लेखिकागायत्री ठाकुर

रुसो ने वर्ष 1762 में लिखी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एमिल’ (Emile)  में एक काल्पनिक बालक एमिल की शिक्षा व उस की भावी पत्नी सोफी की शिक्षा कैसी होनी चाहिए, इस का वर्णन किया था. रुसो जहां लड़कों की शिक्षा में स्वतंत्रता, निर्भीकता, स्वच्छन्दतापूर्वक प्रकृति में विचरण करने देना, अपनी मनमरजी का कार्य करने देने के पक्ष में थे, वहीं लड़कियों की शिक्षा परिवार की चारदीवारी के भीतर माता द्वारा करने के पक्ष में थे. उन्होंने एक काल्पनिक पात्र सोफी की शिक्षा के माध्यम से लड़कियों की शिक्षा के बारे में अपने विचार रखे था जो इस तरह हैं:

‘सोफी को अपने भविष्य के पति की दासी, मित्र, प्रेमिका बनने योग्य शिक्षा देनी है. स्त्री का धर्म अपने पति की सेवा करना और उसे प्रसन्न बनाए रखना है. स्त्री को पुरुष के आगे झुकने के लिए बनाया गया है. वह उस की दासी और सेविका है. यदि पति उस पर अत्याचार करे, तो भी वह अनुचित नहीं…’

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रुसो की स्त्री के संबंध में यह अवधारणा पितृसत्तात्मक समाज की थी जो आज के समाज के लिए मान्य नहीं होनी चाहिए. इस संदर्भ में मुझे एक घटना याद आ रही है. बात कुछ वर्षों पहले की है जब मैं वर्तमान झारखंड राज्य के एक शहर चाईबासा में थी. मेरी सहेली, जिस का घर स्कूल के पास ही था, अकसर छुट्टी के बाद जिद कर के मुझे अपने घर ले जाया करती थी, जहां उस की दादी उस के साथ रहती थी. उस की दादी हाईस्कूल की टीचर थी. उस की दादी के कमरे तरहतरह की पुस्तकों से भरे होते थे जिन्हें उत्सुकतावश कभीकभार उलटपलट कर मैं देख लिया करती थी.

एक दिन अचानक मेरी नजर एक किताब पर पड़ी. उस पुस्तक का शीर्षक ‘आदर्श स्त्री’ था जिस में स्त्रियों का आचरण कैसा होने चाहिए, उन का व्यवहार कैसा होना चाहिए आदि सबकुछ लिखा हुआ था. उस पुस्तक में लिखा था- ‘एक स्त्री को पुरुष को सदैव आनंद देने वाली होनी चाहिए, उसे अपना परमेश्वर समझना चाहिए, उस की सभी बुराइयों को मन में छिपा कर रखनी चाहिए इत्यादिइत्यादि. बहुत सारी बातें एक आदर्श स्त्री के गुणों को ले कर लिखी हुई थीं.

उस की दादी, जोकि पढ़ीलिखी अध्यापिका थी, अकसर हमें उन्हीं बातों का उपदेश सुनाया करती, जैसे उंची आवाज में बातें मत करो. यह लड़कियों को शोभा नहीं देता; जोर से मत हंसो, लड़कियों को जोर से नहीं हंसना चाहिए आदि. ये सभी उपदेश ठीक वैसे ही होते जो उन की उस पुस्तक में लिखे हुए थे.

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ठीक इसी प्रकार का एक अन्य उदाहरण मैं ने अपने एक रिश्तेदार के घर में देखा. एक दिन जब मैं उन के घर गई थी तो मैं ने देखा, मेरी वे रिश्तेदार बहुत दुखी और उदास लग रही थीं. उन की आंखें बता रही थीं कि वे काफी समय से रो रही थीं. बहुत पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें उन के पति द्वारा डांट और फटकार पड़ी है, क्योंकि रोटी उन के पति के हिसाब से  पतली  नहीं बनी थी. मैं ने पूछा कि आप ने इस का विरोध क्यों नहीं किया, तो जो जवाब मिला उसे सुन कर मैं दंग रह गई.

साइंस के किसी सब्जैक्ट में पीएचडी कर रही मेरी उन रिश्तेदार ने कहा कि औरतों को

पति को जवाब नहीं देना चाहिए, साथ ही, उन्होंने मुझे एक छोटी सी पुस्तिका को पढ़ कर सुनाया. एक स्त्री को, पति को सभी सुख देने वाली होनी चाहिए, उसे अपने पति को अपना स्वामी समझना चाहिए इत्यादि जैसी कितनी ही बातें स्त्रीधर्म को समझाते हुए उस पुस्तक में लिखी गई थीं, जो एक शिक्षित महिला के सोचनेसमझने की शक्ति को ग्रहण लगाने के लिए काफी थीं.

