देश में भड़काऊ नैरेटिव हावी है ताकि सरकार सवालजवाब और जिम्मेदारियों से बच सके. धर्म और जाति अब मुख्य सवाल बना दिया गया है और रोजगार, महंगाई, स्वास्थ्य, सामाजिक न्याय जैसे मूल मुद्दे दरकिनार कर दिए गए हैं. भड़काऊ नैरेटिव मुसलिमविरोधी या जातिविरोधी नहीं, सिर्फ जनताविरोधी है.

बच्चा जब पैदा होता है तब उस का दिमाग खाली ब्लैकबोर्ड (स्लेट) की भांति होता है, बिलकुल खाली. जैसेजैसे वह बड़ा होता है, वह अपने जीवन में मिले अनुभवों के माध्यम से ज्ञान अर्जित करता जाता है.

वर्ष 1632 में जन्मे व ‘उदारवाद के पिता’ कहे गए दार्शनिक जौन लोक ने अपने सिद्धांत ‘टेबुला रासा’ में इस बात का जिक्र किया था कि मनुष्य के जन्म के समय दिमाग में कोई विचार नहीं होता, न सोचनेसम झने की क्षमता. यानी जब कोई बच्चा पैदा होता है तब उस का दिमाग शून्य होता है, न कोई पिक्चर न कोई याद न कोई सपना. वह अधिक से अधिक अपनी मां के गर्भाशय के भीतर की तरलता (एमिनियोटिक सेक) को ही सम झ पाता है, जो उसे सहलाहट (सैंसिटिव) महसूस कराती है.

सिद्धांत के इस बिंदु को यदि थोड़ा और आगे ले कर चलें तो यह माना जा सकता है कि जिस दौरान कोई बच्चा पैदा होता है, उसे अपने मातापिता, भाईबहनों, नातेरिश्तेदारों तक का बोध नहीं होता और न किसी दैवीय ताकत का, मतलब भगवान का भी नहीं. मान लीजिए अगर कोई बच्चा गुजरात के हिंदू परिवार में पैदा हुआ है तो संभव है कि गुजराती भाषा और हिंदू धर्म का अनुकरण करेगा. अगर वह लंदन के ईसाई परिवार में पैदा हुआ है तो इंग्लिश भाषा और ईसाईयत का अनुकरण करेगा और अगर वह बगदाद के मुसलिम परिवार में पैदा हुआ है तो अरबी भाषा व इसलाम का अनुकरण करेगा. ये चीजें उसे जन्मजात नहीं मिलतीं, उस के परिवेश से मिलती हैं.

फिर सवाल यह कि जिस भगवान का उसे पैदा होते बोध नहीं होता, उस के लिए मारकाट, लड़ाई झगड़ा और हिंसा क्यों? अतीत में दुनियाभर में न जाने कितने ही धर्मयुद्ध हुए और आज भी कितने ही उसी कगार पर हैं. तमाम वैज्ञानिक चमत्कारों के बावजूद धार्मिक अंधपन में अलगअलग समुदायों के बीच सिरफुटौवल की स्थिति है, कई देश धार्मिक वर्चस्व कायम करने में मरखप रहे हैं. वे अपनी ऊर्जा गैरजरूरी, कुतार्किक बहसों में लगा रहे हैं और अंदरूनी कलह से जू झ रहे हैं. यह सब क्यों?

समाजशास्त्री व दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा था, ‘‘धर्म लोगों के लिए एक अफीम है.’’ बात सही है, वह अफीम जो इंसान को उस के वास्तविक पहचान से अलग कर देती है. अतीत में इन धर्मों की बदौलत राजामहाराजाओं, पंडेपुजारियों, मौलवियों व पादरियों ने जनता की आंखों में धूल  झोंक कर अपने ऐशोआराम का राजपाट चलाया, ऊंचनीच का भेद बनाए रखा, टैक्स वसूले, जनता पर अत्याचार किए, बेगारीभुखमरी और लाचारी का कारण पुराने जन्मों का कर्म बताया.

भारत समेत दुनिया के अलगअलग देशों में दक्षिणवादी सरकारें आज फिर से जनता को उन्हीं पाखंडों में धकेलने की साजिश रच रही हैं. शासकों द्वारा धार्मिक नैरेटिव चला कर लोगों को न सिर्फ पाखंडी, अंधविश्वासी और नफरती बनाया जा रहा है ताकि लोग गुलामी सहते हुए पूजापाठी बनें और दानदक्षिणा करते रहें, बल्कि जरूरी मुद्दों से ध्यान भी भटकाया जा रहा है ताकि कोई उन से सवालजवाब न करने लगे.

धर्म की आड़ में

इस नैरेटिव को गढ़ने में शासक और उस का प्रचारतंत्र मीडिया पूरी तरह से जुटा हुआ है. लोगों को कैसे असल मुद्दों से बिदकाना है, भारत में टीवी चैनलों की गोदी पत्रकारिता अच्छे से जानती है. वहां हर समय धर्मयुद्ध छिड़ा रहता है. अव्वल यह कि सुबह के अखबार भी धीरेधीरे धार्मिक नफरत का जहर फैलाने में जुट गए हैं. अखबारों की मुख्य हैडलाइन से ले कर बड़ेछोटे कौलमों में धर्म का स्पेस फैलता जा रहा है जबकि जनमानस की खबरें सिकुड़ती जा रही हैं.

