सैकड़ों आंखें उसे एकटक निहार रही थीं. उन सभी आंखों से छलकते खारे पानी को वह अपनी आंखों में महसूस कर रही थी. रुलाई फूटने से पहले उस का गला भर आया. वह बोलना चाह रही थी पर शब्द उस के गले में बर्फ की तरह जम गए थे. जमे हुए वे शब्द ही तरल हो कर जब आंखों की राह बहने लगे तो फिर उन्हें थामना मुश्किल हो गया.

अपने आंसुओं को रोकने के लिए उस ने पूरी ताकत लगा दी. वह चाह रही थी कि अपना आखिरी संवाद पूरा कहे. अक्षर उस के मस्तिष्क में पालतू कबूतरों के झुंड की तरह उड़ रहे थे. उसे महसूस हो रहा था कि वह उन्हें पकड़ सकती है पर वह बोल क्यों नहीं पा रही? बस 5-7 पंक्तियां ही तो हैं. उसे बोलना ही होगा, यह बहुत जरूरी है.

अभिनेत्री ने पूरी शिद्दत से अपनी रुलाई रोकी. एक बार जो शब्दों को हवा में उछालना शुरू किया तो फिर वह बोलती ही गई. वह समझ नहीं पा रही थी कि जो संवाद उस के लिए तय थे, वही बोल रही है या दूसरे. बस, वह बोले जा रही थी.

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अपनी भूमिका समाप्त होते ही वह चित्रवत खड़ी हो गई. धीरेधीरे प्रकाश उस पर कम से कमतर होता चला गया और पूरी रंगशाला में अंधकार छा गया. वह मंच से भागी. अब वह जी भर कर रोना चाह रही थी, सचमुच रोना. दौड़ कर वह रंगमंच के पिछले हिस्से में चली गई. दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

कुछ पल के बाद उसे लगा कि तालियों की गूंज से सारी रंगशाला हिल उठी हो. वहां बेतहाशा शोर मच रहा था और रंगमंच के परदे के पीछे की एक कोने में बैठी अभिनेत्री की आंखों का पानी रुक नहीं पा रहा था.

अचानक दरवाजे पर थापें पड़ने लगीं, ‘‘प्रीताजी…प्रीताजी बाहर आइए, दर्शक आप से मिलने को बेताब हैं.’’

वह उठना नहीं चाह रही थी. दरवाजा लगातार भड़भड़ाए जाने से झुंझला सी गई. जोर से चीखी, ‘‘क्या है, मैं पोशाक तो बदल लूं.’’

‘‘बस, कुछ देर की ही बात है, कृपया आप जल्द बाहर आइए.’’

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हार कर उसे दरवाजा खोलना पड़ा और अचानक उस छोटे से कमरे में भीड़ का सैलाब उमड़ आया. लोग उसे बधाइयां देने लगे, ‘‘क्या बात है, कैसा स्वाभाविक अभिनय था! आप ने तो सभी को रुला ही दिया.’’

‘‘क्या आप नाटक में सचमुच रोती हैं?’’ एक बच्चे ने जब उस से पूछा तो उस ने मुसकरा कर बच्चे का गाल थपथपा दिया.

‘कैसी अजीब जिंदगी है, उस का मन तो अब भी रोना चाह रहा है पर उसे जबरन मुसकराना पड़ रहा है,’ वह सोच रही थी.

‘रोना और हंसना तो अभिनय के बड़े स्थूल रूप हैं. सूक्ष्म मनोभावों को सहजता से चेहरे पर लाना उतना ही मुश्किल है जितना आंधी में उड़ते हुए पत्तों को बटोरना.’ इसी तरह की बहुत सारी बातें रविशेखर उस से किया करता था. उसे याद आया कि कितना तनावग्रस्त रहता था वह हर समय. रिहर्सल, पटकथा, पोस्टर, लाल रंग, सौंदर्यशास्त्र, वेशभूषा और न जाने क्याक्या? बस, हमेशा नाटक के बारे में ही सोचता रहता था.

घनी दाढ़ी, खादी का कुरता, अधघिसी जींस, गले में रुद्राक्ष की माला, कंधे पर खादी का थैला यानी विचित्र सा स्वरूप था रविशेखर का. बोलता तो बोलता ही जाता और चुप रहता तो घंटों ‘हूंहां’ ही करता रहता. अपनेआप को कुछ अधिक समझने की आदत तो थी ही उसे.