इन दोनों उदाहरणों में एक पढ़ीलिखी अध्यापिका एवं दूसरी साइंस सब्जैक्ट से पीएचडी कर रही महिला है, परंतु बावजूद इस के, इन के सोचनेसमझने की शक्ति व सवाल करने की क्षमता को इस तरह के दकियानूसी उपदेश के माध्यम से नष्ट कर दिया गया. ऐसी और भी बहुत सी महिलाएं मिल जाएंगी जिन की चुप्पी सिर्फ इसलिए है क्योंकि धार्मिक शिक्षा के तहत उन्हें पति को परमेश्वर मानना सिखाया गया है और यही एक शिक्षा उन की सारी डिग्री पर भारी पड़ जाती है.

हमारा संविधान यह अधिकार देता है कि  हम स्वेच्छा से बिना किसी दबाव, डर अथवा प्रलोभन के अपनी इच्छानुसार धर्म को अंगीकार कर सकते हैं. हमें इस की स्वतंत्रता प्रदान की गई है. प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म, उपासना में विश्वास चुनने का अधिकार है. यहां डर और बल का प्रयोग कर कोई भी किसी को किसी भी तरह की उपासना, पूजापाठ, कर्मकांड आदि के लिए बाध्य नहीं कर सकता.

लेकिन, धार्मिक पूजापाठ के नाम पर बिकने वाली कुछ पुस्तिकाओं में लिखी गई इन चंद पंक्तियों पर एक नज़र डाल कर देखें जो स्त्री के मन में अनावश्यक डर पैदा करने के अंदाज में होती हैं, जैसे  जो नारी व्रत वाले दिन भोजन करती है वह दरिद्रता को पाती है, सदा शोक में डूबी रहती है, नरक में जाती है  इत्यादि. ये व इन के आलावा अनेक प्रकार की अन्य तर्कविहीन बातें कथाकहानियों के माध्यम से लिखी गई होती हैं जो स्त्री विशेष के मन में भय उत्पन्न कर सकें.

ऐसी पुस्तिकाएं बाजार में मिल जाएंगी जो पूजापाठ के नाम पर एक लिंग विशेष को डराने का काम वर्षों से करती आ रही हैं. इन में से कुछ तो प्रलोभन दिखाने वाली व्रत कथाएं भी हैं जिन में लिखा होता है- अमुक व्रत को करने से लौटरी लग जाती है, अमुक व्यक्ति ने यह व्रत किया तो उसे हीरा मिल गया, फलांने की कन्या का रंग काला था इस व्रत को किया तो उस की शादी हो गई, फलांने व्यक्ति का खोया हुआ धन वापस मिल गया इत्यादि. अंधविश्वास फैलाने वाली बातें जो किसी भी स्त्री के मन पर गहरा असर छोड़ती हों, उन के सोचनेसमझने की शक्ति को खत्म कर सकती हों, उन की वैज्ञानिक चेतना के विकास में रुकावट बन सकती हों जैसी बातें इन में लिखी होती हैं.

महिलाओं के मन में भय उत्पन्न कर उन के सोचनेसमझने की शक्ति को क्षीण करने वाली धर्म के नाम पर न जाने कितनी ही ऐसी सस्ती किताबें बाजार में उपलब्ध हैं. उन की वैज्ञानिक सोच के विकास में रुकावट पैदा करने वाली ऐसी किताबें बाजार में सिर्फ 20-30 रुपए में आसानी से मिल जाती हैं.

स्त्रियों की वैज्ञानिक चेतना के विकास को अवरुद्ध करने में इन धार्मिक पत्रिकाओं का बहुत बड़ा हाथ है. वे चाहे जितना भी पढ़लिख जाएं, धर्म उन की चेतना को विकसित नहीं होने देता. उन की तार्किक सोच को खत्म कर देता है. दूसरी तरफ उन्हें ठगने का कार्य भी जारी रहता है, जैसे ब्राहमण को स्वर्ण अथवा गौ दान करने से स्त्रियां सभी पापों से मुक्त हो जाती हैं. ऐसी तर्कविहीन बातें उन के दिलोदिमाग में डाल कर उन्हें मानसिक गुलामी की ओर धकेला जाता है. उन की आंखों में पट्टी बांध दी जाती है. अफगानिस्तान औरतों के मुखर होने, स्वतंत्र विचारों का होने, शिक्षित होने पर चिढ़ता है जबकि भारत में शिक्षित महिलाओं के मन को भी दकियानूसी खयालों से भर दिया जाता है.

