किसान आंदोलन इस समय देश में कितने व्यापक स्तर पर मौजूद है, इस का अंदाजा लखीमपुर खीरी में किसानों के खिलाफ हुई हिंसक घटना से लगाया जा सकता है. यह आंदोलन के खिलाफ भाजपा की बौखलाहट ही है कि आंदोलन को कुचलने के लिए अब इस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं. लखीमपुर खीरी में किसानों के साथ हुए हादसे के बाद कृषि कानूनों को ले कर चल रहे किसान आंदोलन और उत्तर प्रदेश की राजनीति दोनों में बदलाव आ गया है. दिल्ली की सीमा तक सिमटा यह आंदोलन अब पूरे उत्तर भारत तक पहुंच गया है. केंद्र और उत्तर प्रदेश की जो सरकारें किसानों के मुद्दों को खालिस्तान और देशद्रोह से जोड़ रही थीं, अब वे किसानों के संगठित हो रहे आंदोलन से डर रही हैं. राज्य में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए किसान आंदोलन एजेंडा बन गया है.

रामचरित मानस में तुलसीदास ने लिखा- ‘जे सकाम नर सुनहिं जे गावहि, सुख संपत्ति नानाविधि पावहिं.’ इस का अर्थ है- ‘जो कथा के गाने और सुनने का काम करता है, उस को अलगअलग तरह से सुख व संपत्ति मिलती है.’ उत्तर प्रदेश और बिहार के ‘दोआबा क्षेत्र’ में रामचरित मानस को जोरशोर से गाया व सुना जाता है. अयोध्या और मिथिला इन प्रदेशों में ही बसे हैं. यहां के लोगों पर रामचरित मानस का पूरा प्रभाव है. यही वजह है कि गंगा और यमुना नदियों का उपजाऊ मैदान होने के बाद भी यहां की खेती किसानों को संपन्न नहीं बना पाई. यहां के रहने वाले अपनी खेती करने की जगह पंजाब और हरियाणा के खेतों में मजदूरी करने को तैयार रहते हैं. यहां के किसान बिना मेहनत के ‘सुख संपत्ति’ पाना चाहते हैं. मोदी सरकार द्वारा सुनाई जा रही किसानों की तरक्की की कहानियां सुन कर वे खुश हैं. ऐसे किसान 500 रुपए माह की किसान सम्मान निधि को ही ‘सुख संपत्ति’ समझ रहे हैं.

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वे मोदी सरकार के कृषि कानूनों के सच को समझने की जगह उन के गुणगान में लगे हैं. किसान आंदोलन को खालिस्तान और देशविरोधी साबित करने का पिछले एक साल से प्रयास हो रहा है. इस में सफलता नहीं मिली. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि पंजाब से आए किसानों ने जिस मेहनत से उत्तर प्रदेश में खेती को सम्मान से जोड़ दिया, उसे यहां की जनता और किसान दोनों देखसमझ रहे हैं. इन को देख कर उत्तर प्रदेश के किसान भी खेती को ले कर जागरूक हो रहे हैं और खेती करने के तरीके सीखने को इन के पास आते हैं. ऐसे प्रगतिशील किसानों की संख्या धीरेधीरे बढ़ रही है. ये लोग कृषि कानूनों के सच को समझने लगे हैं, जो भाजपाई सरकारों के लिए मुश्किल होता जा रहा है.

पिछड़ी जातियों के भरोसे उत्तर प्रदेश की खेती उत्तर प्रदेश में पंजाब से आए सिख किसानों के खेत और यहां के मूल किसानों के खेतों को देख लें. सिख किसानों के खेत सुंदर, व्यवस्थित और उपजाऊ दिखेंगे. बड़ी जोत होती है. उत्तर प्रदेश के किसानों में 90 फीसदी खेत उपेक्षित दिखते हैं. उत्तर प्रदेश में खेतिहर जातियों में सब से बड़ी संख्या पिछड़ी जातियों की है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट सब से अधिक खेती करते हैं. मध्य उत्तर प्रदेश में कुर्मी और पटेल जातियों के लोग खेती करते हैं. यादव राजनीतिक रूप से मजबूत होने के बाद खेती से पीछे हट गए हैं. ब्राह्मण और बनिया बिरादरी के पास खेती की जमीन बहुत कम थी. ठाकुरों के पास जमीन होती है पर वे खुद खेती करने की जगह पर मजदूरों से खेती कराते हैं. इस वजह से उन का खेतों से लगाव नहीं होता.

