गौमांस बहाना है. असल मकसद आदिवासियों को डराना है ताकि वे खुद को कट्टर हिंदू मानने लगें. कट्टर हिंदूवादियों की यह जिद और कोशिश आजादी के बाद से ही मुहिम की शक्ल में परवान चढ़ने लगी थी. इस बैर की कहानी महज दो लफ्जों की है कि आदिवासी हिंदू हैं या नहीं.
‘‘घटना के दिन मैं अपने घर में सोया हुआ था. रात के कोई 2 बजे होंगे, गांव से मारोमारो की आवाजें आईं. मैं कुछ सोचसम?ा पाता, इस के पहले ही भीड़ मेरे घर में भी घुस आई और मु?ो मारने लगी. पहले कुछ थप्पड़ मारे, फिर घर के बाहर घसीट कर मारने लगे. वे
20-25 लोग थे जो लातघूंसों के अलावा डंडों से भी मार रहे थे. मेरे घर वालों ने मु?ो उन से बचाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं रुके. भीड़ में शामिल लोग चिल्लाचिल्ला कर कह रहे थे कि हम बजरंग दल के आदमी हैं, तुम ने गाय की हत्या की है. जबकि, इस बारे में मु?ो कुछ मालूम ही नहीं था.
‘‘मेरे घर के ही बाहर वे लोग संपत और धनशा को भी ले आए थे जिन की पिटाई मु?ा से पहले की गई थी और मु?ा से ज्यादा भी हुई थी. वे लोग हमें पुलिस के हवाले करने ले जा रहे थे. तभी किसी गांव वाले ने कहा कि अगर थाने ले जाते रास्ते में इन्हें कुछ हो गया तो इस का जिम्मेदार कौन होगा. इस पर उन्हीं लोगों में से किसी ने पुलिस को फोन कर दिया. एकडेढ़ घंटे बाद पुलिस आई और हमें थाने ले जाने लगी.
‘‘वे लोग बारबार गौमांस रखने का इलजाम लगा रहे थे. यह आरोप सरासर ?ाठा है. अगर गौमांस होता तो वे मु?ो दिखाते. मु?ो नहीं पता गौमांस रखने का ?ाठा आरोप किस ने मु?ा पर लगाया. यह बजरंग दल वालों की ही कोई चाल लगती है. धनशा और संपत को इतना मारा गया था कि वे ठीक ढंग से गाड़ी में बैठ भी नहीं पा रहे थे. वे पहले ही अधमरे हो चुके थे. दोनों बादलपुरा पुलिस चौकी पर भी नहीं उतर पा रहे थे. वहां से उन्हें कुरई अस्पताल भेज दिया गया. सुबह कोई 8 बजे पता चला कि पहले धनशा और उस के 10 मिनट बाद संपत ने भी दम तोड़ दिया.’’
पेशे से मजदूर 28 साला बृजेश बट्टी बच गया तो इसे उस का समय भी कहा जा सकता है और यह भी कहा जा सकता है कि राक्षसों सा कहर बरपा रहे बजरंगी इतना थक चुके थे कि बृजेश को ज्यादा मारने का दम उन में नहीं बचा था और अहम बात यह कि दहशत फैलाने का उन का मकसद तो संपत और धनशा की धुनाई से ही पूरा हो गया था. बृजेश तो बेचारा बोनस में पिटा.
ये दोनों आदिवासी रास्ते में ही मर गए थे या पुलिस चौकी में मरे या फिर इलाज के दौरान मरे, इन बातों के अब कोई माने नहीं हैं क्योंकि वे आदिवासी थे जिन की जिंदगी और हैसियत हिंदुओं की नजर में मवेशी सरीखी ही होती है. फिर 2 अदिवासियों की मौतों पर हंगामा क्यों? मर गए तो मर गए. गाय के गोश्त की तस्करी करेंगे या खुद घर में पका कर खाएंगे तो उन के इस पाप की सजा मौत ही धार्मिक किताबों में लिखी है. मामला अदालत जाता तो भी उन्हें थोड़ीबहुत सजा होती जो बजरंगियों और श्रीराम सेना वालों को मंजूर नहीं थी. लिहाजा, उन्होंने 2 मई की रात सिमरिया पहुंच कर अपना इंसाफ कर दिया. इस भगवा अदालत के मुंशी, पेशकार, वकील और जज भी यही थे.