अफगानिस्तान हो या हिंदुस्तान, धार्मिक कट्टरता का शिकार महिलाएं ही होती हैं. धर्म अपना निशाना महिलाओं को ही बनाता है. वह कभी नहीं चाहता महिलाएं सवाल करें, तर्क करें. इसलिए धर्म उन के मन में डर भर देता है. वह कभी नहीं चाहेगा कि महिला वैज्ञानिक तरीके से सोचे क्योंकि विज्ञान तर्क करना सिखाता है. धर्म हमेशा औरत को नियंत्रित करने की कोशिश करता है. इस के लिए वह उस के मन में डर पैदा कर उसे कमजोर बनाए रखने की कोशिश में लगा रहता है. और उस कमजोर मन में अंधविश्वास की भूमि तैयार करता है ताकि दासत्व का बीज अंकुरित हो सके और वह पुरुष प्रधान समाज के बनाए दायरे से बाहर न जा सके. उस की बेड़ियों को तोड़ने में कामयाब न होने पाए.

स्त्रियां चाहे कितनी भी उच्च से उच्च शिक्षा प्राप्त कर लें, कितने भी बड़े ओहदे पर पहुंच जाएं परंतु धर्म उन की सोचनेसमझने के ताकत को अवरुद्ध कर ही देता है. इस का एक बहुत बड़ा उदाहरण यूपीएससी परीक्षा की टौपर महिला, आईएएस अधिकारी,  टीना डाबी की हाल की एक घटना, जिस का विडियो सोशल मीडिया पर दिखा था, से प्रमाणित होता है कि कैसे वह एक पोंगा पंडित की शरण में जा कर बैठ जाती है जब वह श्रीगंगानगर के जिला परिषद के सीईओ के पद का कार्यभार ग्रहण करने के लिए जाती है. वह वहां एक आडंबर व ढोंग का शिकार हो जाती है. वह अपने ही दफ्तर में प्रवेश करने से पहले हाथ जोड़ कर खड़ी रहती है और तब तक अंदर नहीं जाती जब तक पंडित वैदिक मंत्र उच्चारण से पूजा नहीं करा देता.

वह महिला प्रशासनिक अधिकारी, जिस ने शायद अपनी काबीलियत, अपनी बौद्धिक क्षमता के बल पर यह स्थान प्राप्त किया था, एक पोंगापंथी की इजाजत पर ही अंदर जाती है. यहां धर्म ने उस के विवेक को भी बौना कर दिया. वह तब तक हस्ताक्षर नहीं करती जब तक शुभमुहूर्त नहीं होता. वह शुभमुहूर्त देख कर ही हस्ताक्षर करती है.

वहीं की एक पत्रिका में छपी खबर के अनुसार,  यूपीएससी परीक्षा की टौपर आईएएस टीना डाबी ने आखिरकार बुधवार को कार्यभार ग्रहण कर लिया. वैदिक मंत्रोच्चार के बीच बाकायदा औफिस में प्रवेश करने से पहले रिबन भी काटा गया. शुभमुहूर्त दोपहर सवा बारह बजते ही कार्यभार ग्रहण करने के समय दस्तावेज पर साइन किए.

वह आईएएस टौपर महिला जो कितनी ही महिलाओं को वैज्ञानिक चेतना पर चलना सिखा सकती थी, खुद ही अंधविश्वास के चक्कर में उलझी है. उस ने तो संविधान भी पढ़ा होगा लेकिन फिर भी वह अपने सरकारी दफ्तर में यह सब करती है जो शायद उस दृष्टि से भी अनुचित था. यहां देखने वाली बात यह है कि एक उच्च पद पर आसीन महिला की आंखों पर भी धर्म ने अपनी पट्टी बांध दी. उस की तार्किक सोच पर धर्म ने अपना अंकुश लगा ही दिया, तभी तो वह शुभमुहूर्त देख कर हस्ताक्षर करती है.

अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के बावजूद महिलाएं अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करतीं. वे अंधविश्वासों में उलझ कर रह जाती हैं और धर्म उन के ज्ञान पर परदा डाल ही देता है. एक अन्य उदाहरण देखें, एक अत्यंत ही हाईप्रोफाइल शिक्षित कही जाने वाली सोसाइटी में किसी के

घर में रामचरितमानस का पाठ हो रहा था. उस में किसी दफ्तर में उच्च अधिकारी के पद पर तैनात महिला से ले कर हाउसवाइफ कही जाने वाली महिलाएं सभी मौजूद थीं. सभी एक कतार में बैठ कर रामचरितमानस का पाठ कर रही थीं.

