सुप्रीम कोर्ट ने नोटबंदी के फैसले पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी है पर यह न भूलें कि सुप्रीम कोर्ट केवल यह देख रही थी कि इस की प्रक्रिया में कोई गैरकानूनी बात तो नहीं हुई. यह निर्णय अत्प्रत्याशित नहीं है क्योंकि पुराने नोटों को फिर से लीगल टैंडर घोषित करना न तो कानूनी वैध होता न उस से कोई लाभ होता. इस निर्णय से अफसोस बहुत है पर सब से बड़ा दुख यह है कि मौजूदा भगवा सरकार की तरह सुप्रीम कोर्ट भी कहती है कि ऐसे निर्णय लेने पर जनता को जो कठिनाइयां हुईं वे जनहित में ही थीं.

इस तरह का फैसला आगे आने वाली हर सरकार को इस बात के लिए प्रोत्साहित करेगा कि जब चाहो जो मरजी कदम उठा लो, पांचसात साल बाद जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आएगा तब तक उस कदम से आई मानवीय तकलीफों को कोई याद नहीं रखेगा.

नोटबंदी ने जनता का पैसा रातोंरात छीन लिया और सरकार के हवाले कर दिया. इसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कैसे लिया, यह अभी स्पष्ट नहीं है पर पिछले 7 सालों में जनता ने इस जबरन वसूली पर नाकभौं भी नहीं सिकोड़ी है क्योंकि यहां की जनता तो मानती है कि आदमी खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है. हिंदू धर्म ने इस तरह मानसिक सोच बना कर रखी है कि लोग सरकार के हर कदम, जिस में खुली लूट होती है, पर परोक्ष रूप से अपनी मोहर देरसवेर लगा ही देते हैं.

नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री ऐसे नहीं हैं जिन्होंने जनता का पैसा या आजादी छीनी. इंदिरा गांधी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, सैकड़ों निजी क्षेत्रों को सरकारी हाथों में लिया था, तब भी ऐसा ही था. उस से पहले जमींदारी उन्मूलन कानूनों में भी ऐसा ही हुआ. हर ऐसे फैसले जिस में सरकार ने अपनी पुलिस शक्ति के बल पर कुछ छीना उसे या तो अपने पास रखा या अपनों में बांटा, जनता के एक पक्ष ने सिर्फ तालियां ही बजाईं.

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