सुभद्रा वैधव्य के दिन झेल रही थी. पति ने उसके लिए सिवाय अपने, किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी. यही था उसके सामने एक बड़ा शून्य! यही था उसकी आँखों का पानी जो चारों प्रहर उमड़ता घुमड़ता रहता. वह जिस घर में रहती है, वह दुमंजिला है. उसने निचले हिस्से सुभद्रा ने किराए पर दे दिए हैं. बाजार में दो दुकानें भी हैं उनमें एक किराए पर है तो दूसरी बन्द पड़ी है. गुजारे भर से अधिक मिल जाता है, बाकी वह बैंक में जमा कर आती है. जमा पूँजी की न जाने कब जरूरत आन पड़े, किसे पता? वह पति की कमी और खालीपन से घिरी होकर भी जिंदगी से हारना नहीं चाहती.
कहने भर को रिश्तेदारी थी लेकिन न अपनत्व था और न ही सम्पर्क. माँबाप स्वर्ग सिधार गए थे. पति के बड़े भाई थे जो कनाडा बस गए. न कभी आए और न कभी उनकी खबर ही मिली. एक ननद थी अनीता, सालों तक गर्मियों के दिनों में आती बच्चों के झुंड के साथ. छुट्टियाँ बिताती फिर पूरे साल अपने में ही मस्त रहती. कभी कुशलक्षेम पूछने की ज़हमत न उठाती. जिन दिनों उसका परिवार आता, उन दिनों सुभद्रा को लगता जैसे उसकी बगिया में असमय बसंत आ गया हो. सुभद्रा अपनी पीड़ा को भूल जाती. उसे लगता, धीरे-धीरे ही सही उसकी छोटी सी दुनियाँ में अभी भी आशाओं की कोंपले खिल रही हैं. अनीता, उसका पति निर्मल और तीनों बच्चे घर में होते तो सुभद्रा के शरीर में अनोखी ताकत आ जाती. सुबह से रात तक वह जी जान से सबकी खिदमत में जुटी रहती. बच्चों की धमाचौकड़ी में वह भूल जाती कि अब वह बूढ़ी हो रही है. कब सुबह हुई और कब शाम, पता ही नहीं चलता!
इन सबके पार्श्व में प्रेम ही तो था जिसके कोने में कहीं आशाओं के दीप टिमटिमाया करते हैं! जब बच्चों के स्कूल खुलने को होते, तब सुभद्रा के चेहरे पर उदासी की रेखाएँ उभरने लगती. छुट्टियाँ समाप्त होती और सबके प्रस्थान करते ही, फिर वही घटाटोप सन्नाटा, वही पीड़ और एकाकीपन उसे घेर कर बैठ जाते. मानो कहते हों, सुभद्रा तुम्हारे लिए हम हैं और तुम हमारे लिए! उम्र बेल की तरह बढ़ती रही और सुभद्रा ६५ वर्ष पार कर गई. अनीता का आना-जाना भी बंद हो गया. कभी-कभी उसे अपने इस समर्पित भाव पर क्षोभ होता, कभी हंसी आती. फिर सोचती ननद के प्रति उसका कर्तव्य है. उसे रिश्ते निभाने हैं लेकिन सीमा निर्धारित उसे ही करनी है. एक हाथ से ही कहाँ ताली बजती है! प्रेम जीवन का आधार है. यदि प्रेम ही एकांकी रह जाय या उसकी अवहेलना होती रहे तब अवसाद जन्म लेता है, बिखराव आता है और उद्विग्नता भी. यही हो रहा था उसके साथ.
यदाकदा कस्बे की हमउम्र महिलाएं घर पर मिलने आ जाती. जी हल्का हो जाता. मिल बैठकर अपने-अपने दुख दर्द बांटने का इससे अच्छा उपाय उसे कोई दूसरा नहीं लगा. सुभद्रा बहुत मिलनसार थी. कस्बे में उसे भरपूर सम्मान मिलता. सभी से प्रेम से मिलती. असहाय मिल जाते तो उनकी मदद करने से नहीं चूकती. हिसाब-किताब में भी सुलझी हुई थी वह. उसकी सबसे अधिक पटती थी लीला से. वह कस्बे के संपन्न व्यवसायी की पत्नी थी. लीला थी बहुत ही व्यवहार कुशल , सुभाषणी और सुभद्रा की शुभचिंतक. बरसों की मित्रता थी और एक दूजे के सुखदुख की सहचर. उसने सुभद्रा को कई बार बंद पड़ी दुकान खोलने का सुझाव दिया. सुभद्रा टालती रही. क्या करेगी वह इस बुढ़ापे में! पैसा है, इज्जत है, हितैषी हैं और कितना चाहिए उसे? कई दिनों के बाद एक दिन लीला अचानक घर पर आ गई.