यह है घटना
महाकौशल इलाके के सिवनी जिले के गांव सिमरिया, जहां साजिश के तहत एक बड़ी वारदात को अंजाम दिया गया, में आदिवासियों की तादाद ज्यादा है. बृजेश की रिपोर्ट पर पुलिस ने पहले 3 और फिर 6 लोगों को गिरफ्तार किया. ये सभी सवर्ण हिंदू हैं जिन में से अधिकतर की गिनती पिछड़ी जातियों में होती है. इन फुरसतिए नौजवानों ने हिंदू धर्म की ठेकेदारी लेते गायों की हिफाजत का भी जिम्मा उठा रखा है.
सिमरिया से ले कर दिल्ली तक पिछड़े युवा हिंदू इन दिनों धरनेप्रदर्शनों और दंगों में हाथ धोते धर्म की ही रक्षा कर रहे हैं. सिवनी के बजरंगियों के सपने में शायद विष्णु आ कर बता गया था कि गांव सिमरिया में अमुक आदिवासियों ने गौमाता की हत्या कर उस का मांस निकाला है, इसलिए हे शूरवीरो, धर्म और गौ रक्षको, हथियार उठाओ और जाओ पापियों को दंड दो.
इस हुक्म की तामील आधी रात को किस बर्बर, नृशंस और हैवानियतभरे तरीके से हुई, यह शायद शंकर की कृपा से बच गए. बृजेश की बातों से उजागर होता है कि तीनों को मवेशियों की तरह धुना गया. जादू के जोर से इन्हें पता चल गया था कि दलितों और मुसलमानों के बाद ये जंगली गंवार आदिवासी भी गौमांस खाने लगे हैं और पैसों के लिए उस की तस्करी भी करने लगे हैं.
चूंकि ये भी हिंदू नहीं हैं, इसलिए गाय की अहमियत नहीं सम?ाते कि वह (गाय) वैतरणी पार लगाने वाली होती है. उस के शरीर में 33 करोड़ देवीदेवता रहते हैं और ये पापी उसे काट रहे हैं. अगर आज इन्हें नहीं रोका गया तो हिंदू धर्म खतरे में पड़ जाएगा और एक दिन खत्म भी हो जाएगा.
धनशा और संपत की मौत के बाद बजरंगी छू हो गए लेकिन सिवनी से भोपाल होते दिल्ली तक इतना हल्ला मच चुका था कि अब हत्यारों को खुलेआम घूमने देना जंगलराज या रामराज्य, कुछ भी कह लें, का खुला ऐलान होता जिस के लिए यह वक्त मुनासिब नहीं.
हां, हालत यही रहे और केंद्र व मध्य प्रदेश में भगवा सरकारें रहीं तो जरूर इन देवदूतों और गौरक्षकों को फूलमाला पहना कर स्वागत किया जाएगा और इन की जगहजगह शोभायात्राएं भी निकाली जाएंगी. मुमकिन है इन्हें सरकारी नौकरियों से नवाजा जाने लगे या फिर उद्योगधंधे, दुकान या कारोबार चलाने के लिए इन्हें सरकारी खजाने से पैसा दिया जाने लगे.
खैर, कहने को ही सही, राज संविधान का है और देश थोड़ाथोड़ा लोकतंत्र के मुताबिक चलता है, इसलिए शेर सिंह राठौर, अजय साहू, वेदांत चौहान, दीपक अवधिया, वसंत रघुवंशी, रघुनंदन रघुवंशी, अंशुल चौरसिया, रिंकू पाल और शिवराज रघुवंशी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया जहां उन की खातिर दामादों सरीखी ही हुई होगी.