इस नैरेटिव को सम झना कोई बड़ी बात नहीं. इसे अखबार की हैडलाइन और प्राथमिकता देख कर सम झा जा सकता है. जैसे सीएमआईई के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश की शहरी बेरोजगारी दर अप्रैल के महीने में बदतर 9.22 फीसदी हो चली है, पर यह खबर कहीं साइड में छोटे से कौलम में जानबू झ कर सरका दी जाती है जिस में न सरकार से सवाल होता है न कोई विश्लेषण. ठीक इस की बगल में ‘गाजियाबाद के हिजाब प्रकरण में छात्राओं से पूछताछ…’ शीर्षक वाली लंबीचौड़ी खबर छपती है. ठीक नीचे 3 कौलम में ‘ओखला में 6, शाहीन बाग में 9 को चलेगा बुलडोजर’ शीर्षक वाली खबर बनती है. वहीं बगल में 3 बड़े कौलमों में ‘जोधपुर में नमाज के बाद उत्पात’ शीर्षक वाली खबर छपती है, जिसे पेज 11 व 16 में विस्तार दिया जाता है. इन भड़काऊ और भ्रामक खबरों के बीच जनता से जुड़ी खबर को कैसे दबाया जाए या सरकाया जाए, यह कृत्य बड़े शातिराना तरीके से किया जा रहा है.

सवाल यह है कि रोजीरोटी से ज्यादा धर्म से जुड़े मसले क्या इतने जरूरी हो चले हैं कि उस के लिए किसी अखबार को पहले ही पेज में 60-70 फीसदी खबर तनाव, नफरत और कट्टरपन पैदा करने वाली छापनी पड़े और बाकी जगह महज नेताओं की ब्रैंडिंग वाली खबरें हों, जैसे ‘दुनिया में मोदी का डंका’, ‘फ्रांस में मोदी की जयजय’, ‘वायनाड में स्मृति की राहुल को चुनौती’, ‘राहुल गांधी की पब पार्टी’ क्या जनता को जानने के लिए यही सब खबरें रह गई हैं? सवाल यह है कि देश का नैरेटिव ‘अच्छे दिन’ से कैसे ‘मोदी की जय’ और ‘जय श्रीराम’ में शिफ्ट होता चला गया?

कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश के चंदौली में यूपी पुलिस पर ये गंभीर आरोप लगे कि उस ने कारोबारी कन्हैया यादव की गैरमौजूदगी में घर में घुस कर परिवार की महिलाओं के साथ मारपीट की. यह मारपीट इतनी भयानक हुई कि कन्हैया यादव की बड़ी बेटी निशा यादव की तत्काल मौत हो गई. ऐसे ही उत्तर प्रदेश के ललितपुर के थानाध्यक्ष पर आरोप लगा है कि उस ने बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने आई 13 वर्षीया नाबालिग के साथ दुष्कर्म किया. हालिया ऐसी ढेरों खबरे हैं जो या तो गायब कर दी गईं या कहीं कोने में सरका दी गईं. जाहिर है देश में जब धर्म का नशा हावी हो तब महिला सुरक्षा और जैंडर जस्टिस की खबरें कोई माने नहीं रखतीं. यही कारण भी है कि मुसलिम महिलाओं को खुले बलात्कार की धमकी देने वाले बजरंग मुनि दास को भारतीय जनमानस ने आसानी से पचा लिया क्योंकि महिलाओं की सुरक्षा अब देश में गौण हो चली है.

ऐसे ही मध्य प्रदेश के सिवनी में 3 आदिवासियों की मौबलिंचिंग का मामला सामने आया है. जिस में 2 आदिवासी मारे गए. आरोपित लोग कोई और नहीं, बजरंग दल के कार्यकर्ता बताए गए. यह संगठन वही है जिस के कार्यकर्ता कल तक मुसलमानों को गौकशी के आरोपों में मारतेपीटते आए थे और उस का पैतृक संगठन आरएसएस आदिवासियों को हिंदू बता रहा था. आज यही संगठन खुलेआम धर्म की आड़ ले कर ऊंचनीच का खेल खेल रहा है.

वहीं, दलितों को मंदिरों में जाने से रोकने, मूंछें रखने, घोड़ी चढ़ने, मजदूरी मांगने के एवज में दबंगों व ऊंचों द्वारा पीटा जा रहा है. ऐसी खबरें छोटेछोटे कौलमों में आती हैं जहां सफाईकर्मी की मौत गटर सफाई के दौरान हो गई, ऐसी खबरें अब बिना नजरों में आए निकल जाया करती हैं, क्योंकि धर्म से जुड़ी खबरों के शीर्षक भव्य, व्यापक और उत्तेजक दिखने लगे हैं. यही कारण भी है कि ‘प्रैस फ्रीडम इंडैक्स 2022’ में भारतीय मीडिया की रैंक 8 पायदान नीचे गिर कर 150वें पायदान पर आ गई है.