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आजादी के बाद जब सिख किसानों का उत्तर प्रदेश आना हुआ तो खेती करने का सलीका और मेहनत लोगों को दिखी. सिख किसानों को अपने खेत से प्रेम होता है. वे उस का बंटवारा और बेचना कुबूल नहीं करते. उत्तर प्रदेश के किसान इस मौके की तलाश में रहते हैं कि कब खेत बेच कर पैसा मिल जाए. यहां के किसान खुद खेती नहीं करते, इन के खेत मजदूर ‘बंटाई’ पर ले कर खेती करते हैं. कृषि कानूनों का समर्थन करने वाले ये किसान सोच रहे हैं कि कौर्पोरेट खेती में कंपनियां बिना किसी मेहनत के पैसे देंगी. सिख किसान मानते हैं कि कौर्पोरेट खेती किसानों के हित में नहीं है. जो किसान मेहनत नहीं करना चाहते, वही कृषि कानूनों का समर्थन कर रहे हैं. खेत बन गए पहचान जिन जगहों पर सिख किसानों ने अपने खेत बनाए, वहां का नाम और पहचान दोनों बदल गए हैं.

लखनऊ जिले में कानपुर रोड और रायबरेली रोड के बीच बनी बंथरा नामक जगह पड़ती है. यह इलाका जंगल टाइप था. यहां अब ‘गनियार फार्म हाउस’ पहचान बन चुका है. किसान दिलराज सिंह बताते हैं, ‘‘1977 में हम अपने पिताजी के साथ यहां आए थे. उस समय हमारी उम्र एक साल थी. हमारे अलावा आसपास उस समय 7-8 फार्म बने थे. अब कुछ लोग वापस पंजाब चले गए हैं. 5-6 फार्म अभी भी हैं. हम लोग धान और गेहूं की खेती ज्यादा करते हैं. इस के साथ में ही सब्जियों की खेती भी करते हैं. हमारा फार्म करीब 50 बीघे का है. खेती से हमें प्यार है. हम खेत बांटने या बेचने के पक्ष में नहीं रहते. अपने खेतों पर हम मजदूर की तरह से काम करते हैं. मजदूरों से कम से कम काम लेते है.’’ मेमेरा फार्म सरोजनीनगर, लखनऊ की एक पहचान है. तेजवंत सिंह यहां शिमलामिर्च की खेती कर के मशहूर हो गए हैं. वे कहते हैं, ‘‘हम हर तरह की खेती बाजार के हिसाब से करते हैं.

खेती की मशीनों के साथ ही साथ ग्रीन हाउस, पौली हाउस बना कर खेती करते हैं. इस के लिए मुझे कईकई बार सम्मान मिल चुका है. खेती हमारे लिए मजबूरी नहीं, हमारी पहचान है.’’ मोहनलाल गंज के भौंदरी फार्म पर टमाटर की खेती करने वाली दलजीत कौर घरगृहस्थी के काम भी करती हैं. वे बताती हैं, ‘‘हमारे यहां केवल आदमी ही नहीं, औरतें भी खेती से प्यार करती हैं. वे खेतों में भी काम करती हैं.’’ खेती के कानूनों को समझें बक्शी का तालाब के रहने वाले किसान गुरमीत सिंह कहते हैं, ‘‘जिन किसानों के पास पैदावार ज्यादा नहीं होती, उन को एमएसपी का पता नहीं है. ऐसे किसान जो अपनी फसल को बेचने के लिए मंडी नहीं जाते, उन को इस का पता नहीं होता है. ज्यादातर किसान कृषि कानून के बारे में नहीं जानते हैं. हमें किसानों को इन कानूनों का सच बताना है.

आने वाले सालों में खेती पर इन का क्या प्रभाव पड़ेगा, यह समझाना भी है.’’ मोहनलालगंज के हरिखेड़ा गांव के रहने वाले किसान राजकुमार यादव कहते हैं, ‘‘जागरूक किसान केवल खेती को ले कर ही जागरूक नहीं होते, वे कृषि कानूनों और खेती पर पड़ने वाले प्रभावों को समझते भी हैं. हमें ऐसे किसानों का साथ देने की जरूरत है. आजादी की लड़ाई के समय में भी बहुत सारे लोग अंगरेजों के कानून और व्यवस्था को सही मान रहे थे. गांधीजी ने ऐसे लोगों को गुलामी और आजादी के बीच के अंतर को बताया था.’’ मोहनलालगंज के ही हुलासखखेड़ा के किसान संतराम रावत धान, गेहूं, सरसों और मेंथा की खेती करते हैं. उन का कहना है, ‘‘कृषि कानूनों की आड़ में केंद्र सरकार किसानों को प्राइवेट कंपनियों का गुलाम बनाना चाहती है. आने वाले समय में खेती सब से बड़ा बिजनैस होने वाला है. कौर्पोरेट कंपनियों के आने से किसान बेबस और लाचार हो जाएंगे. कृषि कानूनों को अब किसान समझ रहे हैं.

