3 तलाक के मामले में देश के उच्चतम न्यायालय में बाहर मीडिया व मंचों पर चली बहस से इतना साफ है कि मुसलिम समुदाय न तो महिलाओं को बराबर के अधिकार देने को तैयार है न ही उस की औरतों को अपने अधिकारों की चिंता है. मुसलिम औरतों की तरफ से हिंदू वकील, विचारक, लेखक ही तर्क प्रस्तुत करते नजर आए क्योंकि मुसलिम कानूनों में सुधारों की बात करना भी इसलाम में एक कुफ्र है.

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इसलाम में आदमियों और औरतों को इस कदर बांधे रखा गया है कि आज 21वीं सदी में उन्हें 7वीं सदी के कानूनों का हवाला दे कर हड़काया जा सकता है. जो भी एक बार इस धर्म का अनुयायी हो गया वह एक तरह से वनवे रोड पर जा पहुंचा जहां न तो अलग रास्ता ढूंढ़ा जा सकता है, न लौटा जा सकता है.

यह बात और धर्मों में नहीं है, ऐसा नहीं है. आजकल हिंदू कट्टरवाद भी बुरी तरह पनप रहा है और कुछ देशों में कट्टर ईसाई धर्म के लौटने के संकेत दिख रहे हैं. एक समय तीनोंचारों धर्म इस कदर अनुयायियों को बांधे रखते थे कि मौत से ही छुटकारा मिलता, चाहे वह खुद गले लगाई जाए या धर्र्म के कट्टर लोग दें.

सर्वोच्च न्यायालय में बहस में नए विचारों और अधिकारों की विवेचना कम हुई है. सरकारी पक्ष हिंदू प्रतिछाया लिए हुए रहा पर यही पक्ष अपना रुख बदल लेगा, अगर मामला हिंदू रीतिरिवाजों का होगा. अगर कल कोई यह कहना शुरू कर दे कि गंगा में नहाना, गंगा के साफ पानी को पीना संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ है तो वही सरकारी अटौर्नी जनरल आस्था का राग अलापने लगेंगे. आज वे मुसलिम औरतों के मौलिक अधिकारों को 3 तलाक का विरोधाभासी मान रहे हैं पर दिल से नहीं, राजनीति से.

औरतों को ही नहीं, पुरुषों को भी बराबरी के अधिकार मिलें, यह जरूरी है. पर सामाजिक अधिकारों को देने का उत्तरदायित्व सरकार का नहीं. शादियां वर्ण, गोत्र, कुंडली मिला कर न हों, इस के लिए कानून नहीं बन सकता, सुप्रीम कोर्ट नहीं जा सकते. इसे लोगों को खुद छोड़ना होगा.

3 तलाक पर सुप्रीम कोर्ट चाहे कुछ भी कहे, उस से जमीनी हकीकत पर कुछ असर न होगा. अगर असंवैधानिक भी हुआ तो भी धड़ल्ले से दुरुपयोग होगा.

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