एससी/एसटी/ओबीसी, दहेज उत्पीड़न, रेप, जैंडर जस्टिस, रोजगार, महंगाई, जबरन टैक्स वसूली, मजदूर-किसानों की खबरें सुर्खियों से गायब हो गई हैं और यह सिर्फ इसलिए कि धर्म का नैरेटिव जोर से फैलाया जाता रहे. इस नैरेटिव में भले मुसलिम प्राइम टारगेट दिखाई दे रहे हों पर  झेलना हिंदू आबादी को भी पड़ रहा है, क्योंकि उस की समस्याएं, दुखदर्द, न्याय, उत्पीड़न पूरी तरह डिस्कोर्स से गायब कर दिए गए हैं. यही कारण है कि इस नैरेटिव को हालिया दिनों में जानबू झ कर अधिक हवा दी जा रही है क्योंकि महंगाई और अर्थव्यवस्था से देश की आम आबादी हलकान में है, फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू. बस, फर्क यह है कि पहले इन समस्याओं के लिए लोग सरकार और व्यवस्था को निशाने पर लिया करते थे, अब मुसलिमों पर दोष मढ़ने लगे हैं.

बढ़ता सांप्रदायिक तनाव

पिछले कुछ समय से धर्मरूपी इस अफीम के नशे का सुरूर भारत के वातावरण में निरंतर फैलते देखा जा सकता है, जिस ने जनमानस को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है. इसे जानबू झ कर फैलाया भी जा रहा है. लोगों के मन में धर्म विशेष के नारे लगा कर, मारनेकाटने की मंशा घर करने लगी है. कट्टर धार्मिक नेताओं द्वारा लगातार नफरती बयान दिए जा रहे हैं और ऐसे लोगों को मिल रहा राजनीतिक व प्रशासनिक संरक्षण सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा कर रहे हैं. दुखद यह कि भारत का बहुसंख्य तबका अब इन चीजों को आसानी से पचाने लगा है, क्योंकि वह इस नैरेटिव में खुद को एडजस्ट करने लगा है.

पिछले 1-2 महीनों के भीतर हुईं ऐसी कई घटनाएं बता रही हैं कि देश एक ऐसे ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है जो कब फट पड़े, कहा नहीं जा सकता और इस ज्वालामुखी को गरमाने का काम कोई और नहीं, बल्कि खुद देश की सत्ता में बैठे लोग कर रहे हैं.

अमेरिका स्थित जेनोसाइड वाच के संस्थापक प्रोफैसर ग्रेगरी स्टैंटन ने भारत में नरसंहार की चेतावनी दी है और कहा है कि मुसलमान समुदाय इस के शिकार हो सकते हैं. प्रोफैसर ग्रेगरी स्टैंटन ने 1994 में रवांडा में हुए नरसंहार, जिस में 100 दिनों में तकरीबन 10 लाख लोग मारे गए थे, का भी पूर्वानुमान किया था.

वे कहते हैं, ‘‘2002 में जब गुजरात दंगे में 1,000 से अधिक मुसलमान मारे गए थे तब से भारत में नरसंहार की चेतावनी पर जेनोसाइड वाच मुखरता से काम कर रहा है. उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे.’’ उन के अनुसार, इस बात के कई सारे सुबूत हैं कि उन्होंने उस नरसंहार को बढ़ावा दिया था.

पिछले दिनों घटी घटनाओं में भी सरकार इस माहौल को या तो हवा दे रही है या मूक समर्थन दे रही है. युवा हिंसक दंगाई भीड़ में तबदील हो रहे हैं. जिन युवाओं के हाथों में किताबें, लैपटौप होनी चाहिए थीं, जिन्हें अपनी नौकरी के लिए संघर्ष करना था, उन के हाथों में तलवारें लहरा रही हैं. यह सब इसलिए क्योंकि उन के दिमाग में लगातार यही बातें डाली जा रही हैं. हालिया रामनवमी व हनुमान जयंती में हिंसक सांप्रदायिक घटनाएं जिस फौर्मेट में घटीं, वे बताती हैं कि ये तयबद्ध योजना के तहत अंजाम दी गईं.

फौर्मेट : एक धार्मिक यात्रा, यात्रा में शामिल युवाओं के हाथों में हथियार (लंबीलंबी तलवारें व पिस्टल, चाकू आदि), डीजे का भारीभरकम शोर, उस शोर में बज रहे नफरती, उकसाऊ व भौंडे भजन/गाने, मुसलिम इलाकों के रूट, मसजिद, प्रशासन की लापरवाही, हिंसा और दंगा. इसे इस तरह सम िझए-

करौली, राजस्थान : हिंदूवादी समूह द्वारा 2 अप्रैल, 2022 को नवरात्र और नव संवत्सर के मौके पर जुलूस का आयोजन किया गया. जब यह जुलूस मुसलिम बहुल इलाका हटवारा से गुजरा. शामिल लोगों ने कथित तौर पर सांप्रदायिक गालियां दीं और स्थानीय निवासियों के लिए आपत्तिजनक अपशब्द कहे. इस के तुरंत बाद सांप्रदायिक हिंसा शुरू हो गई. पथराव, आगजनी और संपत्ति के नुकसान की सूचना.

खरगौन, मध्य प्रदेश : विवाद मसजिद के बाहर डीजे बजाने को ले कर उत्पन्न हुआ. बताया जा रहा है कि रामनवमी का जुलूस पूर्व निर्धारित तालाब चौक के रास्ते निकलना था. जुलूस ने तय रूट के बजाय नया रूट लिया और एक मसजिद के सामने रोक कर लोगों ने डीजे की धुन पर नाचना शुरू कर दिया. भ्रामक नारे, गालीगलौज और जुलूस में डीजे पर भौंडे गाने बजाने के बाद जम कर पत्थरबाजी. पुलिस को आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े तो वहीं पैट्रोल पंप का भी भरपूर उपयोग किया गया. कई घरों और दुकानों में आग लगा दी गई.

