आयुष्मान खुराना के कैरियर सबसे घटिया अभिनय
फिल्म ‘‘अनेक’’ की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी लेखक व निर्देशक अनुभव सिन्हा फिल्म सर्जक के साथ ही फिल्म आलोचकों / पत्रकारों और प्रचारक पर उठे सवालिया निशान लीक से हटकर खासकर उन विषयों पर,जिन्हे समाज में हौव्वा या तोबा समझा जाता था, उन फिल्मों में अभिनय कर लगातार खुद को बेहतरीन अभिनेता साबित करते आ रहे आयुष्मान खुराना ने फिल्म ‘‘अनेक’’ में अभिनय करने के साथ ही अपने पीआर की गलत सलाह मानकर अपने पूरे कैरियर पर कलंक लगा दिया. अब तक आयुष्मान ने मेहनत करके दर्शकों के बीच अपनी जो पैठ बनायी थी,वह खत्म हो गयी.
जी हां! यह कटु सत्य है. 20 मई को प्रदर्शित कंगना रानौट की फिल्म ‘‘धाकड़’’ के बाद आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘अनेक’ की बॉक्स आफिस पर बहुत बुरी दुर्गति हुई है. 20 मई को प्रदर्शित होते ही फिल्म ‘धाकड़’ को सिनेमाघरों से उतारा जाना शुरू हो गया था. मगर इसका वितरण ‘भाजपा’ समर्थित ‘जी स्टूडियो’ कर रहा है इसलिए इसे जबरन कुछ थिएटर में लगाकर रखा गया. मजेदार बात यह है कि आठवें दिन इस फिल्म के महज बीस टिकट बिके और वह भी कम दर वाली तथा फिल्म ने बाक्स आफिस पर 4420 रूपए इकट्ठा किए. सौ करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म आठ दिन में दो करोड़ भी नही कमा सकी.
लगभग उसी ढर्रे पर आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘अनेक’ चल रही है. फिल्म ‘‘अनेक’’ षुक्रवार 27 मई को एक साथ 1800 सिनेमाघरों (भारत में 1200 और विदेशों में 600 सिनेमाघरों में ) में प्रदर्शित हुई, लेकिन पहले शो में मुश्किल से एक प्रतिशत दर्शक पहुंचे, फिर धीरे धीरे सिनेमाघर मालिकों ने ‘अनेक’ को अपने अपने सिनेमाघरो से बाहर करना शुरू कर दिया था और शाम होते होते इसके सिनेमाघर न के बराबर ही बचे थे. जोड़ तोड़कर यानी कि ट्रेलर की बदौलत एडवांस बुकिंग के चलते इस पचहत्तर करोड़ की लागत वाली फिल्म ने पहले दिन एक करोड़ के लगभग पैसा बाक्स आफिस पर जुटाने में कामयाब रही.लेकिन दूसरे दिन ऐसा नहीं हो पाया. सूत्रों पर यकीन किया जाए तो इस फिल्म के लिए आयुष्मान खुराना ने दस करोड़ रूपए की फीस वसूली है. आखिर ‘अनेक’ की यह दुर्गति क्यों हो रही है? इस पर विस्तार से समझने की जरुरत है…
कही जाने वाली कथा का फिल्म सर्जक ने किया बंटाधार
हर दर्शक फिल्म देखते समय मनोरंजन के साथ कुछ जानकारी भी पाना चाहता है. मगर फिल्म ‘अनेक’ इन दोनों मोर्चों पर बुरी तरह से असफल रही है. ‘मुल्क’ व ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्में बना चुके फिल्मकार अनुभव सिन्हा की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपनी हर फिल्म में सिर्फ समस्या का महिमा मंडन करते हैं,मगर उसका हल नही बताते.वह हमेषा लोगों की कमजोर नस को दबाकर उसका फायदा उठाते आए हैं, मगर इस बार वह बुरी तरह से हार गए.यॅूं तो फिल्म ‘अनेक’ में युद्ध, शांति , अलगाववाद, नक्सलवाद, नस्लीय भेदभाव, भारत सरकार की सोच,पूर्वोत्तर राज्यों की समस्या सहित अनेक सवाल उठाते हुए इस बात पर भी सवाल उठाती है कि भारतीय होने के असली मायने क्या हैं? उपदेशात्मक षैली की यह फिल्म इस कटु सत्य को भी रेखांकित करती है कि सिर्फ 24 किमी चैड़े गलियारे से बाकी देश से जुड़े उत्तर पूर्व के सात राज्यों के किसानों की पूरी फसल हाईवे पर खड़े ट्रकों में सड़ जाती है,क्योंकि उन्हें दूसरी तरफ से आती फौज की गाड़ियों के लिए जगह बनानी होती है. फिल्म यह सवाल भी उठाती है कि कोई तो है जो चाहता है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों और पूर्वोत्तर में अशांति ही बनी रहे.