सुभद्रा का चेहरा घने बादलों के बीच से निकलते सूरज की तरह चमचमाने लगा. वह खुशी से बोल पड़ी, ”गनीमत है आज तुझे मेरी याद आ ही गई! देख, सुभद्रा अभी जिंदा है मरी नहीं.” “बहुत व्यस्त रही इस बीच, पोता पोती के साथ. बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया था.” “अरे मैं तो मजाक में कह गई. बैठ पानी लाती हूँ, थक गई होगी.” सुभद्रा बोली तो लीला मुस्करा दी. “मेरा कहा बुरा तो नहीं लगा, अपना मानती हूँ इसीलिए कह गई. ” “नहीं रे, तू मेरी सहेली ही नहीं बहिन भी है, तू डाँटेगी भी तो सुन लूंगी,” लीला हँस दी. “तभी तो तू मेरे दिल में कुंडली डाले बैठी है.” सुभद्रा उठने का उपक्रम करती हुई बोली. लीला जोरों से खिलखिलाने लगी फिर थोड़ी देर बाद गम्भीर हो गई,” कुछ फैसला किया तूने दुकान खोलने का?” “समझ में नहीं आ रहा, एक औरत जात के लिए इस उम्र में इतनी जिम्मेदारी वाला काम! फिर चले न चले.” आजकल औरतें मर्दों से कम हैं क्या? देख, दुख पीछे देखता है लेकिन आशा हमेशा आगे देखती है. समय निकाल कर दुकान में बैठना शुरू कर वह तो सब ठीक है लेकिन भागदौड़ नहीं हो पाएगी! पहले जैसी ताकत कहाँ है अब!
“कोशिश करेगी तो सब हो सकता है. दुकान के लिए रेडीमेड गारमेंट्स मैं मंगवा दिया करूंगी अच्छा जैसी तेरी इच्छा, सुभद्रा ने सहमति में सिर हिलाया. सच कह रही है ना? चलना-फिरना करोगी तो उल्टा फायदा ही होगा, लीला ने समझाया. बातें करते करते सुभद्रा चाय भी बना लाई. लीला कुछ घण्टे उस के पास बैठ कर अपने घर चली गई. लीला का मन रखने के लिए उसने दुकान की साफ सफाई करवा दी. कुछ ही दिनों में लीला ने अपने पति से कहकर लुधियाना से होजरी का सामान मंगवा लिया. अब पुराने रैक, काउंटर इत्यादि रंग रोगन के बाद खिल उठे थे, रेडीमेड कपड़ों और रंग बिरंगी ऊनी स्वेटरों से दुकान सज गई. धीरे धीरे खरीददार भी आने लगे. उसे यह सब देख कर अच्छा लगने लगा. इस बहाने इसका आसपास के लोगों से मेल मिलाप भी बढ़ गया और मन को आनंद की जो अनुभूति मिली सो अलग. दिन ढलते लगता तो वह हिसाब किताब निपटा कर घर आ जाती. लोग उम्र के बढ़ते ही हौसला छोड़ने लगते हैं और वह हौसला जोड़ने में लग गई. लीला का सम्बल ही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी. कुछ वर्ष फिर शांति से कट गए. कस्बे के लोगों की नजर में सुभद्रा का कद और बढ़ गया. कस्बे के लोग उसके अपने ही तो थे, सुखदुख के सहचर. कस्बे के लोगों में उसे अपना परिवार सा दिखाई देता. किसी की दादी, किसी की बुआ, तो किसी की चाची, कितने सारे रिस्ते बन गए थे उसके! हाँ, एक ननद ही थी जो रिस्ता निभाने में कंजूस निकली. एक दिन अचानक निर्मल सीधे दुकान पर आ धमका. उन दिनों तबीयत ठीक नहीं थी सुभद्रा की. ननदोई की सेवा करने की क्षमता भी नहीं थी. सुभद्रा ने विवश स्वर में कहा, अनीता को साथ लाते तो तुम्हारे खाने पीने का ख्याल रखती. दुकान खुली रखना भी मेरी मजबूरी है आना तो चाहती थी लेकिन बच्चों के एग्जाम हैं. वैसे मैं शाम तक लौट जाऊँगा ऐसा भी क्या काम आ गया अचानक, सुभद्रा उसे कुरेदने लगी. एकबारगी वह झिझका, फिर धीरे से बोला, मदद चाहिए थी इसीलिए आपके पास आया हूँ कैसी मदद, मैं कुछ समझी नहीं ? सुभद्रा ने निर्मल की ओर देखा. उसकी आँखों की झिझक ने उसके अंदर का भेद कुछ हद तक उजागर कर दिया.