गुजरात : रामनवमी के मौके पर निकाली जा रही यात्रा के दौरान 2 समूहों में विवाद के बाद  झड़प हो गई. खंभात में हुई हिंसा में एक व्यक्ति की मौत हो गई. पुलिस अधीक्षक अजीत राजन के मुताबिक, हिंसा के दौरान जम कर पथराव हुआ और स्थिति को नियंत्रण में करने के लिए पुलिस को आंसू गैस के गोले तक छोड़ने पड़े. वहीं हिम्मतनगर में 2 समुदायों के लोग आपस में भिड़ गए और वाहनों व दुकानों में तोड़फोड़ कर भारी नुकसान पहुंचाया. इस के अलावा 11 अप्रैल को भी वडोदरा के पुराने शहर इलाके में एक सड़क दुर्घटना के बाद भड़की सांप्रदायिक हिंसा में कई लोग घायल हुए.

झारखंड : रामनवमी के मौके पर  झारखंड में भी एक नहीं, बल्कि 2 शहरों में हिंसा की खबरें सामने आईं. यहां के बोकारो और लोहरदगा में सांप्रदायिक हिंसा की सूचना मिली. यह भी जुलूस के बाद घटित हुई घटनाएं थीं. वहीं दूसरी ओर लोहरदगा में दंगाइयों ने कई वाहनों को आग के हवाले किया और जम कर पथराव किया, जिस में कई लोग घायल हो गए.

पश्चिम बंगाल : पश्चिम बंगाल में भी रामनवमी के मौके पर निकाले जा रहे जुलूस के दौरान हिंसा का मामला सामने आया. इस घटना की राज्यस्तरीय जांच शुरू कर दी गई है.

आंध्र प्रदेश : 16 अप्रैल को ही आंध्र प्रदेश के कुरनूल में हनुमान जन्मोत्सव के दौरान निकाले जा रहे एक जुलूस में

2 समूहों के बीच विवाद हो गया. विवाद इतना बढ़ा कि दोनों ओर से पथराव शुरू कर दिया गया. इस हमले में कम से कम 15 लोगों के घायल होने की खबर है. रिपोर्ट के मुताबिक, लाउडस्पीकर की आवाज को ले कर यह पूरा विवाद शुरू हुआ था.

उत्तराखंड : रुड़की में हनुमान जयंती के मौके पर निकाली गई शोभायात्रा के दौरान पथराव, नारेबाजी और उग्र नारों की खबरें आईं. आरोप है कि जानबू झ कर मुसलिम इलाके से यात्रा निकाली गई. कथित रूप से घटना उस समय घटित हुई जब जुलूस भगवानपुर थाना क्षेत्र के डंडा जलालपुर गांव से गुजर रहा था. खबरों के अनुसार, अब मुसलिम परिवार वहां से पलायन करने को मजबूर किए जा रहे हैं.

दिल्ली : जहांगीरपुरी में निकाली गई हनुमान जयंती की शोभायात्रा में घटना तब घटी जब जुलूस तेज शोर करता हुआ मसजिद के पास पहुंचा. ऊपर की घटनाओं की तरह, एक विशेष समुदाय के लोगों को गालीगलौज करना, भड़काऊ नारे लगाना, उन्हें उकसाना. इस विवाद में भी 2 पक्षों के बीच कहासुनी होना, जिस के बाद पथराव का सिलसिला. जहांगीरपुरी के बी और सी ब्लाक में जहां सांप्रदायिक  झड़पें हुईं, वहां मछली बेचने वाले, मोबाइल मरम्मत करने वालों की दुकानें और कपड़े के खुदरा विक्रेताओं सहित एक मजदूर वर्ग की आबादी रहती है.

सवाल जिन के जवाब नहीं

इन घटनाओं के बाद कुछ सवाल सामने हैं जिन के जवाब न तो सरकार में बैठा कोई नुमाइंदा देने को तैयार है और न ही प्रशासन में. जैसे- अलगअलग इलाकों में आरएसएस, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद् व अन्य हिंदूवादी संगठनों द्वारा निकाले गए धार्मिक जुलूसों में लहराए गए गैरकानूनी हथियारों (तलवारें, बंदूक, चाकू) की परमिशन किस ने दी? लगभग सभी जुलूसों का रास्ता मुसलिम बहुल इलाकों और मसजिदों के आगे से क्यों निकाला गया? इस रूट की मंशा क्या थी? जब ये जुलूस निकाले जा रहे थे तब प्रशासन क्या कर रहा था? इन जुलूसों के लिए क्या उचित परमिशन ली गई (जैसा पुलिस के अनुसार, जहांगीरपुरी जुलूस की परमिशन नहीं ली गई)? जब मसजिदों के आगे जानबू झ कर होहल्ला मचाया जा रहा था और उकसाऊ नारे लगाए (हिंदुस्तान में रहना होगा तो जय श्रीराम कहना होगा, नोट- इस में धर्म विशेष के खिलाफ गालियां भी शामिल हैं) जा रहे थे, तब प्रशासन क्या कर रहा था? हिंसा के बाद प्रशासन की कार्यवाही एकतरफा क्यों दिखाई दे रही है? इतना सब हो जाने के बाद प्रधानमंत्री की तरफ से कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं आई है?