मगर यह सब बहुत ही बचकाने व नीरस तरीके से हुआ है.जबकि यह ऐसे सवाल हैं,जिन पर बात की जानी चाहिए.इन मुद्दों पर कहानी कही जानी चाहिए. मगर लेखक व निर्देशक अनुभव सिन्हा की यह फिल्म ‘अलगाव वादी आंदोलनो’ पर बेसिर पैर की प्रवचन वाली फिल्म बन कर रह गयी है.फिल्म में सिर्फ बंदूकबाजी व सरकार की अपनी कुछ चालें हैं,जिसे देखते हुए दर्षक की समझ में ही नहीं आता कि यह सब क्या चल रहा है? फिल्मकार ने दो चार संवादों के माध्यम से यह जरुर बताया है कि ‘दिल्ली सरकार’ यानी कि ‘भारत सरकार’ देश के अन्य राज्यों के मुकाबले पंजाब , कश्मीर व पूर्वात्तर के सात राज्यों को अलग नजरिए से देखती है. ‘भारत सरकार’ पंजाब को खालिस्तानी, कश्मीर को पाकिस्तान व उत्तर पूर्वी राज्यों को चीनी समझ ही व्यवहार करती है. मगर इसे समझाने वाला एक भी दृश्य नही है.‘भारत सरकार’ और ‘पूर्वात्तर राज्य के अलगाव वादियों ’के बीच संघर्ष की वजह या विचारधारा के अंतर आदि को भी स्पष्ट नही किया गया. इसी तरह संवाद में 24 किलोमीटर चैड़े गलियारे का जिक्र है,मगर इस विकराल समस्या को स्पष्ट नही किया गया.फिल्म में इस समस्या को रेखांकित करने वाले एक भी दृश्य नहीं है. नस्लीय भेदभाव पर भी स्पष्ट बात नही की गयी है. फिल्म में सिर्फ हिंसा व खूनखराबा भरा गया है.बेवजह दो गुटों या पुलिस बल व अलगाव वादियों के बीच मुठभेड़ के लंबे लंबे दृश्य ठूंसकर फिल्म की लंबायी बढ़ा दी गयी है. कौन किस पर क्यों गोली चला रहा है, कुछ स्पष्ट नही है.
कई एक्शन दृश्य देखते हुए लगता है कि बच्चे एक्शन का वीडियो देख रहे हैं या वीडियो गेम में वह बच्चा एक्शन कर रहा है. किशोर वय के लड़के हाथ में बंदूक लेकर गुरिल्ला युद्ध कर रहे है, पर वह ऐसा क्यों कर रहे है, उन्हें किसने ऐसा करने के लिए कहा कुछ भी स्पष्ट नहीं. सब कुछ घालमेल है. एक दृश्य में एक बारह तेरह साल के उम्र के लड़के की मां को चिंता है कि एक गुट उसके लड़के को फुसलाकर उसके हाथ में बंदूक थमा देगा. पर ऐसा क्यों हो रहा है, कुछ भी स्पष्ट नहीं है. लगभग ढाई घंटे की अविध वाली फिल्म में दो घंटे तो सिर्फ बंदूके ही चल रही है. कब क्यों बंदूके गरजने लगी, समझ में ही नहीं आता. अब इस तरह की उटपटांग फिल्म को दर्शक कैसे मिलेंगे? इतना ही नही अनुभव सिन्हा ने फिल्म की शुरूआत बहुत गलत ढंग से की है. फिल्म की शुरूआत एक नाइट क्लब से जहां फिल्म की नायिका और मुक्केबाजी में भारत का प्रतिनिधित्व करने का सपना देख रही एडो की गिरफ्तारी की गयी है. जबकि उसकी कोई गलती नही है.ऐसा महज नाइट क्लब चलाने वाले व पुलिस के बीच आपसी मतभेद के कारण किया जाता है. अब इस दृश्य के माध्यम से फिल्मकार क्या कहना चाहते हैं, शायद उन्हें भी नहीं पता. अनुभव सिन्हा भूल गए कि आज का दर्शक विश्व सिनेमा देखने वाला समझदार है. फिल्म का नाम ‘अनेक’ भी अपने आप में कन्फ्यूजन ही पैदा करता है. ‘अनेक’ महज एक खोखला सिनेमा है.फिल्म ‘अनेक’ में सात उत्तर पूर्वी राज्यों की समस्याओं और मुद्दों को उकेरने में असफल रही है.