मौका ताड़ते कांग्रेस ने हल्ला मचाया तो आदिवासी जाम लगाने लगे. इस से भाजपा सरकार की किरकिरी होने लगी और गुस्साए तमाम आदिवासी उस के खिलाफ लामबंद होने लगे तो सरकार ने मृतकों के परिजनों को 8.25-8.25 लाख रुपए की राहत राशि देने का ऐलान कर बजरंगियों के पाप का पश्चात्ताप कर डाला. भाजपा की जांच टीम सिमरिया पहुंची तो आदिवासियों ने उस की हायहाय की, जिस से घबराए भाजपाई उलटे पांव भोपाल लौट आए.
सियासत भी, मजहब भी
देश में ऐसा यानी सिमरिया जैसा हर कभी हर कहीं होता रहता है लेकिन बात आईगई हो जाती है क्योंकि मामला दलित आदिवासियों का होता है जिन की गिनती ही धर्म के लिहाज से जानवरों में होती है. सिमरिया की मौब लिंचिंग भी आईगई हो जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए जिस की जांच का जिम्मा एसआईटी को सौंप दिया गया है. यह एजेंसी वही जांच रिपोर्ट तैयार करती है जिस से भगवा गैंग की नाराजगी का सामना उसे न करना पड़े.
पुलिस कह रही है कि उस ने पीडि़तों के घर से 12 किलो गौमांस बरामद किया है तो बेचारे बृजेश का नपना जरूर तय दिख रहा है, जिस की शादी रीमा नाम की लड़की से डेढ़ महीने पहले ही हुई है. इस आदिवासी दुलहन की हथेलियों से अभी मेहंदी का रंग छूटा नहीं है. दरिंदगी पर उतारू बजरंगियों के सामने वह गिड़गिड़ाई थी कि मेरे पति को छोड़ दो, उस ने कुछ नहीं किया है. इस पर जवाब यह मिला था कि तू बीच में मत पड़, वरना तेरा और बुरा हाल होगा. रीना उन की मंशा सम?ा गई, इसलिए चुप रहने में ही उस ने अपनी भलाई सम?ा.
रहे संपत और धनशा तो उन्हें उन के किए की सजा जिस्म से नापाक रूह को आजाद कर दी जा चुकी है. उन के बीवीबच्चे बिलखबिलख कर इमदाद के बजाय इंसाफ मांग रहे हैं. जब बजरंगी बृजेश को शहीद करने घर से बाहर ले जा रहे थे तब रीना की ?ाड़प उन से हुई थी.
पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ लाख हल्ला मचाते रहें, उस का कोई असर शिवराज सरकार पर नहीं होता. सियासी तौर पर हालफिलहाल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जरूर दिक्कतों से घिर गए हैं जो 17 महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आदिवासियों को तरहतरह से लुभाने में लगे थे.
मध्य प्रदेश में सत्ता उसी दल को मिलती है जिस की तरफ आदिवासी समुदाय ?ाक जाता है. राज्य में डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा आदिवासी वोटर हैं. साल 2018 के विधानसभा चुनाव में इन्होंने कांग्रेस का साथ दिया था, इसलिए वह सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी. आदिवासियों के लिए 230 में से 47 सीटें रिजर्व हैं. इन में से महज 16 पर ही भाजपा जीत पाई थी. बाकी 31 कांग्रेस के खाते में गई थीं. 2013 के चुनाव में आदिवासी वोटरों ने भाजपा पर भरोसा जताते उसे 31 सीटों पर जिताया था जिस से शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बन गए थे.लेकिन हालात ये रहे शिवराज सिंह के राज में दलितआदिवासियों पर जुल्मोसितम, जिन्हें कानून की जबान में अत्याचार और प्रताड़ना कहा जाता है, बेतहाशा बढ़े. खुद सरकारी आंकड़े इस की गवाही देते हैं. पिछले साल दिसंबर में राज्य सरकार ने माना था कि राज्य में अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत 33 हजार से ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे.