ये महज कुछ घटनाएं हैं, जो हाल के दिनों में मुख्यधारा में जगह बना पाईं. ऐसी ही गोवा, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक में भी घटनाएं घटीं, जिन्होंने भारत की एकता और भाईचारे को तोड़ने का काम किया. अब इन सभी घटनाओं में क्या हुआ, कैसे हुआ, किस ने पहले पत्थर फेंका, यह सब निष्पक्ष जांच का विषय है, पर, यकीनन सिलसिलेवार घटी ये सभी घटनाएं किसी बड़ी योजना का हिस्सा जरूर दिखाई देती हैं, जिस का नैरेटिव काफी पहले से गढ़ा जा रहा है और खमियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है.

29 मार्च को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में जानकारी दी कि देशभर में पिछले 4 वर्षों में सांप्रदायिक दंगों से जुड़े 3,400 केस दर्ज किए गए हैं. यह आंकड़ा 2016 से 2020 के बीच का है. इन 4 वर्षों के दौरान दंगों से जुड़े 2.76 लाख केस रजिस्टर किए गए. अब सोचने वाली बात यह है कि ये घटनाएं क्या अपनेआप ही घटती चली गईं या इस के लिए लगातार माहौल बनाने की कोशिश की गई?

नफरती बयानों की बाढ़

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर साल धारा 153ए (हेट स्पीच) के तहत दर्ज होने वाले मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है. जहां 2014 में देश में हेट स्पीच के कुल 336 मामले दर्ज हुए थे, वहीं 2020 में 1,804 मामले दर्ज हुए हैं. यानी 7 वर्षों में हेट स्पीच के मामले 6 गुना तक बढ़ गए हैं. वहीं इन मामलों में कन्विक्शन रेट घटता जा रहा है. अधिकतर मामलों में नफरत फैलाने वाले बरी हो जा रहे हैं.

हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने 2020 के दिल्ली दंगों में अनुराग ठाकुर द्वारा दी गई हेट स्पीच (देश के गद्दारों को…) पर सुनवाई करते हुए कहते हुए कहा, ‘चुनाव के दौरान दिए गए भाषण सामान्य समय में दिए गए भाषणों से अलग होते हैं क्योंकि चुनाव के दौरान नेता बिना किसी विशेष इरादे के अपनी रैलियों में अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करते हैं.’

इस के आगे कोर्ट ने कहा, ‘चुनावी भाषण में नेताओं द्वारा नेताओं के लिए कई चीजें कही जाती हैं और वे गलत हैं. लेकिन हमें किसी भी घटनाक्रम की आपराधिकता को देखना होगा. अगर आप कुछ मुसकरा कर कह रहे हैं तो इस में कोई अपराध नहीं है. लेकिन अगर आप कुछ आक्रामक तरीके से कह रहे हैं, तो यह जरूर (अपराध) है.’ जाहिर है कोर्ट की यह टिप्पणी गले उतरने लायक बिलकुल नहीं और इन चीजों से ही असामाजिक तत्त्वों को शह मिल रही है.

पिछले दिनों सिलसिलेवार चले नफरती बयान सरकार के समर्थन और कोर्ट की इसी चुप्पी का नतीजा हैं. देश के अलगअलग राज्यों में धर्म संसद आयोजित की गईं. यह सब प्रशासन की देखरेख में हुए. रामनवमी के दिन कट्टरवादी हिंदू नेता साध्वी ऋतंभरा ने हिंदुओं से अपील करते हुए कहा, ‘‘हिंदू बंधुओ, दो नहीं चार संतानें पैदा करो. अगर ऐसा हो जाएगा तो देश हिंदू राष्ट्र बन जाएगा.’’ इस बयान को न सिर्फ मुसलिमों को डराने के लिए कहा गया, बल्कि महिलाओं को बच्चे पैदा करने की मशीन सम झने और घरों में कैद रहने की साजिश के तौर पर कहा गया.

ऐसा ही कुछ हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले के मुबारकपुर में 3 दिवसीय ‘धर्म संसद’ के पहले दिन हिंदू कट्टरपंथी यति सत्येवानंद सरस्वती ने कहा, ‘‘देश में मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या हिंदुओं के पतन का संकेत है. हिंदुओं को अपने परिवारों को मजबूत करना चाहिए. उन्हें अपने परिवारों, मानवता और सनातन धर्म की रक्षा के लिए अधिक बच्चों को जन्म देना चाहिए.’’

पिछले 6 महीनों के भीतर इस तरह के बयानों की  झड़ी लग गई है. फिर चाहे वह हरिद्वार, छतीसगढ़, दिल्ली की धर्मसंसद हो या जंतरमंतर और धार्मिक आयोजनों के मंचों से खुले सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के बयान हों, जिन में महात्मा गांधी तक को गालियां दी गई हैं, गोडसे को राष्ट्रभक्त कहा गया है, महिलाओं पर टिप्पणियां की गई हैं. इस पूरे मामले में सत्ता पक्ष के नेताओं की तरफ से उचित कार्यवाही करने की जगह आरोपियों के समर्थन में बयान दिए गए हैं. वहीं केंद्र व भाजपाशासित राज्य सरकारों द्वारा चीजों को सुधारने की जगह भड़काने की कोशिशें की गई हैं, फिर चाहे वह मध्य प्रदेश में महज आरोप के आधार पर एकतरफा घरों को उजाड़ना हो, या दिल्ली के जहांगीरपुरी में बदले की भावना से गैरकानूनी ढंग से गरीब मुसलिमों की दुकानों को अतिक्रमण के नाम पर उजाड़ना हो.