फिल्मकार अनुभव सिंन्हा आत्म प्रशंसा व घमंड में इतने चूर रहे कि वह यह भी भूल गए कि पूर्वोत्तर राज्यो ने ही हमें मैरी कॉम, मीराबाई चानू,लवलीना बोरगोहैन जैसे एथलिट दिए हैं. देश के बेहतरीन फुटबाल खिलाड़ी भी पूर्वोत्तर से ही आते हैं. प्राकृतिक रूप से पूर्वोत्तर राज्य स्विटजरलैंड से ज्यादा खूबसूरत है. पर फिल्म में सिर्फ ड्ग्स के अवैध कारोबार व हिंसा को ही बढा चढ़ाकर दिखाया गया है.
आयुष्मान खुराना का ‘इगो’ ले डूबा लीक से हटकर विषयों पर फिल्म कर सफलता दर्ज कराते आ रहे आयुष्मान खुराना को घमंड हो गया है कि वह जिस फिल्म में होंगे, वह फिल्म सफलता के झंडे अवश्य गाड़ेगी? इसलिए उन्होंने इस बात पर भी गौर नहीं किया कि ‘अनेक’ की कहानी व इसके किरदार में वह फिट नहीं बैठते है. उन्होंने इस फिल्म में अजीबोगरीब हरकतें की है,जो कि किसी भी ‘स्पेशल एजेंट’ को शोभा नहीं देता. एक्शन उनके वश की बात नहीं है, पर वह एक्शन कर रहे हैं.एक्शन के नाम पर आयुष्मान खुराना सिर्फ बंदूक पकड़ कर भागते हुए ही नजर आते हैं. दर्शक सीधे सवाल कर रहा है कि आयुष्मान खुराना ने ‘अनेक’ में काम करना क्यों स्वीकार किया? क्या उन्होंने महज ‘टीसीरीज’ कैंप का हिस्सा बनने के लिए यह फिल्म की अथवा पैसे के लिए.
सभी जानते है कि ‘अनेक’ में बकवास अभिनय करने वाले आयुष्मान खुराना इससे पहले अंधाधुन, बाला, शुभ मंगल ज्यादा सावधान, ड्रीमगर्ल सहित कई सफलतम फिल्में दे चुके हैं. मगर आयुष्मान खुराना के घमंड के ही चलते उनकी पिछली फिल्म ‘‘चंडीगढ़ करे आशिकी’’ को भी दर्शक नहीं मिले थे.फिर भी आयुष्मान खुराना ने सबक नहीं सीखा और अपनी पीआरटीम की हर सही व गलत बात पर अमल करते जा रहे हैं.
पी आर टीम पर आंख मूंद कर भरोसा करना भी गलत रहाः
फिल्म ‘अनेक’ के प्रमोशन के सिलसिले में पहली बार आयुष्मान का अनोखा रवैया नजर आया. इस बार आयुष्मान ने अपनी पी आर टीम के कहने पर सिर्फ उन पत्रकारों को ही इंटरव्यू दिया, जो कि सिर्फ प्रशंसा करें और उनसे फिल्म के विषय को लेकर गहराई से सवाल न पूछे. इतना ही नहीं पीआर टीम पत्रकारों से यह आश्वासन भी ले रही थी कि वह आयुष्मान का इंटरव्यू करेंगे, तो फिल्म की समीक्षा लिखते समय चार से पांच स्टार देंगे.
तथा कथित फिल्म आलोचकों ने फिल्म को डुबाने में कसर नहीं छोड़ी फिल्म ‘अनेक’ को डुबाने में फिल्म प्रचारकों व कलाकारों की पीआर टीम के इशारे पर नाचने वाले पत्रकारों/ फिल्म आलोचकों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. इन सभी ने दर्शकों को गुमराह करने का ही काम किया है.इस तरह इनकी विश्वसनीयता पर भी कई बड़े सवलिया निशान लग गए हैं. इन दिनों फिल्म समीक्षाएं भी अजीबोगरीब तरीके से लिखी जा रही हैं. हर फिल्म के प्रदर्शन से पहले पत्रकारों के एक तबके को अलग से फिल्म दिखायी जाती है, बाद में पता चलता है कि इस तबके के सभी पत्रकारों ने फिल्म को चार से पांच स्टार दे दिए हैं. मजेदार बात यह है कि इन पत्रकारों / फिल्म आलोचकों की लिखी हुई समीझाएं और इनके द्वारा फिल्म को दिए गए ‘स्टार’ का विज्ञापन एक ही दिन अखबारों में छपता है. अक्सर यह भी देखा जाता है कि यूट्यूब चैनल चलाने वाले पत्रकार फिल्म की बेवजह जबरदस्त तारीफें करते हुए साढ़े चार स्टार से पांच स्टार देकर वीडियो जारी कर देते हैं और जब फिल्म को बाक्स आफिस पर सफलता नही मिलती है,तब वह षाम को दूसरा वीडियो जारी करते हैं कि इस फिल्म में यह कमियां हैं.माना कि हर इंसान की फिल्म को देखने की पसंद व नापसंद में अंतर हो सकता है.मगर इतना बड़ा अंतर…?