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प्रीता नाटकों में अभिनय करेगी, यह तो उस ने कभी सोचा भी न था. सब कुछ अचानक ही हुआ.

उसे याद आया, एक दिन सांझ को रविशेखर उस की मां के सामने आ खड़ा हुआ था. कहने लगा, ‘चाचीजी, आप के पास बड़ी उम्मीदों से आया हूं. 4 दिन बाद हमारे नाटक का मंचन होना है. जो लड़की उस की हीरोइन थी, परसों उसे लड़के वाले देखने आए. जब उन्हें पता चला कि लड़की नाटकों में हिस्सा लेती है तो कहने लगे कि हम नहीं चाहेंगे कि हमारी होने वाली बहू नाटकवाटक करे. बस, उस के घर वालों ने उसी वक्त से उस के थिएटर आने पर रोक लगा दी. 2 दिन जब वह रिहर्सल में नहीं आई तब मुझे पता लगा. अब आप के पास आया हूं. मेरे जीवन का यह महत्त्वपूर्ण नाटक है. निमंत्रणपत्र बंट चुके हैं. अब सबकुछ आप के हाथों में है. अगर प्रीताजी को आप आज्ञा दे दें तो मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा,’ कहतेकहते वह भावुक हो उठा था.

प्रीता जब चाय बना कर लाई तब यही बातें चल रही थीं. रविशेखर का प्रस्ताव सुन कर वह एकदम ठंडी पड़ गई. ठीक है, कालेज में वह गाना गाती रही है, पर नाटक. गाने और अभिनय करने में तो बेहद फर्क है.

मां ने तो यह कह कर पल्लू झाड़ लिया कि अगर प्रीता चाहे तो मुझे कोई एतराज नहीं. उस ने भी रविशेखर से साफ कह दिया था कि न तो उस ने कभी अभिनय किया है और न ही वह कर सकती है. तब कैसा रोंआसा हो गया था वह. कहने लगा, ‘यह सब आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए.’

उस के बाद बचे 4 दिनों में 5-5, 6-6 घंटे रिहर्सल चलती रही. एक से संवादों को बारबार बोलतेबोलते वह तो उकता सी गई.

शुरूशुरू में तो वह समझ ही नहीं पाई कि नाटक के प्रदर्शन के बाद जो तालियां बजी थीं उन में से आधी उसी के लिए थीं. लोग लगातार उसे मुबारकबाद दे रहे थे. रविशेखर की आंखों में सफलता के आंसू चमक रहे थे. परंतु प्रीता स्वयं समझ नहीं पा रही थी कि आखिर उस ने किया क्या है? नाटक ही कुछ ऐसा था जो उस की जिंदगी से बेहद मेल खाता था.

इस नाटक में एक ऐसी युवती की कहानी थी जो अपने पिता और मां के अहं के टकराव में ‘शटलकौक’ बनी हुई थी. इस पाले से उस पाले में उसे फेंका जा रहा था. कुछ तमाशबीन उस खेल को देख रहे थे और एक निर्णायक उस तमाशे का फैसला दे रहा था. जिंदगी के असली नाटक में शटलकौक प्रीता स्वयं थी और दर्शक के रूप में उस के रिश्तेदार व मातापिता के पारिवारिक मित्र थे.

अंतर सिर्फ यह था कि मंच पर खेले गए नाटक का अंत सुखद था. जिस युवती का अभिनय उस ने किया था वह अपने प्रयासों से अपने मातापिता को मिला देती है. पर वास्तविक जिंदगी में कितनी ही कोशिशों के बाद प्रीता अपने मातापिता को एक नहीं कर पाई थी.

कभीकभी वह सोचती कि ये लेखक यथार्थ पर नाटक लिखते हैं तो फिर उस का अपना यथार्थ और उस नाटक का अंत इतना उलट क्यों? कहां खुशी के आंसू और कहां जीवन भर का अवसाद. कभी प्रीता को लगता कि यह जीवन रंगमंच ही तो है. इतने सारे पात्र, हरेक पात्र की अपनी पीड़ा, हरेक पीड़ा की अपनी कहानी, हर कहानी का अपना अंत और हर अंत के अपने परिणाम.