दो लाख रुपयों की जरूरत आ पड़ी है. अनीता ने जिद्द की कि आप से मिल जाएंगे कुछ समय के लिए सुभद्रा के होंठों पर फीकी मुस्कराहट आकर टिक गई. दुनियां में लोग स्वार्थ के लिए अपना सम्मान और प्रेम तक को ताख में रख देते हैं. सच्चा प्रेम होता उसके दुख को भी समझते, उसकी तकलीफ़ पूछते सुभद्रा का मन खट्टा हो गया लेकिन प्रेम अपनी जगह कायम था, ननदोई है आखिर. अनिता जैसी भी है, अपनी है. उसने उम्मीद से ही मेरे पास भेजा है. न दूँ तो अपनी ही नजर में गिर जाऊँगी! सुभद्रा थोड़ी पढ़ीलिखी थी. उसने २ लाख के चेक में हस्ताक्षर कर के निर्मल को पकड़ा दिए. शाम तक वह खुशी खुशी लौट गया. सब कुछ ठीक चल ही रहा था कि एक वह दिन गुसलखाने से बाहर निकलते समय फिसल गई. जांघ की हड्डी फ्रैक्चर हो गई. गनीमत थी कि गिरने की आवाज निचली मंजिल में किराएदार को सुनाई दे गई. इतवार भी था किरायेदार की छुट्टी थी. वह तेजी से ऊपरी मंज़िल में गया. दरवाजे खुले थे. उसने आसपास के लोगों की मदद से सुभद्रा को अस्पताल पहुँचाया. कई दिन अस्पताल में गुजारने के बाद वह अस्पताल से लौटी. घर में कैद हो गई थी वह. दर्द इस कदर कि उसका बाहर निकलना तो दूर वॉकर के सहारे घर के भीतर ही चल पाना कठिन होता. अनीता को भी अपना हाल बताया लेकिन कोई नहीं आया.
एक दो दिन फोन पर हालचाल पूछे थे बस! एक दिन लीला आई, दोपहर का खाना लिए. सुभद्रा बिस्तर से उठना चाहती थी लेकिन उससे उठा नहीं गया. लेटी रहो, ज्यादा हिलो डुलो मत. खाना लेकर आई हूँ, लीला बोली. क्यों कष्ट किया. पड़ोसी दे जाते हैं, बहुत ध्यान रखते हैं मेरा याद है आज तेरा जन्मदिन है. मीठा भी है, तुझे गुलाबजामुन पसन्द हैं ना? तुझे कैसे पता? वह आश्चर्यचकित होकर बोली. तूने ही तो बताया था कि मैं बसंतपंचमी के दिन हुई थी सुभद्रा हँसने लगी, जन्मदिन किसे याद है और क्या करना है याद कर के! क्यों? अपने लिए कुछ नहीं लेकिन उस दिन माँ बाप के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा! हम्म…. वह ख्यालों की दुनियाँ में चली गई. लीला कुछ सोचते हुए बोल पड़ी, सुभद्रा तेरी ननद नहीं आई तुझे देखने? उसने निराशा से गर्दन हिलाई, फोन किया था उसे. कम से कम अपने पति को ही भेज देती तो थोड़ी मदद मिलती. खैर, जो बीत गया सो बीत गया इसी बहाने अपने पराए का भेद मिल गया, सुभद्रा ने दुखी होकर लम्बी निःश्वास छोड़ी और चुप हो गई. छोड़ इन सब बातों को, चल पहले तुझे खिला देती हूँ सुभद्रा तो भीतर ही भीतर विषाद से भर चुकी थी.