अमूमन माना तो यही जाता है कि फिल्म आलोचक को सिनेमा की समझ के साथ ही दर्शक की पसंद नापसंद की भी समझ होती है.पर हकीकत यह है कि अब फिल्म आलोचक भी आम लोगों से कट कर रह गया है.जब कोई कलाकार किसी प्रेस कांफ्रेंस में किसी पत्रकार का नाम ले लेता है,तो उस पत्रकार का सीना 56 इंच का हो जाता है और वह हर किसी से यह बताता घूमता है.तो वहीं कई फिल्म पत्रकार तो केवल पीआर के लिखे षब्दों को ही अपने षब्द बनाकर पेष करने में अपने कर्तब्य की इतिश्री समझने लगे हैं.
जी हां! फिल्म ‘‘अनेक’’ के प्रदर्शन वाले दिन कई बड़े अखबार फिल्म की तारीफों के पुल बांधने वाली समीक्षाओं से लबालब थे, तो वहीं दर्शक कुढ़ते हुए गाली देते हुए सिनेमाघर से निकल रहा था और सिनेमाघरों में फिल्म का शो रद्द होने का बोर्ड लटक रहा था.मुझे याद है कि कई अखबारों की ही तरह हिंदी के एक बड़े अखबार के पत्रकार ने ‘अनेक’ की समीक्षा में इस फिल्म को ‘ऑस्कर अवार्ड’ जीतने योग्य बता डाला. अब जिस फिल्म को दर्शक सिरे से खारिज कर रहा हो, उसे पत्रकार ‘ऑस्कर विजेता बनने योग्य’ बताने पर क्यों तुल गया?? यह विचारणीय प्रश्न है. जिसका जवाब हर पाठक और हर दर्शक को तलाशना चाहिए. वैसे इस तरह की हरकते अंग्रेजी दां पत्रकार कुछ ज्यादा ही कर रहे हैं.
बहरहाल, हिंदी के इस पत्रकार ने आयुष्मान खुराना की प्रतिभा का गुणगान करते हुए लंबा चैड़ा इंटरव्यू अपने अखबार में छापने, अपने अखबार के चैनल पर वीडियो इंटरव्यू प्रसारित करने के अलावा सोषल मीडिया पर भी जमकर प्रशंसा की थी.वैसे फिल्म ‘अनेक’ को चार से साढ़े चार स्टार देने वाले पत्रकारों की कमी नही रही.
बौलीवुड में पत्रकारों के बीच इस बात की भी कानाफूसी होती रहती है कि ‘फलां’ पीआर ने ‘फलां’ पत्रकार को इतना बड़ा लिफाफा थमा दिया है,जिससे वह चार स्टार से पांच स्टार के बीच की रेटिंग दे दे.
लेकिन इस तरह की पत्रकारिता से सबसे ज्यादा नुकसान देष के सिनेमा को हो रहा है.इन दिनों पीआर टीम के आगे नतमस्तक इन पत्रकारों की वजह से कलाकार व फिल्मकार भी जमीन से जुड़ने की बजाय हवाबाजी में ही अटका हुआ है.
‘धाकड़’ और ‘अनेक’ के बाक्स आफिस आंकड़े इस ओार इषारा कर रेह है कि अब वह वक्त आ गया है जब बौलीवुड के हर कलाकार व फिल्मकार को हौलीवुड व दक्षिण के सिनेमा को कोसने की बजाय अपनी पीआर टीम की हरकतों पर गंभीरता से गौर करे,वह इस बात को जानने का प्रयास करे कि कौन सा पत्रकार निस्पक्ष व सही बात कर रहा है.इसी के साथ वह दर्शकों के मन को समझने के लिए जमीन पर आकर सोचे.