यही कारण है कि अब यह चुनावी मुद्दा बनने लगा है.’’ किसान आंदोलन बना चुनावी मुद्दा उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में 4 किसानों की कुचल कर हत्या करने और सिख किसानों को खालिस्तानी कहने के बाद भी किसान आंदोलन रुकने वाला नहीं है. उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार दोनों के लिए किसान आंदोलन ‘गुड़ भरा हसिया’ हो गया है. इस को खाना खतरनाक है व बाहर निकालना और भी ज्यादा खतरनाक सबित होगा. सरकार को लग रहा है कि किसान मुआवजा पा कर चुप हो गए हैं या अपने कदम पीछे खींच चुके हैं तो यह सरकार की गलतफहमी है. संयुक्त किसान मोरचा ने बड़ा ऐलान करते कहा कि तिकोनियां (खीरी) में शहीद किसानों की अस्थियां देशभर में जाएंगी. मोदी और शाह के पुतले फूंके जाएंगे.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक महापंचायत होगी. किसानों के इस ऐलान के बाद सरकार के हाथपैर फूल रहे हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों के आंदोलन को संभालने के लिए पुलिस और प्रशासन के बहुत ही जिम्मेदार व काबिल अफसरों की टीम तैयार की. जो किसान आंदोलन को संभालने का काम कर रही है. पुलिस की छुट्टियां रद्द हो गईं. केवल लखीमपुर खीरी को संभालने के लिए 10 बड़े अफसर काम कर रहे हैं. किसानों को थार कार से कुचलने के आरोपी केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा को जेल भेज दिया गया. अजय मिश्रा की आलोचना पार्टी संगठन के नेता भी करने लगे. भाजपा प्रदेश अध्यक्ष स्वंत्रत देव सिंह ने कहा,

‘‘किसी को लूटने या फौर्च्यूनर से कुचलने के लिए राजनीति नहीं करनी चाहिए.’’ अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने अजय मिश्रा मामले में उबल रहे गुस्से को कम करने के लिए यह बात कही. केंद्रीय मंत्री किसानों को उकसा कर, आंदोलन को हिंसक बना कर उस को कुचलने की योजना में थे. किसान नेता राकेश टिकैत ने बेहद समझदारी का परिचय देते हुए हिंसा की घटना पर दो कदम पीछे खींचे और किसान आंदोलन का दमन होने से बचा लिया. किसान का मुद्दा केवल उत्तर प्रदेश के नहीं, पंजाब और उत्तराखंड के चुनावों पर भी असर डालेगा. वरिष्ठ पत्रकार विमल पाठक कहते हैं, ‘‘लखीमपुर खीरी में किसानों के शहीद होने की घटना ने उत्तर प्रदेश के चुनाव का एजेंडा तय कर दिया है.

‘किसान आंदोलन’ चुनावी मुद्दा बन गया है. 10 अक्तूबर को वाराणसी में कांग्रेस की ‘किसान न्याय यात्रा’ में जिस तरह की भीड़ देखने को मिली, उस से यह साफ दिख रहा है कि किसानों का मुद्दा अब 2022 के विधानसभा चुनाव का मुख्य एजेंडा बन गया है. ‘‘बिहार के चंपारण से बनारस तक की ‘किसान सत्याग्रह यात्रा’ ने उत्तर प्रदेश सरकार की बेचैनी को बढ़ा दिया है. दिल्ली में किसान आंदोलन को भाजपा सरकार ने किसान सम्मान निधि और किसानों को ले कर दूसरी योजनाओं के जरिए कमजोर करने का काम किया था. जबकि, लखीमपुर खीरी की घटना ने आग में घी डालने का काम कर दिया है.’’ गांधी के सत्याग्रह की राह पर टिकैत 26 जनवरी को लालकिले की घटना और 3 अक्तूबर को लखीमपुर खीरी की घटना ने किसान आंदोलन को हिंसक बनाने का काम किया. वैसे देखा जाए तो शुरू से ही किसान आंदोलन गांधी के सत्याग्रह व अहिंसा के रास्ते पर बढ़ा है.