थ्योरी औफ नौर्मलाइजेशन

आज देश की जनता को इस का विरोध कर सड़कों पर आना चाहिए था, सरकार के खिलाफ बगावत करनी चाहिए थी, पर वह या तो इन कार्यवाहियों की खुली समर्थक बन बैठी है या शिथिल हो चुकी है, या सहम गई है. यही भाजपा की सब से बड़ी जीत है कि उस ने देश की अधिकतर जनता को पंगु और मानसिक गुलाम बना दिया है और ऐसी भयानक घटनाओं को नौर्मलाइज्ड (सामान्यीकरण) कर दिया है जो लोकतंत्र के लिए घातक है.

उदाहरण के लिए, आरोप साबित होने से पहले सजा दे देना (बुलडोजर कार्यवाही) यह तानाशाही का परिचायक है जिसे लोगों ने हाथोंहाथ स्वीकार कर लिया है. भाजपा ने अपने विरोधियों की राजनीति पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है. आंदोलनकारियों को सहमा दिया है और जनता को तटस्थ या समर्थक बना दिया है.

यह बिना नैरेटिव चलाए संभव नहीं. दार्शनिक मिशेल फूको ने अपनी थ्योरी ‘नौरमलाइजेशन’ में इस बात को इंगित किया था कि सत्ता में बैठे लोग, जिन के पास ताकत होती है, वे अपने एजेंडे के लिए लगातार नैरेटिव चलाते हैं. लोग क्या सोचें क्या नहीं, क्या चीज नौर्मल होगी क्या नहीं, यह सब डिसाइड करते हैं. उदाहरण के लिए आज से 10 साल पहले खुद को धर्मनिरपेक्ष कहलाया जाना अच्छा माना जाता था और धार्मिक कट्टर कहलाया जाना बुरा. आज धर्मनिरपेक्ष कहलाया जाना बुरा माना जा रहा है और धार्मिक कट्टर कहलाया जाना अच्छा.

इसी प्रकार अपने एजेंडे तक पहुंचने के लिए भाजपा लगातार कुछ न कुछ नैरेटिव जनता के बीच उछालती है. वह लगातार अपने एजेंडे पर अग्रसर है. उस के लिए जरूरी नहीं कि चुनाव हों या नहीं, वह विवादित मुद्दों के केंद्र में हमेशा बने रहना भी चाहती है. उदाहरण के तौर पर पिछले 2 महीनों में हिजाब विवाद, मुसलिम ट्रेडर का बहिष्कार, हलाल,  झटका, नवरात्र में मीट बैन, चारधाम यात्रा में गैर हिंदुओं पर रोक इसी के क्रम दर्शाते हैं. इस के अलावा भाजपा ने अपने खिलाफ उठने वाले विरोधों की आवाज को कुचलने का काम किया है. सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर प्रशासनिक हमले बढ़ रहे हैं.

ध्यान देने वाली बात यह है कि पिछले 8 सालों में भाजपा ने बहुत तेजी से अपने लक्ष्य बदले हैं. उस ने जनता के दिमाग को बुरी तरह कैप्चर किया है. जैसे 2014 में भाजपा जब सरकार में आई थी तब उस ने जनता के बीच विकास का नैरेटिव दिया, जिस में महंगाई कम करना, भ्रष्टाचार खत्म करना, सब का साथ सब का विकास, अच्छे दिन, गरीबों का उत्थान और देश को मजबूत बनाना शामिल था.

2016 में जेएनयू तथाकथित ‘देशद्रोह’ प्रकरण के बाद देश को राष्ट्रवाद का नैरेटिव दिया. देशभक्त और देशद्रोही की बहस चलाई गई. फिर 2019 का पूरा चुनाव राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ा गया. अब 2022 आतेआते उस ने हिंदूराष्ट्र का नैरेटिव देना शुरू कर दिया है, जिस का पहला आधार मुसलिमों के नागरिक व सामाजिक अधिकारों को छीन कर उन्हें अलगथलग करना है.

पूंजी, मीडिया और तंत्रमंत्र का साथ

अपने नैरेटिव जनता के दिमाग में डालने के लिए भाजपा के पास तमाम संसाधन मौजूद हैं. एसोसिएशन फौर डैमोक्रेटिक रिफौर्म्स (एडीआर) द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को वित्त वर्ष 2019-20 में सब से ज्यादा 720.407 करोड़ रुपए कौर्पोरेट चंदा मिला. जिस के मुकाबले में कांग्रेस को 154 कौर्पोरेट दाताओं से 133.04 करोड़ का चंदा मिला. यह दिखाता है कि उद्योगपतियों का  झुकाव भारत में मोदी की तरफ है.

इस रिपोर्ट के अनुसार, इस समय बीजेपी देश की सब से अमीर पार्टी है, जिस ने वित्तवर्ष 2019-20 के लिए 4,847 करोड़ की संपत्ति घोषित की है. दूसरे नंबर पर मायावती की बसपा 698.33 करोड़ रुपए की संपत्ति के साथ है. तीसरे नंबर पर कांग्रेस है. उस के पास 588.16 करोड़ रुपए की संपत्ति है. इसी अनुपात में भाजपा के खर्चों में बढ़ोतरी हुई है. तथ्य यह है कि महज 42 सालों के भीतर ही भाजपा सब से अमीर पार्टी बन चुकी है. यह दिखाता है कि कौर्पोरेट और अमीरों ने किस तरह से भाजपा पर अपना प्यार लुटाया है. यह प्यार एकतरफा तो लुट नहीं सकता, इसलिए पिछले 8 सालों में देश की सरकारी संपत्ति इस प्यार की कीमत चुका रही है.