उग्र हिंदूवादी तेवरों वाले गृहमंत्री पंडित नरोत्तम मिश्रा ने एक तरह से मंजूर किया था कि मार्च 2020 में कांग्रेस से सत्ता छीनने के बाद इन तबकों पर हुए अत्याचारों में भारी इजाफा हुआ है. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के पेश किए आंकड़ों के मुताबिक साल 2020 में 6,889 मामले इन तबकों पर अत्याचार के दर्ज किए गए थे जबकि 2019 में ऐसे दर्ज मामलों की तादाद 5,300 थी जबकि 2018 में 4,753 मामले दर्ज हुए थे. यानी भाजपा राज में इन में 30 फीसदी का इजाफा हुआ.
शिवराज सिंह चौहान आदिवासी अत्याचारों को ले कर कभी संजीदा नहीं रहे, जबकि इन इलाकों की हकीकत वे बेहतर जानते हैं कि कैसेकैसे आदिवासियों का आर्थिक और सामाजिक शोषण होता है और कौन लोग करते हैं. यह खामोशी शह ही साबित हुई जिस का नतीजा था सिमरिया मौब लिंचिंग, जिस में रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले 2 गरीब आदिवासी बेमौत मारे गए.
उन का गुनाह गौमांस कथित रूप से रखना नहीं था बल्कि उन का असल गुनाह खुद को हिंदू न मानना था. आदिवासी हिंदू नहीं हैं.
गौमांस तो लगता है बहाना था, मकसद आदिवासियों को डराना था कि खुद को हिंदू मानने लगो नहीं तो यों ही मारे जाते रहोगे और परेशान किए जाते रहोगे. कट्टर हिंदूवादियों की यह जिद और कोशिश आजादी के बाद से ही मुहिम की शक्ल में परवान चढ़ने लगी थी. इस बैर की कहानी महज इन दो लफ्जों की है कि आदिवासी हिंदू हैं या नहीं हैं.
जवाब दोटूक और बेहद साफ है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं वे तो चूंकि देश में रहते हैं, इसलिए उन्हें सरकारी कागजों में जबरिया हिंदू बनना पड़ रहा है. संविधान के अनुच्छेद 366 (25) के तहत अनुसूचित जनजाति के लोग हिंदू माने गए थे.
संविधान तो उन्हें हिंदू करार देता है लेकिन हैरत की बात यह है कि हिंदू के लिए बने कानून उन पर लागू नहीं होते हैं. मसलन हिंदू विवाह अधिनयम 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिंदू दत्तकता और भरणपोषण अधिनियम 1956 की धारा 2 (2) और हिंदू वयस्कता और संरक्षता अधिनियम 1956 की धारा 3 (2) के मुताबिक आदिवासियों पर ऊपर बताए कानून लागू नहीं होते. सवाल बड़ा अजीब और दिलचस्प है कि आदिवासी संविधान के मुताबिक तो हिंदू हैं लेकिन कानूनन नहीं. इस खामी पर न तो कभी किसी का ध्यान गया और न ही किसी ने इसे हल करने के बारे में सोचा.
बारीकी से देखें तो क्या आदिवासियों का कोई धर्म ही नहीं है? वे शुरू से ही प्रकृति यानी कुदरत को मानते रहे हैं. जल, जंगल और जमीन से जज्बाती लगाव रखने वाले अदिवासी किसी देवीदेवता की पूजा नहीं करते हैं. वे हिंदुओं की तरह मूर्ति पूजने वाले भी नहीं हैं और न ही दूसरे कर्मकांडों को मानते हैं. आदिवासियों की शादीविवाह के रीतिरिवाज भी हिंदुओं से अलग हैं. वे हिंदुओं में पसरी वर्णव्यवस्था को भी नहीं मानते और न ही इस के दायरे में आते हैं. लेकिन एक साजिश के तहत उन्हें शुरू से ही शूद्रवर्ण का माना जाता रहा है.
आदिवासी न तो राम, कृष्ण और विष्णु, शंकर को मानते हैं और न ही हनुमान को जिन्हें वनवासी कहा जाता है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राजस्थान विधानसभा चुनावप्रचार के दौरान हनुमान को शूद्र कहा था तो खासा बवंडर देशभर में मचा था. उन की मंशा ऊंची जाति वाले तमाम हिंदुओं की तरह यह जताने की थी कि आदिवासी गंवार, गुलाम और जाहिल हैं. मौजूदा दौर का सच भी यही है.
