केंद्र सरकार का 2023-24 का बजट एक कंपनी की बैलेंस शीट की तरह है जिस में न कोई संदेश है, न दिशा. उस में केवल लफ्फाजी, बड़ेबड़े वादे, महान कार्य कर डालने की डींगें हैं. संसद में देश का बजट पेश करना एक रस्मी सालाना त्योहार है जो एक तरह से लक्ष्मीपूजन सा है जिस में लक्ष्मी आने की जगह वह पटाखों, निरर्थक उपहारों, मिठाइयों, खाने की पार्टियों, आनेजाने, बेमतलब के सामान में व्यर्थ कर दी जाती है.
जैसे लक्ष्मीपूजन पर उम्मीद की जाती है कि पूजापाठ से कुछ मिलेगा, वैसे ही बजट से राहत मिलने की उम्मीद की जाती है पर सालदरसाल पता चल रहा है कि कुल मिला कर सरकार का टैक्स बढ़ रहा है जबकि जनता की जेब कट रही है.
काम अगर चल रहा है तो इसलिए कि जनता अपने सुख को बचाए रखने के लिए ज्यादा काम करती है. अर्थशास्त्र की थ्योरी के हिसाब से टैक्स न केवल सरकार का खर्च चलाते हैं, वे व्यापार को रैगुलेट भी करते हैं, साथ ही, प्रोड्क्शन, वितरण, इस्तेमाल करने की सही दिशा भी देते हैं. आमतौर पर सरकारें टैक्सों को उन चीजों पर ज्यादा लगाती हैं जो विलासिता की हैं, रोजमर्रा की चीजों पर कम.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नरेंद्र मोदी सरकार को बजट में कुछ नया नहीं सुझाया. इस में भगवा रंग सामने से तो नहीं दिखता पर जो पैसा बांटा गया है उस में भेदभाव दिखता है. स्टौक बाजार की मंदी ने दिखा दिया है कि निर्मला के बजट ने गौतम अडानी की करतूतों से सहमी शेयर मार्केट को कोई राहत नहीं दी. बजट में कहीं ऐसा कुछ नहीं दिखा जिस से लगे कि बजट बनाने वालों ने कभी अडानी समूह को सही दृष्टि से देखा था. जो तथ्य हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट में आए हैं, वे सब पब्लिक डोमैन में पहले से थे और 8 सालों से नरेंद्र मोदी सरकार उन पर आंखें मूंदे थी.
यह लैंडस्लाइड मैनमेड है और इस में अकेले मोदी बजट जिम्मेदार है जो आम नागरिकों को तो बकरे की तरह आयकरों की कसाई के छूरे के नीचे खड़े कर देते हैं पर अडानी, अंबानी के लिए जनता के खून से लाल हुए कपड़े को बिछा कर उन्हें वहां पूरा डांस करने की छूट देते हैं.केंद्र सरकार ने सामान्य चीजों की बिक्री या उत्पादन करने का काम पहले से ही आउटसोर्स कर के जीएसटी काउंसिल को दे रखा है ताकि जो थोड़ाबहुत सवालजवाब का नाटक संसद में हो जाता था, अब वह भी न हो.
इस बार के करों में ऐसी कोई छूट नहीं जो राहत दे, ऐसा कोई पैसा बांटा नहीं गया है जो बेरोजगारों को आस दे. भारत को 2 या 3 नंबर की अर्थव्यवस्था घोषित तो किया जा रहा है पर प्रतिव्यक्ति डौलर की आय में भारत की 2,100 डौलर के आसपास है जबकि लक्जेमबर्ग की 1,35,693 डौलर, सिंगापुर की 72,794 डौलर, चीन की 13,000 डौलर और नेपाल की 4,000 डौलर है. फिर भी निर्मला जी ने दस बार अपना गुणगान किया है कि 140 करोड़ की आबादी का बड़ा देश होने के कारण हम कितने बड़े हैं. हकीकत यह है कि हम बहुत ज्यादा गरीब हैं. मुंबई की धारावी स्लम की कुल कीमत कितनी होगी जो 512 एकड़ यानी 2 करोड़ 30 लाख वर्गफुट जगह में फैला है और जहां प्रतिवर्ग फुट कीमत 15,000 से 20,000 रुपए है. वहां 100-150 वर्गफुट का झोंपड़ 15 से 30 लाख रुपए का है. भारत धारावी है, लक्जेमबर्ग अडानी या अंबानी.
निर्मला जी को अपना ढोल संभल कर पीटना चाहिए. गनीमत यही है कि भाजपाई तो अपनी पार्टी के खिलाफ कुछ बोलते नहीं हैं और विपक्षी काफी कम होने के साथ ईडी से इतने भयभीत हैं कि वे चुप ही रहते हैं और गंद बजट पेपर्स के कारपेट के पीछे छिपी रह जाती है.
यह बजट आम बजटों से न ज्यादा न कम निराशाजनक है. यह किसी जनप्रिय नेता का नहीं है, भावनाओं के रथ पर सवार युद्ध जीते राजा का है और सब को ‘जो जीता वह सिकंदर’ मान कर, सिर झुका कर, हजूर-माईबाप कह कर इसे सहज स्वीकारना होगा. भक्त ‘बजट की जय हो’ का नारा लगाएंगे ही.