पर कितना खुदगर्ज निकला रविशेखर. जब तक उसे प्रीता की जरूरत थी, कैसा भावुक बना रहा. रिहर्सल में वह अकसर पहले आ जाती थी क्योंकि उस का रोल हमेशा बड़ा रहता था. वह उस के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में भर कर थरथराते स्वर में कहता, ‘प्रीता, तुम्हारा संग रहा तो हम राष्ट्रीय स्तर पर जा पहुंचेंगे.’

उस नितांत भावुक व्यक्ति की बातें शुरूशुरू में तो प्रीता को बेहद सतही लगतीं पर धीरेधीरे ये संवाद उसे भले लगने लगे. रवि के संग प्रीता ने कई नाटक किए. वह निर्देशक रहता और प्रीता नायिका. बूढ़ी, ब्याहता, पागल युवती, विधवा, अभिसारिका, तनावग्रस्त प्रौढ़ा, हंसोड़, बिंदास आदि न जाने कितनेकितने चरित्रों को उस ने मंच पर जिया.

एक दिन रविशेखर खुशी में झूमता हुआ मिठाई का बड़ा सा डब्बा ले कर उन के घर आया और बोला कि उसे फाउंडेशन की छात्रवृत्ति मिल गई है. फिर वह उस बेमुरव्वत हवाईजहाज की तरह अमेरिका उड़ गया, जिसे ‘रनवे’ पर लगी उन बत्तियों से कोई सरोकार ही नहीं होता,  जिन की मदद से वह आसमान में परवान चढ़ता है.

रविशेखर के अमेरिका जाने के बाद उसे सहारा देने को कई हाथ बढ़े. पर तब तक प्रीता तरहतरह की भूमिकाएं और विभिन्न कलाकारों के संग रिहर्सल और शो करतेकरते जान चुकी थी कि हाथों की थरथराहट का मतलब क्या होता है. उंगलियों के दबाव और हथेली की उष्णता के विभिन्न अर्थ उस की समझ में आ चुके थे. एक कुशल अदाकारा की तरह मंच पर हीर बन कर प्रेमरस में डूबी नायिका रहती तो नेपथ्य में उसी रांझा को न पहचानने का अभ्यास भी उसे हो गया था.

पर बारबार उसे लगता कि उसे पुरुष की जरूरत है. ऐसे पुरुष की जो उस के मस्तिष्क में उमड़ते विचारों को बांध सके, ऐसे पुरुष की जो उस की अभिव्यक्ति के सैलाब को सही दिशा दे सके. वह बिजली बन कर उस पुरुष के आकाश में चमकना चाहती थी. वह चाहती थी कि एक ऐसा संपूर्ण पुरुष जो उसे नारीत्व की गरिमा प्रदान कर सके.

उन्हीं दिनों सुकांत आया. अचानक धूमकेतु की तरह मंच पर वह प्रकट हुआ. सुदर्शन, चमकीली आंखें, लंबी नाक, खिला हुआ रंग. बोलता तो बोलता ही चला जाता, फ्रायड से राधाकृष्णन तक, यूजीन ओ नील से अब्दुल बिस्मिल्लाह तक और अंडे की सब्जी से अरहर की दाल तक. पर इस का अर्थ यह नहीं कि उसे इन सब बातों के बारे में जानकारी थी.

शुरूशुरू में जब इतने सारे भारीभारी नाम सुकांत ने उस के सामने बोलने शुरू किए तो वह सहम सी गई. इतना पढ़ालिखा, इतना प्रखर. पर धीरेधीरे वह जान गई कि जैसे कुछ लोगों को दुनिया के सारे देशों की राजधानियों के नाम रटे होते हैं, पर उन से पूछा जाए कि एफिल टावर कहां है तो जवाब नहीं बनता, सुकांत भी कुछकुछ इसी किस्म का था. पर वह उसे अच्छा लगने लगा. शायद इसलिए कि सुकांत की बातों से उसे एहसास होता कि वह बहुत भोला है.

रविशेखर प्रतिभाशाली था, पर उतना ही खुदगर्ज. कभीकभी वह रविशेखर और सुकांत की तुलना करने लगती तो सुकांत उसे भोला, सुंदर और थोड़ाथोड़ा मूर्ख लगता. अभिनय का शौक सुकांत को भी था, पर वह फिल्मी दुनिया में जाने को उतावला था. उस के मनोहर रूप और लंबेचौड़े व्यक्तित्व से उसे लगने लगा कि सुकांत जरूर हीरो बनेगा.