राकेश टिकैत ने लखीमपुर खीरी पर समझदारीभरा कदम उठाया. देश की आजादी की लड़ाई में भी ऐसे फैसले लिए गए थे. 4 फरवरी, 1922 को गोरखपुर जिले के चौरीचौरा नामक जगह पर आंदोलनकारियों ने पुलिस स्टेशन पर आग लगा दी थी. 22 पुलिस वाले मारे गए थे. देश की आजादी के लिए सत्याग्रह आंदोलन चलाने वाले महात्मा गांधी ने इस हिंसा के विरोध में असहयोग आंदोलन को रोक दिया था. कोई भी आंदोलन जब हिंसक हो जाता है तो उस पर नियंत्रण करना सरकार के लिए सरल हो जाता है. 26 जनवरी को दिल्ली में लालकिले की घटना से किसानों की लड़ाई कमजोर हुई. लखीमपुर में भी यही साबित करने का प्रयास किया जा रहा था कि पहल किसानों की तरफ से हुई है. घटना के तमाम वीडियो यह दिखाते हैं कि पहले किसानों को कार से कुचला गया.

उस के बाद किसान हिंसक हुए. किसान का यह रूप आगे न बढ़े, इस कारण किसान नेता राकेश टिकैत ने सरकार की बातें मान लीं. इस के बाद भी किसानों का शांतिपूर्ण आंदोलन और भी तेजी से चलता रहा. इस के अलावा कई तरह से किसानों के मुद्दे को रखने का काम हो रहा है. जैसेजैसे चुनाव करीब आएंगे, सरकार के लिए हालात चुनौतीपूर्ण होते जाएंगे. दिल्ली-पंजाब सीमा से बाहर पहुंचा आंदोलन किसान संयुक्त मोरचा के बैनर तले बिहार और उत्तर प्रदेश के 35 इलाकों से गुजरने वाली किसान सत्याग्रह यात्रा को भी जनता का समर्थन मिला. यह माना जा रहा है कि किसान सत्याग्रह यात्रा का वैसा ही प्रभाव उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा जैसा प्रभाव अंगरेजों के खिलाफ साल 1917 में चंपारण आंदोलन से पड़ा था.

2 अक्तूबर से 20 अक्तूबर के बीच चंपारण से वाराणसी तक की किसान सत्याग्रह यात्रा बहुत अहम है. 1917 में महात्मा गांधी ने बिहार के चंपारण में नील की खेती करने वालों के अधिकार के लिए एक आंदोलन चलाया था. किसान सत्याग्रह यात्रा मोदी सरकार के 3 कृषि कानूनों के खिलाफ निकली. किसानों ने पूछा कि तीनों कृषि कानून कब तक वापस होंगे? एमएसपी पर कानूनी गारंटी क्यों नहीं मिल रही? इस यात्रा में कोरोना, महंगाई, अपराध और बेरोजगारी के मुद्दे पर भी सवाल किए गए. इस सत्याग्रह मार्च का मकसद किसानों में जागरूकता पैदा करना था. सत्याग्रह करने वालों में किसानों के संयुक्त किसान मोरचा से जुड़े 42 संगठनों ने हिस्सा लिया. लखीमपुर खीरी में हुए किसानों के नरसंहार के विरोध में सत्याग्रह करने वालों ने अपनी बांहों पर काली पट्टी बांध कर विरोध प्रदर्शन किया.

किसान केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा को बरखास्त करने की मांग कर रहे थे. किसानों का मानना है कि 27 सितंबर के अभूतपूर्व ‘भारत बंद’ से डर कर मोदीयोगी सरकारों ने लखीमपुर खीरी में हिंसा कर के आंदोलन को खत्म करने का कुचक्र रचा था. किसान नेताओं की समझदारी से इस को टाल दिया गया. किसान नेता मानते हैं कि आजादी के बाद देश में यह सब से बड़ा आंदोलन है. किसान सालोंसाल इस लड़ाई को लड़ता रहेगा. जब तक तीनों कृषि कानून वापस नहीं होंगे, आंदोलन चलता रहेगा. अब यह आंदोलन दिल्ली और पंजाब से बाहर निकल चुका है. लखीमपुर खीरी की घटना ने किसान आंदोलन को और मजबूत कर दिया है.

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