लीला ने क्या कहा उसके कानों के पास से निकल गए. क्यों नहीं किसी जरूरतमंद लड़की को रख लेती अपने पास. उसका भी भला होता और तुझे भी दो रोटियाँ मिल जातीं. कौन जाने कब किसी तरह की जरूरत आन पड़े हाँ बहुत बार सोचा इस बारे में, वह भोजन शुरू करते हुए वह बोली, एक लड़की है मेरे गाँव में तो बुला क्यों नहीं लेती उसे? ठीक ही कह रही है तू सोच मत बुला ले जल्दी. कितनी उमर की होगी? होगी कोई ३०-३२ की, शादीशुदा. लड़की बहुत भोली और संस्कारी है. एक बेटा भी है ८ साल का. बेचारी की किस्मत देखो, इतने पर भी उसका पति उसे छोड़कर किसी दूसरी के साथ भाग गया ओह! बहुत बुरा हुआ उसके साथ. तू कहे तो मैं किसी को गाँव भेज दूँ? ना रे, वही आ जाती है घर पर. जब से मेरा यह हाल हुआ है कई बार आ चुकी है. कभी दूध तो कभी सब्जी दे जाती है. खाना भी पका कर खिला जाती है. गरीब है लेकिन दिल की बहुत अमीर है तभी तो कहा है कि जिसकी नाक है उसके पास नथ नहीं है और जिसके पास नहीं है उसके पास नथ है तभी एक सांवली सी युवती बच्चे के साथ दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गई. देख, जिसे सच्चे दिल से याद करो वह मिल जाता है. यही है वह जिसकी मैं बात कर रही थी. चंपा नाम है इसका, फिर उसकी तरफ देखकर सुभद्रा बोली, आ बेटी भीतर आ, बाहर क्यों खड़ी है?
बुआ, आज गाय ने दूध तो नहीं दिया लेकिन बथुआ का साग बना कर लाई हूँ कोई बात नहीं. अभी मैं खा कर ही बैठी हूँ शाम के लिए रोटी बना कर रख देती हूँ, अंदर आकर चम्पा ने कहा और फिर बेटे के सिर पर हाथ रखकर बोली, चंदू तू बाहर जाकर खेल अरे रहने दे उसे. इधर आ तुझसे काम की बात करनी है सुभद्रा ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और अपनी इच्छा उसे कह दी. फिर आशा से उसकी ओर देखकर बोली, अब बता क्या कहती है? आप मेरी बुआ जैसी है और माँ जैसी भी. गाँव में मेरा कौन है. चंदू के सहारे दिन काट रही हूँ स्कूल में भर्ती करवा देंगे यहाँ, खुश रहेगा उसकी चिंता मत कर आप हैं तो मुझे किस बात की चिंता बुआ? आपको देख देख कर माँ की कमी भी पूरी करती रहूंगी मैं थोड़ी देर बाद लीला उठी, अब मैं चलती हूँ फिर आऊंगी. तू इससे बातें कर. बहुत समझदार और प्यारी लड़की है चंपा की गाँव में इकलौती गाय थी, दूध भी कम ही देती थी. खेती के नाम पर एक छोटा टुकड़ा सब्जी उगाने के लिए, और कुछ नहीं. रोजी रोटी के लिए दूसरों के खेतों में काम मिल जाता था उसे, यही आय का मुख्य साधन भी था. पेट भरने में उसे स्वर्ग नर्क याद आ जाते. जवान थी इसलिए थक कर भी चेहरे पर शिकन नहीं आने देती. आज उसकी खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी, कस्बे में रहेगी तो चंदू की पढ़ाई भी हो जाएगी और पेट भी भरेगा. उसने हाँ करने में देरी नहीं की. एक दिन वह जरूरत का सामान लिए बेटे सहित सुभद्रा के पास आ गई. एक बड़ा सा कमरा उसे मिल गया. गाँव के मकान में ताला लटका सो लटका, उधर गाय भी विदा कर आई. कस्बा आकर उसने अपनी दिनचर्या बदल दी. सुभद्रा के कपड़े धोना.
