़ी स्वयं चला कर मंथन के बताए पते पर पहुंची. मंथन बाहर ही खड़ा बेचैनी से उस की प्रतीक्षा कर रहा था. पर, करुणा को तो महिमा का पराजित रूप देखना था. लिहाजा, वह स्वयं ही अंदर चली गई.
हताश महिमा निढाल सी बैठी थी. उस के सूजे लाल नेत्र उस की व्यथा का वर्णन कर रहे थे. करुणा को देखते ही महिमा रो पड़ी, ‘‘करुणाजी, मैं आप की अपराधी हूं. पर, सच मानिए, जब मैं ने मंथन से संबंध बनाए तब मुझे पता भी न था कि यह विवाहित हैं और जब पता चला तो बहुत देर हो चुकी थी. मुझ पर दया करिए और मंथन को मत ले जाइए.’’
‘‘क्यों…?’’ इस पर करुणा ने व्यंग्य से कहा, ‘‘तुम ने तो मेरा घर उजाड़ दिया और आज जब मेरे पति घर लौटना चाहते हैं, तो तुम मुझ से दया की आस कर रही हो.’’
‘‘यह सच है कि मैं मंथन के प्यार में अंधी हो गई थी, पर जब मुझे पता चला कि वह विवाहित हैं, तो मैं ने उन से दूर जाने का निर्णय ले लिया था. तब मंथन स्वयं ही हठ कर के मेरे पास आए थे और तब मैं निर्बल पड़ गई. मेरे स्वार्थ का ही मुझे आज दंड मिल रहा है. अब आप यदि मंथन को ले गई, तो मैं सड़क पर आ जाऊंगी…’’ महिमा सिर झुका कर बोली और अंदर जा कर 5-6 साल की अपनी बच्ची को ले आई, जो बोल भी नहीं सकती थी.
तब करुणा को पता चला कि मंथन और महिमा की मूकबधिर बेटी है और कंपनी के किसी आर्थिक घोटाले में मंथन की नौकरी भी चली गई है.
महिमा की विजय पताका फहरा कर गिर गई. अब उसे समझ में आया कि अचानक मंथन को उस के प्रति प्यार क्यों उमड़ा. अभी कुछ देर पहले जिस मंथन पर उसे प्यार आ रहा था, उस के चेहरे का आवरण गिर गया और स्वार्थ व नीचता का जो घिनौना रूप उस के सामने जो खुल कर आया, उसे देख कर करुणा ने मुंह फेर लिया.
जिस महिमा को नीचा दिखाने का उस ने वर्षों से सपना संजोया था, अब वह उसे स्वयं को प्रतिरूप लगी और उस बच्ची की याचना करती आंखों में उसे उस दिन के सहमेसिकुड़े अंकित और संचित दिखे. आज उसे अनुभव हुआ कि वह और महिमा तो एक ही नाव पर सवार हैं, जिन्हें डुबोने वाला मंथन है. वह व्यर्थ ही वर्षों से महिमा से घृणा करती रही. सच तो यह है कि मंथन न उसे प्यार करता है और न महिमा को, वह तो बस, स्वयं को प्यार करता है और निजी सुविधानुसार प्यार का पात्र चुन लेता है.
करुणा के हृदय में जागृत प्रेमस्रोत हिमखंड बन गया. वह दृढ़ता से खड़ी हुई और बोली, ‘‘महिमा, अगर तुम्हारी आंखें खुल गई हों तो चलो, मैं तुम्हें अपने बुटीक में काम दे कर जीवनयापन योग्य बना दूंगी.’’
फिर वह मंथन की ओर देखती हुई बोली, ‘‘आज के बाद हमारी नाव डुबोने वाला डूबेगा, हम नहीं.’’
महिमा वास्तविकता के धरातल पर आ चुकी थी. अत: अपने भविष्य की सुरक्षा हेतु वह तुरंत करुणा के साथ चल दी. मंथन अविश्वास से लुटा हुआ उन्हें जाते हुए देखता रहा.
……….
फेसबुक पोस्ट : करुणा का हंसताखेलता परिवार महिमा ने तहसनहस कर दिया था. उस ने करुणा का पति मंथन जो उस से छीन लिया था. दुख की मारी करुणा ने किसी तरह खुद को संभाला और अपनी जिंदगी को पटरी पर लाई. फिर अचानक एक दिन मंथन का फोन आया और करुणा गदगद हो गई. वह लौट पर मंथन की ओर. पर उस की मुराद पूरी हुई?