एक दिन नवंबर की एक शाम की हलकीहलकी ठंड में सुकांत ने उस के दोनों हाथों को अपनी गरम हथेलियों में भर के विवाह का प्रस्ताव रख ही दिया तो वह इनकार न कर सकी.

दूर के ढोल सुहावने होते हैं. सुकांत की जो बेवकूफियां विवाह से पहले उसे हंसातीं और गुदगुदाती थीं, अब वही असहनीय होने लगीं. बातबात में वह उस से अपनी तुलना करने लगता. सुकांत को मंच पर नाटक करने में कोई रुचि नहीं थी. वह थिएटर का इस्तेमाल सीढ़ी की तरह करना चाहता था.

उस के बहुत कहने पर एक बार उन दोनों ने एक नाटक में अभिनय किया. सुकांत ने उस नाटक में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया, पर बधाई देने वाले प्रीता के इर्दगिर्द ही ज्यादा थे. उस दिन से सुकांत कुछ अधिक ही उखड़ाउखड़ा रहने लगा. उस के बाद वह जानबूझ कर उन अवसरों को टालने लगी, जब उसे और सुकांत को एकसाथ अभिनय करना होता.

एक बार थिएटर में उस के नए नाटक का प्रदर्शन था. एक गूंगी लड़की की भूमिका उसे करनी थी. उस के हिस्से में संवाद नहीं थे, पर इतने दिनों के अनुभव से वह जान गई थी कि आंखों और चेहरे की भावभंगिमा से कैसे मन की बात कही जाती है. संयोग ही था कि यह सब उस ने एक गूंगी लड़की से ही सीखा था. उस की पड़ोसन रजनी की एक ननद सुनबोल नहीं पाती थी. कितनी प्यारी लड़की थी वह. उस के संग वह घंटों बातें करती रहती, पर बात जबान से नहीं, आंखों और हाथों से होती थी.

गूंगी लड़की के अद्भुत किरदार को निभाने के बाद तो वह मंच की रानी ही बन गई. कितनी सारी तालियां, कितना सम्मान, कितना स्नेह उसे एकसाथ मिल गया था. उस ने सोचा, सुकांत आज बेहद खुश होगा, पर नेपथ्यशाला से निकल कर वह बाहर आई तो सुकांत उसे कहीं नहीं दिखा. हार कर नाटक के निर्देशक विनय उसे स्कूटर से घर छोड़ने आए थे.

घर में अंधेरा था. घंटी बजाने पर सुकांत ने दरवाजा खोला. चढ़ी आंखें, बिखरे बाल.

‘‘क्या तुम्हारी तबीयत खराब है, सुकांत?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तुम ने नाटक देखा?’’

‘‘हां, आधा.’’

‘‘पूरा क्यों नहीं?’’

‘‘प्रीता, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

सुकांत की आवाज सुन कर वह सहम गई. वह कुछ बोल नहीं पाई.

‘‘प्रीता, क्या तुम थिएटर छोड़ नहीं सकतीं?’’

वह हतप्रभ रह गई कि सुकांत उस से कह क्या रहा है. उसे अपने कानों पर अविश्वास हो रहा था कि क्या सुकांत ने जो शब्द कहे वे उस ने सही सुने थे. वह फटीफटी आंखों से सुकांत को देख रही थी. उसे लगा कि सुकांत की आंखों में भी वही भाव हैं जो तब रविशेखर की आंखों में रहे थे, जब उस ने छात्रवृत्ति मिलने पर अमेरिका जाने की खबर सुनाई थी.

जानते हुए भी कि सुकांत का उत्तर क्या होगा, वह उस से पूछना चाह रही थी कि क्यों, आखिर क्यों? पर शब्द उस के कंठ में फंस गए. वह न उन्हें उगल सकती थी और न निगल सकती थी. एक दर्द का गोला उस के दिल से उठा और चेतना पर छाता चला गया.

बंद कमरे में फंसी, खुले आकाश में उड़ने को छटपटाती, तेज घूमते पंखे से टकराई चिडि़या सी वह धड़ाम से फर्श पर गिर कर तड़पने लगी.

 

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