देश के कई कालेजों में कैपिटेशन फी लेने का चक्कर आज भी चल रहा है. जबतक केंद्रीय परीक्षाओं के आधार पर ही ऐडमीशन देने के नियम सुप्रीम कोर्ट ने लागू नहीं किए थे तब तक तो बहुत से कालेज लाखों की कैपिटेशन फी ले कर ही ऐडमीशन देते थे. अपने लाड़लों को किसी भी तरह डाक्टर, इंजीनियर या एमबीए की डिग्री दिलाने के चक्कर में मांबाप लाखों की कैपिटेशन फी दे भी देते थे.

ये लाड़ले वे होते हैं जो मैरिट लिस्ट में ऊंचे स्थान पर नहीं आ पाए, लेकिन चूंक खासे खातेपीते घरों के थे, सो उन के मांबाप इस खर्च को भविष्य के लिए पूंजी निवेश मान कर देते रहे हैं.

मई 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई थी कि राज्य सरकारों द्वारा कैपिटेशन फी लेने को प्रतिबंधित करने के बाद भी शिक्षा के पूरी तरह व्यवसायीकरण होने की वजह से कैपिटेशन फी अलगअलग नामों से ली जाने लगी है.

मद्रास उच्च न्यायालय ने अब आयकर के मामले में यह कहा है कि यह कैपिटेशन फी न दान है., न डिपौजिट, बल्कि पूरी तरह आय है और संस्थान को इस पर आयकर देना होगा. हाईकोर्ट ने इस मामले में यह आदेश नहीं दिया कि कैपिटेशन फी लौटा दी जानी चाहिए. आयकर विभाग भी लौटाने के मामले में आंख बंद रखे हुए है क्योंकि उसे तो आयकर की चिंता है, पैसे के कानूनी या गैरकानूनी होने की
नहीं.

कैपिटेशन फी दे कर प्रवेश लेना मांबाप के लिए एक आवश्यकता है क्योंकि
सरकारों को मंदिरों को बनवाने की जल्दबाजी है, लोगों का जीवन सुधारने के लिए
मैडिकल या इंजीनियरिंग कालेज खुलवाने की नहीं. शिक्षा संस्थानों ने इस अभाव का पूरा फायदा उठाया है. कुछ संस्थानों ने सहयोगी चैरिटी संस्थाएं बना लीं जहां कैपिटेशन फी दान के रूप में ली जाती और बदले में ऐडमिशन उस ‘धर्मार्थ’ संस्था के प्रबंधकों द्वारा चलाए जाने वाले कालेज में मिल जाता है.

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