नहाने की व्यवस्था, बिस्तर लगाना, खाना पीना, समय पर दवाई देना और रोज शरीर में तेल मालिश करना. यह काम गाँव के जीवन से कहीं आसान था उसके लिए. यहाँ असुरक्षा का भाव भी नहीं सालता था उसे. सुभद्रा उसके हाथ में जरूरत पड़ने पर पैसे धर देती. चंपा हिचकती तो कहती, बेटी, जितना तू कर रही है उतना शायद सगी बेटी भी न करे. किसके लिए रखूं यह सब. बाजार जा कपडे खरीद ले अपने और चंदू के लिए उसका बेटा कस्बे की स्कूल में जाने लगा था. वह यहाँ आकर बहुत खुश था, हमउम्र बच्चों के साथ उसका मन रम गया. अब चंपा को उसकी फीस और किताबों की चिंता नहीं थी. सुभद्रा छोटी बड़ी सभी बातों का ध्यान रखती. चंपा भी गाँव से बेहत्तर जिंदगी जी रही थी यहाँ. यही स्थिति सुभद्रा की भी थी. घर में रौनक आ गई. घीरे धीरे चंपा की सेवा सुश्रुषा ने उसे उठने बैठने लायक बना दिया. फिर तो सुभद्रा ने छोटे-मोटे काम अपने हाथों में ले लिए. कुछ साल हंसी खुशी बीत गए. सुभद्रा को अब जीवन जीने का आधार मिल गया. सुभद्रा लाठी के सहारे फिर से दुकान में जाने लगी, कभी ग्राहक कम होते तो जल्दी ही घर आ जाती. खाने पीने की उसे फिक्र नहीं थी, चम्पा चुटकियों में खाना बना कर परोस देती. सुभद्रा को घर भरापूरा लगने लगा और चंपा को लगता कि वह अपने मायके में आ गई है. बेटे की शिक्षा और जीवन यापन दोनों भली भांति चल निकले.
समय एक समान कभी नहीं रहता. उसमें भी समुद्र की तरह उतार चढ़ाव आते रहते हैं. सुख दुख दोनों अलग अलग हैं. कभी एक अपने पैर जमा देता है तो कभी दूसरा. सुभद्रा ७० साल पारकर गई. पहले से भी अशक्त होती जा रही थी सो दुकान की तरफ जाना बंद हो गया. इस बीच कुछ हमउम्र सहेलियां भी दुनियाँ छोड़ गई जिससे वह बहुत आहत हुई. सुभद्रा बिस्तर में बैठे बैठे किताबों के पन्ने पलटती, चन्दू के साथ मन लगाती और कभी अपनी सहेलियों से फोन पर बातें कर समय बिताती. कभी मन किया तो स्वभाववश अनीता को भी फोन लगा कर उसकी कुशलता पूछ लेती. उस साल सर्दी का प्रकोप बढ़ गया था. रह रह कर बादल छा जाते थे. कभी बादल मूसलाधार बरस भी जाते. दिसम्बर आते आते सामने की पहाड़ियों पर बर्फ की सुफेद चादर चढ़ने लगी थी. इस साल तकरीबन सात-आठ साल बाद ऐसी बर्फ़ देखने को मिली. रजाई से बाहर हाथ पैर निकालते ही पैर सुन्न पड़ जाते. ऐसी कड़ाकेदार सर्दियों में जरा सी लापरवाही बुजुर्गों के लिए बेहद कष्टकारी होते हैं. सांस की तकलीफ बढ़ जाती, कफ़ से छातियाँ जकड़ जाती हैं. सुभद्रा को भी कफ की शिकायत होने लगी थी. खाँसी भी उठती. छाती में दर्द भी महसूस होता. मुहल्ले में कल ही एक वृद्ध स्वास के रोगी चल बसे थे. सुभद्रा को पता चला तो वह भी अंदर से डर गई. चंपा भाँप गई. वह दैनिक कार्यों से निपट कर सुभद्रा को अधिक समय देने लगी.