उस के एक प्रसंग में यह लिखा हुआ था- ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना

के अधिकारी.’  सभी यह पाठ बिना सोचेसमझे, भक्तिभाव में डूब कर लयपूर्वक गा रही थीं. यहां समझने वाली बात यह है कि खुद को शिक्षित कहने वाली इन महिलाओं का ध्यान इस वाक्य पर क्यों नहीं गया? क्यों श्रद्धाभाव में डूब कर लगभग झूमती हुई यह पाठ करती रहीं? क्या इन की शिक्षा ने इन में सोचनेसमझने की शक्ति को विकसित नहीं किया था? शिक्षा के आधार पर उपस्थित उन महिलाओं में कुछ कम पढ़ीलिखी या कुछ ज्यादा पढ़ीलिखी हो सकती हैं परंतु

यहां शिक्षा उन के विवेक के विकास में कहां तक सफल हुई?

यह सोचने वाली बात है कि खुद को शिक्षित कहने वाली इन महिलाओं का ध्यान खुद को
अपमानित करने वाले इस शब्द पर नहीं जा सका. इस वाक्य को श्रद्भाभाव में डूब कर और लगभग झुमती हुई वे यह पाठ करती रहीं तो क्या शिक्षा ने इन के सोचने की, समझने की शक्ति को विकसित नहीं किया था?

खुद को शिक्षित कहने वाली ये महिलाएं खुद को ताड़ना के अधिकारी कहे जाने पर सवाल नहीं पूछतीं, बल्कि भक्तिभाव में डूब जाती हैं क्योंकि धर्म ने इन के विवेक पर परदा डाला हुआ होता है. और इसलिए, ये सवाल करने की जगह खुद के लिए अपमानित शब्दों के प्रयोग पर भी चुप रहती हुईं उन्हें अमृत समझ कर श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लेती हैं. खुद को पशु और वस्तु के समकक्ष रखे जाने पर सवाल नहीं करतीं. वे खुशीखुशी इस बात को स्वीकार कर लेती हैं कि वे ताड़ना (पिटाई) की अधिकारी हैं. उन का स्वामी यानी उन का पति उन्हें प्रताड़ित कर सकता है क्योंकि धार्मिक संस्कार ने उन्हें उस का दासी बनाया है और पति परमेश्वर होता है.

वे तो, बस, रूसो के काल्पनिक पात्र ‘एमिल’ की ‘सोफी’ ही हैं. उन की शिक्षा, बस, पुरुषों की सेविका बने रहने में है. धर्म बड़ी ही आसानी से उन की सोच को वैज्ञानिक और तार्किक होने से बचा लेता है. ताड़ना का अलगअलग अर्थ लगाया जाता है परंतु यहां इस का एक ही अर्थ है, वह है- ‘प्रताड़ित करना, पिटना.’ क्योंकि, यही एक अर्थ है जो इन पांचों (ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी) के लिए अर्थप्रयोग की दृष्टि से उपयुक्त ठहरता है.

रुसो की स्त्री के लिए सुझाई गई शिक्षा व्यवस्था में स्त्रियों को दासी, सेविका बनाने की उस की अवधारणा, पितृसत्तात्मक समाज की थी परंतु आज 2वीं शताब्दी में भी उस की वही अवधारणा हम किसी न किसी रूप में ढो रहे हैं. आज की महिला शिक्षित हो रही है. वह डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस एवं अध्यापिका के पद पर भी पहुंच रही है. परंतु उस की सोचनेसमझने की शक्ति पर परदा डाला जा रहा है. उस की वैज्ञानिक चेतना को अवरुद्ध कर पुरुष समाज आखिरकार उस

काल्पनिक पात्र  एमिल की सोफी  ही बनाए रखना चाहता है. उसी एक अवधारणा को धर्म किसी न किसी माध्यम से बड़ी ही चालाकी से साकार करता आ रहा है. वह उसे उस काल्पनिक पात्र एमिल की सोफी ही बनाए रखना चाहता है.

आज महिलाएं 21वीं सदी में सांसें ले रही हैं, सो, जरूरत है कि वे अपनी आंखों पर बंधी इस अंधविश्वास की पट्टी को उतार फेंकें तथा अपनी वैज्ञानिक चेतना का विस्तार करें- सवाल करना सीखें, तर्क करना सीखें. उन की शिक्षा  एमिल की सोफी  होना नहीं, बल्कि सही अर्थो में शिक्षित होने के लिए है जो उन्हें अंधविश्वासी न बनने दे.

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