इतिहास इस बात का गवाह है कि जमीन के टुकड़े कभी भी किसी एक धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग से नहीं बंधे रहे हैं. भारत यानी हिंदुस्तान हिंदुओं का ही है और पाकिस्तान सिर्फ मुसलमानों का व अमेरिका सिर्फ गोरे प्रोटैस्टैंट ईसाइयों का, यह मानना एक भारी गलती है. एक भूभाग में अगर एक सोच, धर्म, वाद के लोग ज्यादा भी रहते हों तो भी वह भूभाग उन्हीं से पट जाए और उस में दूसरों की जगह न रहे, यह गलत होगा.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को गोरे ईसाइयों का स्वर्ग बनाने की चाहत में लैटिनों को भी नहीं बख्श रहे जो ईसाई भी हैं और उन में गोरों का खून भी है. मुसलिम देशों और मुसलमानों के खिलाफ मोरचा खोल कर वे गोरे ईसाई कट्टरों को खुश कर वे चुनाव जीत गए हैं पर इस से अमेरिका को ही नहीं, दूसरे देशों को भी इस की कीमत चुकानी पड़ेगी क्योंकि फिलहाल अमेरिका के प्रचार के पांव इस तरह पसरे पड़े हैं कि वे जो करेंगे, दूसरे देशों में दोहराया जाएगा.

भारत में भी अब साफ हो गया है कि धर्म हमारी राजनीति की धुरी में रहेगा और बहुमत के धर्म के बारे में कुछ कहना देशद्रोह तक माना जा सकता है. इस का अर्थ है चाहे अमेरिका हो, अरब देश या भारत, सामाजिक बदलावों पर ब्रेक लग गया है. अमेरिका में स्कूलों में बाइबिल जबरन पढ़ाई जाएगी. अरब देश वहाबी इसलाम के मुरीद होंगे और हम पौराणिककाल को वापस लाएंगे.

200 साल पहले ऐसी ही भयावह स्थिति थी. औरतों के अधिकार बहुत कम थे. पुरुष मनमानी करते थे. दासप्रथा तरहतरह के रूपों में थी. गरीब हो तो न खाना मिलेगा, न इलाज. राज करने वाले चाहे मौज करें पर अधिकांश जनता त्रस्त थी, असहाय थी. राजा या सरकार का हुक्म मानना अनिवार्य था.

ट्रंप भी अमेरिका को ऐसा ही देश बनाने के प्रयत्न में हैं. अरब देशों में नए विचारों को गहरी कब्रों में दफन किया जा चुका है. यूरोप के कई देशों में शरणार्थियों और मुसलिमों के खिलाफ कहानियां गढ़ी जा रही हैं तो अरब देशों में मुसलिमों के अलावा कोई पैर भी नहीं रखना चाहता. धर्म के बहाने वैश्वीकरण की भावना पर जो एकदम प्रहार हुआ है उस के पीछे कट्टर मुसलमानों के आतंकवादी हमले हैं तो अमेरिका और यूरोप, जिस में  रूस शामिल है, में चर्च का फिर से शक्तिशाली बनना. भारत भी इसी रास्ते पर है.

धर्म हर जगह आधुनिक प्रचार साधनों का जम कर इस्तेमाल कर रहा है. उस ने तकनीक को सहारा बना लिया है और घरघर तक पहुंचने के लिए अब उसे दरवाजे खटखटाने वाला मुल्ला, पादरी, संत, महंत नहीं चाहिए बल्कि एयरकंडीशंड कमरे में बैठे सोशल मीडिया में माहिर लोगों की जरूरत है. आम जनता को अब सहीगलत ज्ञान कोई देना चाहे तो उस के पास ये महंगे साधन ही नहीं हैं. इंटरनैटमोबाइल की सुलभता के कारण झूठी कहानियों को तथ्य बना कर जितना मरजी थोप दो, कोई नहीं पूछेगा. इस का नतीजा क्या होगा? सीरिया, इराक, लीबिया की तसवीरें देख लें.

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