बुआ इतना क्यों सोच रही हो. खाने पीने और दवाई में लापरवाही से ही खतरा बढ़ता है, आप तो ऐसा नहीं करती वो तो ठीक है पर मेरी तीन सहेलियाँ भी तो चली गई इस साल, सुभद्रा चिंतित स्वर में बोली. अरे बुआ तुम भी ना, सबका अपना अपना समय होता है. आपके साथ मैं हूँ ना…कुछ नहीं होने दूंगी, सुभद्रा की हथेलियों को सहलाते हुए चंपा ने कहा, आप पीठ से तकिया लगा लो मैं खाना परोसती हूँ पहले बच्चे को जिमा. अपने साथ उस पर भी ध्यान दिया कर चिंता न करो बुआ. साथ साथ परोसती हूँ सुभद्रा उदास होकर बड़बड़ाई, अच्छा सोचूंगी तो अच्छा ही होगा… लीला की भी चिंता खाये जा रही है, हर बार यही कहती है कि आऊंगी लेकिन अब तक आई नहीं. उसकी जरूर कोई मजबूरी होगी सुभद्रा की तबीयत खराब होने लगी थी. छाती में बलगल जमा हो गया था. खांसी और दर्द भी बढ़ रहा था. ठंड से जांघों में ऐंठन और दर्द इतना हो गया कि वह गुसलखाने तक जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी. चम्पा मेडीकल की दुकान से टॉयलेट पाट ले आई. सुभद्रा को जब जरूरत होती वह सामने खड़ी हो जाती. साफ सफाई का ध्यान देती, स्पंज करती और जरूरत पड़ने पर डॉक्टर को घर पर बुला देती. सुभद्रा ने अनीता को फोन किया और अपनी बीमारी के विषय में बताया. इस आशा से कि शायद इन दुर्दिनों में मदद ही कर दे. अनिता ने स्वास्थ लाभ हेतु कई नुस्खे ही बता डाले. 'भाभी सोते समय हल्दी वाला दूध पीना शुरू कर दो भाभी. ज्यादा ऐलोपैथिक दवाएं मत खाना, छाती में जकड़न होगी. ठंडी चीजे लेना भी बंद कर दो.' सुभद्रा सुनती रही फिर खांसते हुए धीमी आवाज में बोली, कुछ दिनों के लिए आ जाती तो? कैसे आऊं भाभी? घर में पेंटिंग का काम लगा हुआ है. ठीक हो जाओगी. शहद और सीतोपलादी चूर्ण लेती रहो और हाँ, पानी गर्म ही पीना अच्छा निर्मल को ही भेज दे कुछ दिन के लिए ओहो भाभी. तुम हमारी परेशानी नहीं समझ पाओगी. ये तो मुम्बई गए हैं काम से.
पूरे महीने भर का टूर है उसने उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ा था. अनीता के बच्चे अब छोटे नहीं रह गए हैं,उसने सोचा और खांसते हुए रुक रुक कर बोली, बेटा बेटी घर संभाल लेंगे कुछ दिन, फिर चली जाना? बच्चों पर क्या भरोसा करना भाभी, घर पर टिकें तब न. रोज का टँटा रहता है कि हम बिजी हैं अनीता ने चतुराई से अपना पल्ला झाड़ दिया. सुभद्रा ने भी दुनियाँ देखी थी सो झूठ सच भाँप गई. काम चल रहा है और घर में मर्द नहीं है! कितना सफेद झूठ है यह. उसने फोन बंद कर दिया और खांस खांस कर दोहरी हो गई. सुभद्रा के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हो रहा था. अनीता के प्रति उसकी उम्मीद किसी सूखे दरख्त की तरह टूट गई. अब उसे फोन करना ही व्यर्थ लगा. जयपुर से आना अनिता के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी. पहले भी कई बार अकेले आई है वह. इधर सुभद्रा की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती ही गई. कमजोरी भी बढ़ती जा रही थी. पड़ोसियों की मदद से चंपा ने उसे कस्बे के एक निजी अस्पताल में भर्ती करा दिया. अनीता को इसकी न जाने कहाँ से भनक लगी, वह अपने पति के साथ अस्पताल आ धमकी. दोनों हड़बड़ी में थे अस्पताल के काउंटर से पता चला कि सुभद्रा आसीयू में है.