क्रिस्टोफ जैफ्रीलोट अपनी किताब ‘मोदीज इंडिया : हिंदू राइज एंड राइज औफ एथनिक डैमोक्रेसी’ में लिखते हैं, ‘‘भारत में अमीर और अमीर बन गए हैं. सरकार की कर नीति ने इस प्रवृत्ति को ठीक करने के बजाय इसे और मजबूत किया है.’’ क्रिस्टोफ मानते हैं कि इस में क्रोनिज्म (तरफदारी नीति) का मामला है. कुछ लोग अमीर से और अमीर हुए, इस में मोदी सरकार और उद्योगपतियों के बीच करीबी संबंध होना शामिल है.

भाजपा के नैरेटिव को जनता के ऊपर थोपने में मीडिया बड़ी भूमिका अदा कर रही है. आज मुख्यधारा की मीडिया मोदीशाह के नियंत्रण में है. जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाना, भाजपा प्रचारक की भूमिका निभाना और विपक्ष को निशाने पर लेना मीडिया का रोल रह गया है. पक्षपाती मीडिया का उदाहरण हर शाम प्राइम टाइम पर देखने को मिल जाता है. कैसे धार्मिक विषयों को उठा कर सामाजिक द्वेष को बढ़ावा दिया जाता

है. जो मीडिया संस्थान सरकार की आलोचना करता है उसे तरहतरह से परेशान करने के उदाहरण बीते सालों से लगातार देखने को मिल रहे हैं. इस के साथ ही भाजपा का आईटी सैल सोशल मीडिया पर अपने अन्य विशाल सह संगठनों के साथ मिल कर योजनाबद्ध तरीके से  झूठी या आधीअधूरी एकतरफा खबरों का प्रचारप्रसार करती है. इस में व्हाट्सऐप ग्रुप, फेसबुक ट्रोलिंग सामान्य बन चुकी हैं.

भाजपा के नैरेटिव को बढ़ाने में सब से अधिक कारगर वह पारंपरिक व्यवस्था है जिस के घेरे में लगभग हर हिंदू परिवार फंसा है. इस में दानदक्षिणा पर निर्भर मंदिरों में बैठे पंडेपुजारी मुफ्त में सदियों से भाजपा के एजेंडे का प्रचार करते रहे हैं. डील यही कि देश में ऐसे लोगों की जमात बढ़े जो धर्मकर्म के कार्यों में अधिक से अधिक शामिल हो, जो डरीसहमी हो, जिसे बारबार मंदिर आने की जरूरत हो, जो धर्म के मकड़जाल में इतनी घिरी हुई हो कि दानदक्षिणा करे, चढ़ावा चढ़ाए. इसी तबके से हिंदूराष्ट्र बनाने की मुखर आवाज आ रही है. संविधान को बदलने की मांग भी यही तबका जोरशोर से कर रहा है. वजह यह है कि एक को सत्ता भोगने का सुख मिले तो दूसरे को दानदक्षिणा का सुख. यही कारण है कि दिनरात ‘हिंदू खतरे में हैं’, ‘मुसलिम राज आ जाएगा’, ‘4 बच्चे पैदा करो’ की रट लगाई जाती है.

एंटी सिमिटिज्म की शुरुआत तो नहीं

जरमनी में जब फासीवादी हिटलर का राज था, तब प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स की एक बात मशहूर थी, ‘किसी  झूठ को इतनी बार कहो कि वह सच बन जाए और सब उस पर यकीन करने लगें.’ वहां यहूदियों को अलगथलग करने के लिए तमाम भ्रामक प्रचार किए गए. ऐसी जानकारियां फैलाई गईं जो कुछ ही सच, बाकी भ्रामक होतीं, ताकि लोग इन बातों पर आसानी से विश्वास कर लें, यहूदियों के खिलाफ पूर्वाग्रह, नफरत, द्वेष फैलाया गया. नाजियों द्वारा लगातार यहूदियों के खिलाफ मुद्दे उछाले गए जिस से जनमानस में एंटी सिमिटिक विचार हावी होने लगे. यह इसलिए क्योंकि वहां के शासक ऐसा चाहते थे, पर जैसे धुंध हटने के बाद सबकुछ साफ नजर आने लगता है वैसे ही हिटलर के मरने के बाद वहां आम लोगों को सम झ आया कि हिटलरभक्ति और यहूदियों से नफरत ने उन्हें कितना अंधा बना दिया था कि वे सहीगलत नहीं सम झ पाए और आज वे किस बरबादी पर खड़े हैं.

भारत में भी एंटीसिमिटिक दौर की शुरुआत होना कहना गलत नहीं होगा, क्योंकि इस समय मुसलिमों के खिलाफ कई प्रकार के पूर्वाग्रह तेजी से फैलाए जा रहे हैं, जैसे मुसलिम देश के प्रति वफादार नहीं हो सकते, वे 20-20 बच्चे पैदा करते हैं, वे हिंदू महिलाओं को अपने प्यार में फंसा कर जबरदस्ती धर्मांतरण कराते हैं, देश में मुसलिम अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं जिस से एक दिन मुसलिम राज स्थापित हो जाएगा, मुसलिम बाहरी हैं, मुसलिम नौकरियां खा रहे हैं, जमीनों को हड़प रहे हैं इत्यादि.