आदिवासियों के हिंदू न होने की एक बड़ी वजह यह भी कि वे न तो पितरों का श्राद्ध करते हैं और तीर्थयात्रा पर भी नहीं जाते. हिंदुओं से नजदीकियों के चलते इतना जरूर हुआ है कि वे अब तंत्रमंत्र और भूतप्रेत को मानने लगे हैं जो उन के लिए नुकसानदेह ही साबित हो रहा है. उन में भी ज्ञानियों, ओ?ाओं और गुनियों की फौज तैयार होने लगी है जो उन्हें तरहतरह के डर दिखा कर लूटतीखसोटती है.
सवर्णों ने कभी नहीं चाहा कि आदिवासी पढ़ेंलिखें, जागरूक बनें और सभ्य समाज का हिस्सा बनें. इसलिए हमेशा उन्हें लतियाया गया. अव्वल दर्जे के सीधे आदिवासी कभी अपने साथ हो रही जोरज्यादती का विरोध भी नहीं कर पाए. हालांकि उन का शुरू से ही मानना है कि वे देश के सब से पुराने और पहले नागरिक हैं, बाकी सब तो बाद में आए और उन्हें गुलाम सा बना लिया, उन की जमीनें छीन लीं, जंगलों पर हक जमा लिया और देखतेदेखते ही उन्हें अछूतों की जमात में शामिल कर दिया.
इसलिए परेशान हैं आदिवासी
हिंदुओं की इस मनमानी से आजिज आए आदिवासियों ने ईसाई बनना शुरू कर दिया तो हिंदूवादी संगठनों का माथा ठनका क्योंकि इस से हिंदुओं की तादाद कम हो रही थी और मुफ्त का गुलाम उन के हाथ से फिसल रहा था. ईसाई भी आदिवासियों का हित कहीं से नहीं कर पा रहे लेकिन ईसाई मिशनरियां उन्हें पढ़ाती हैं जिस से वे अपने हक सम?ाने लगे तो फसाद भी शुरू हो गए जो आएदिन आदिवासी बहुल इलाकों में दिखते भी रहते हैं.
हिंदूवादी उन की घरवापसी का
ड्रामा करते रहते हैं. इस बाबत गांवगांव जा कर आरएसएस, बजरंगदल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के कार्यकर्ता घरघर जा कर त्रिशूल और हनुमान चालीसा जैसी किताबें बांटा करते हैं. आदिवासी अगर हिंदू होते तो इन चीजों को उन्हें बांटने की नौबत ही न आती. ये तो पहले से ही उन के पास होतीं.
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने कई फैसलों में माना है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं. भाजपा छोड़ दूसरे राजनीतिक दलों के नेता भी आदिवासियों को हिंदू कहने पर एतराज जताते रहे हैं. हेमंत
सोरेन के ?ारखंड का मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद इस संवाददाता ने रांची में उन से बात की थी. तब उन्होंने साफ कहा था कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं. यह इंटरव्यू सरिता पत्रिका में प्रमुखता से छपा था.
सिवनी के सिमरिया में आदिवासियों की मौब लिंचिंग की एक बड़ी वजह हिंदू युवाओं की यही खी?ा दिखती है कि आदिवासी खुद को सीधे से हिंदू क्यों नहीं मान लेते. नहीं मानते तो उन्हें भी गौकशी के नाम पर खुलेआम बेरहमी से मारा जाने लगा है ठीक वैसे ही जैसे मुसलमानों और दलितों को मारा जाता है.
भगवा गैंग का आदिवासी प्रेम कितना बड़ा धोखा और पाखंड है, यह भी सिमरिया कांड से उजागर हुआ है कि वह आदिवासियों के वोटों के जरिए हिंदू राष्ट्र बनाने का ख्वाव देख रहा है. इस के लिए सीधी उंगली से घी नहीं निकल रहा तो उंगली टेढ़ी की जाने लगी है जो कम से कम आदिवासियों के भले की बात तो नहीं.