आसीयू के बाहर पहुँचकर वहीं दोनों बेंच पर बैठ गए. तभी अंदर से विजिटिंग डॉक्टर निकाला तो अनीता उसे घेर कर खड़ी हो गई. डॉक्टर, आईसीयू में मेरी भाभी हैं सुभद्रा, वे अब कैसी हैं? फिलहाल हालत क्रिटिकल है, चेस्ट में काफी इंफेक्शन है कोई उम्मीद डॉक्टर? ओल्ड एज है इसलिए अभी कुछ कह नहीं सकते, डॉक्टर कहते हुए आगे बढ़ा तो अनीता उसके पीछे पीछे चलती हुई पुनः बोली, मिल सकती हूँ उनसे? शाम पांच बजे के बाद. ओनली वन परशन एट ए टाइम निर्मल बैंच में बैठा था. बीच की चेयर खाली थी. अनीता उसके पास जा कर बैठ गई. क्या कहा डॉक्टर ने? कंडीशन क्रिटिकल है, अनीता ने फीके स्वर में कहा और समय देखने लगी, अभी चार ही बज रहे हैं…अभी और एक घण्टा इंतजार करना पड़ेगा! मैं तुम्हें कब से कह रहा था अकेली चली जाओ लेकिन तुम्हारे भेजे में बात ही नहीं आती, निर्मल ऊंचे स्वर में बोल रहा था, बिना वसीयत लिखे चली गई तो जायजाद हाथ से चली जायेगी. तुम्हारा भाई भी दावा कर सकता है. प्रोपर्टी कौन आसानी से छोड़ता है?
तुम्ही चले जाते. मैं तो शर्म के मारे नहीं जा पाई. दो लाख लेकर आज तक तुमने नहीं लौटाए. दस साल बीत गए, अरे लाखों की जायजाद के सामने दो लाख क्या थे, अनीता गुस्से से बिफ़र गई. अब बस भी करो आसपास लोग बैठे हैं. अंदर जा कर वसीयत की बात कर लेना. यही आखरी मौका है उस समय लीला भी वहीं थी जो जैसे तैसे अपने पोते को लेकर अस्पताल आई थी. उसके कानों में दोनों के वार्तालाप पडे तो वह समझ गई कि यही अनीता है. उसे दोनों पर क्रोध आने लगा. कैसे लोग हैं! बीमार औरत को देखने आए हैं या स्वार्थ के लिए! उसे घृणा हो गई उनकी सोच से. लीला चुप न रह सकी, क्या तुम सुभद्रा की ननद हो? अनीता हड़बड़ा कर बोल पड़ी, हां जी, लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं. मैं उसकी बहन की तरह ही हूँ. कुछ माह पहले सुभद्रा ने अपनी वसीयत अपने गावँ की अनाथ लड़की के नाम कर दी है क्या! दोनों के मुंह से एक साथ निकला. अनिता का मुँह उतर गया और झल्लाहट में बोली, भाभी कम से कम एक बार तो सलाह ले लेती रजिस्ट्री भी हो गई है लेकिन जब तक जिंदा है सुभद्रा का ही हक रहेगा दोनों आवाक रह गए. उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया था. मेरे भाई की सम्पत्ति को कोई कैसे दान कर सकता है? पति के बाद संपत्ति में पत्नी और बच्चों का हक होता है.