जाहिर है, ये सब नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं ताकि मूल मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सके. जैसा कि पिछले कुछ समय से लगातार देखने को मिल रहा है, केंद्र सरकार रोजगार के अवसर पैदा करने में विफल रही है. बल्कि जो बचे रोजगार थे उन पर भी वह चोट पहुंचाने का काम कर रही है. छोटा और मध्यम क्षेत्र, भारतीय रोजगार के सब से बड़े दाता, 2016 में हुए नोटबंदी के बाद से लड़खड़ा गए हैं और बाद में जीएसटी व लौकडाउन जैसे आघातों का सामना करना पड़ा है.

कई आंकड़ों से पता चलता है कि मोदीकाल में अमीर अधिक अमीर हुए हैं, गरीबों और अतिगरीबों की संख्या में इजाफा हुआ है. अमीरीगरीबी की खाई बढ़ी ही है. महंगाई की बात करें तो थोक और खुदरा दोनों प्रकार की महंगाई में महीनेदरमहीने इजाफा हो रहा है. कंज्यूमर प्राइस इंडैक्स (सीपीआई) पर आधारित खुदरा महंगाई नवंबर

में 4.9 फीसदी के स्तर पर पहुंच चुकी है. आम लोगों के लिए यह  इजाफा परेशान करने वाला है. वहीं दूसरी ओर होलसेल प्राइस इंडैक्स (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित थोक महंगाई को देखें तो यह पिछले 12 साल के उच्च स्तर पर पहुंच चुकी है. इस का स्तर डराने वाला है. फिलहाल देश में थोक महंगाई 14.23 फीसदी के स्तर पर है.

भारत में पिछले दिनों कई राज्यों में हुई सांप्रदायिक हिंसा को ले कर रिजर्व बैंक औफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने देश को आगाह किया. रघुराम राजन ने कहा कि दुनिया में देश की बन रही अल्पसंख्यक विरोधी छवि भारतीय प्रोडक्ट्स के लिए बाजार को नुकसान पहुंचा सकती है. उन्होंने कहा कि भारत की ऐसी इमेज बनने के चलते विदेशी सरकारें राष्ट्र पर भरोसा करने में हिचकिचा सकती हैं. हो सकता है कि निवेशक आप को एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में न देखें.

इस के ठीक पहले मुसलिम दुकानदारों के बहिष्कार की मांग पर भारत की ओर दुनिया की शीर्ष बायोटेक कंपनियों में से एक, बायोकौन की संस्थापक व प्रमुख किरण मजूमदार शा के बयान ने आपति जाहिर की. इस से व्यापार पर पड़ने वाले नुकसान को ले कर चेताया. उन का बयान एक ट्वीट में आया, उन्होंने कहा, ‘‘कर्नाटक ने हमेशा समावेशी आर्थिक विकास किया है और हमें इस तरह

के सांप्रदायिक बहिष्कार (मुसलिम वैंडर की दुकानों के बहिष्कार) की अनुमति नहीं देनी चाहिए. अगर आईटीबीटी (सूचना प्रौद्योगिकी और

जैव प्रौद्योगिकी) सांप्रदायिक हो गई तो यह हमारे वैश्विक नेतृत्व को नष्ट कर देगी. मुख्यमंत्रीजी, कृपया इस बढ़ते धार्मिक विभाजन को हल करें.’’

जाहिर है, नफरत और हिंसा का यह माहौल न केवल भारतीय मुसलमानों के लिए एक संकट ले कर आया है बल्कि भारत के बहुसंख्यक हिंदू आबादी के लिए भी कम खतरनाक नहीं है. भारत की छवि विश्व मंच पर खराब हो रही है, जिस से कंपनियां भारत में आने से हिचकिचा रही हैं.

श्रीलंका आज इस का सब से बड़ा उदाहरण बन कर हमारे सामने खड़ा है. वहां राजपक्षे सरकार की खराब आर्थिक नीतियों के चलते देश की पूरी अर्थव्यवथा चौपट हो गई. महंगाई इतनी बढ़ गई कि हर तरफ त्राहित्राहि मच गई.

यह सब इसलिए कि हालात को सुधारने की जगह राजपक्षे ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत,  झूठी देशभक्ति और भ्रम को हथियार बनाया.

आज वहां लोगों की आंखें खुलीं तो हालात नियंत्रण से बाहर हो चले हैं, इतने बाहर कि सड़क पर उतरे प्रदर्शनकारियों ने कुरुनेगला शहर स्थित राजपक्षे परिवार के पैतृक घर में भी आग लगा दी. इस के अलावा प्रदर्शनकारियों ने कई नेताओं के घरों को भी आग के हवाले कर दिया.

ऐसे ही आज भारत में महंगाई की मार हिंदूमुसलिम दोनों पर पड़ रही है. महिला उत्पीड़न के मामले दब रहे हैं तो हिंदू महिलाओं को इसे अधिक  झेलना पड़ रहा है. बेरोजगारी दोनों समुदायों के युवा  झेल रहे हैं. सरकारी नौकरियों में कटौती सभी पर भारी पड़ रही है. भाजपा व हिंदूवादी संगठनों का फैलाया यह नैरेटिव मुसलिमविरोधी से कहीं अधिक जनताविरोधी हो चला है. अगर देश में यही हालात रहे तो भारत को श्रीलंका बनने में देर न लगेगी.

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