लेखक- भारत भूषण श्रीवास्तव और रोहित सिंह

 सबकुछ वैसा ही दिख रहा और दिखाया जा रहा है जैसा एक आदर्श और परंपरागत दीवाली पर होना चाहिए. मसलन, देश रोशनी से नहाया हुआ है, गुलजार बाजारों में चहलपहल है, रियल एस्टेट में बूम आया हुआ है, औटो मोबाइल सैक्टर की बल्लेबल्ले हो रही है, सराफा बाजार पर लक्ष्मी बरस रही है, इलैक्ट्रौनिक्स के आइटम खरीदने के लिए भीड़ टूटी पड़ रही है, कपड़े की दुकानों में पांव रखने की जगह नहीं है और धनतेरस पर जम कर बरतनों की खरीदारी होने की संभावना है वगैरहवगैरह.

दिखाने के इन दांतों से परे खाने के दांतों की बात करें तो इस दीवाली आम लोगों का मूड उखड़ाउखड़ा सा है क्योंकि सब की जेबें खाली हैं, इसलिए उन के चेहरों पर पहले सी खुशी और मन में उत्साह नहीं है. एकदूसरे को देने को जबां पर शुभकामनाएं हैं पर मन में एक सफेद झूठ बोलने का गिल्ट भी है. आतिशबाजी के बहिष्कार या उस के कम चलाने को प्रोतसाहित इसलिए नहीं किया जा रहा कि उस से कोई ध्वनि प्रदूषण की चिंता किसी को सताने लगी हो बल्कि इसलिए कि यह उन मदों में से एक है जिन में कटौती करना मजबूरी हो चली है. मिठाई से शुगर यानी डायबिटीज होने की दलील लोग देने लगे हैं तो सहज समझा जा सकता है कि हम दीवाली मना नहीं रहे हैं, बल्कि मनाने का स्वांग कर रहे हैं.

भार बना त्योहार -

ये वे लोग हैं जिन्हें मध्यवर्गीय कहा जाता है और जिन की तादाद 20 फीसदी के लगभग है. बाकी बचे 75 फीसदी, जो गरीब यानी लक्ष्मीविहीन हैं, के लिए तो दीवाली पैसे वालों का तमाशा और देखनेभर का त्योहार होता है. बचे 5 फीसदी, वे पैसे वाले उच्चवर्ग और उच्चमध्यवर्गीय लोग हैं जिन के लिए हर रात दीवाली होती है. इन्हीं से बाजारों में रोनक है जिस का गाना गाया जा रहा है.

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