अब वह क्या करे यह उसकी इच्छा है. सामने बैठी हुई लड़की को देख रहे हो, सुभद्रा के लिए दिन-रात एक कर दिया है उसने नौकरानी और ननद में फर्क होता है तुम नहीं समझ पाओगी. जिसे नौकरानी कहती हो वह बड़ी स्वाभिमानी है. उसने जितनी सेवा की है उसके आगे सुभद्रा की संपति का कोई मोल नहीं है छोड़िये मैं आपसे बहस नहीं करना चाहती. चलो यहाँ से निर्मल, यहाँ दम घुटने लगा है, वह बोलते बोलते बैंच से उठ खड़ी हुई. माफ़ करना तुम्हें बुरा लगा, जो सच था मैंने कह दिया, लीला ने कहा किंतु अनीता ने मुहँ फेर लिया. लीला ने चंपा पर निगाह डाली. उसकी रो-रो कर आँखें सूज गई थी. उसके सर की छत भरभरा रही थी और वह असहाय दुपट्टे से आँसूं पोंछते जा रही थी. शाम पांच बजे के बाद बारी-बारी से सुभद्रा को देखने गए. सांस लेने के उपकरण लगे होने से ठीक से बात नहीं कर पाई लेकिन इशारे में वह अपनी भावनाएं दर्शाती रही. अनीता को जो कहना था कहा लेकिन सुभद्रा के मुखमण्डल पर किसी तरह के भाव नहीं थे. चम्पा जब अन्दर गई तो उसे देखकर सुभद्रा की निश्तेज आँखों में चमक आ कर ठहर गई. वह हाथ बढ़ाकर चंपा के आंसूओं से भीगे चेहरे को थपथपाने लगी.
सुभद्रा कुछ देर के लिए सब कुछ भूल गई फिर उसे घर जाने का इशारा करने लगी. तभी वार्ड ब्वॉय आया और उस से बाहर जाने का आग्रह करने लगा. चंपा को लीला बाहर ही मिल गई और उसे अपने साथ ले गई. चंपा दुपट्टे से आंखे पोंछती हुई अनिच्छा से पीछे पीछे चल दी. उधर अनीता निराशा और उद्वेग के वशीभूत पति के साथ उसी दिन लौट गई. अगली सुबह सुभद्रा की हालत में सुधार होने लगा और शाम तक उसके चेहरे से आक्सीजन मास्क हटा दिया. दो दिन और आईसीयू में रहने के बाद सुभद्रा को सामान्य वार्ड में स्थानांतरित कर दिया गया. चंपा रोज की तरह अस्पताल आ चुकी थी. उसकी खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी. उत्साह से उसने नर्स का आधा कार्य खुद ही संभाल लिया. दोपहर को कुछ देर के लिए घर जाती और चंदू को भोजन करवाकर तुरन्त अस्पताल आ जाती. सुभद्रा की कुशल लेने वालों का तांता लग गया. कस्बे का कोई शख्स ऐसा न था जो न आया हो. अब जाकर उसे लगा कि सब कुछ होकर भी वह स्वयं को असहाय क्यों मानती रही! वह अकेली नहीं थी, उसकी सोच ही अकेली चल रही थी.
कुछ हफ्तों में सुभद्रा ठीक होकर घर आ गई. चंपा की सेवा सुश्रुषा ने उसे फिर से नया जीवन दे दिया था. अब वह काफी अच्छा महसूस करने लगी थी. चंपा ने उसकी सेहत के लिए जी जान लगा दिया था. यह सब देखकर सुभद्रा का उसके प्रति अनुराग पहले से कहीं अधिक ठाठे मारने लगा. उस ने चम्पा को अपने पास बिठाया और स्नेह से सिर सहलाते हुए बोल पड़ी, तूने बेटी और बेटे दोनों की कमी पूरी कर दी मैंने क्या किया बुआ. माँ को खोया तो उसे आपके रूप में पा लिया. कितनी भाग्यशाली हूँ मैं हाँ माँ ही हूँ बेटी…माँ ही हूँ, कहते कहते सुभद्रा सिसकने लगी. क्यों रो रही हो बुआ? मेरे लिए आपने जो किया दूसरा कभी नहीं कर पायेगा. आखिर कौन किसी पर आँख मूंद कर विश्वास करता है. मुझे रुपया-पैसा का मोह नहीं, मुझे तो आपके चरणों में थोड़ी सी जगह की इच्छा है माँ के लिए अपने बच्चों की जगह हृदय में होती है पगली. मैंने कोई पुण्य किया होगा जो तू मुझे मिली सुभद्रा स्नेह से उसे देर तक निहारती रही फिर डबडबाई आँखों को आँचल से पोंछती हुई बोली, मैं निपूती नहीं हूँ, मेरे मन आँगन की चंपा है तू और फिर अपने अंक से लगाकर उसका माथा चूम लिया!