लेखक- भारत भूषण श्रीवास्तव और रोहित सिंह
सबकुछ वैसा ही दिख रहा और दिखाया जा रहा है जैसा एक आदर्श और परंपरागत दीवाली पर होना चाहिए. मसलन, देश रोशनी से नहाया हुआ है, गुलजार बाजारों में चहलपहल है, रियल एस्टेट में बूम आया हुआ है, औटो मोबाइल सैक्टर की बल्लेबल्ले हो रही है, सराफा बाजार पर लक्ष्मी बरस रही है, इलैक्ट्रौनिक्स के आइटम खरीदने के लिए भीड़ टूटी पड़ रही है, कपड़े की दुकानों में पांव रखने की जगह नहीं है और धनतेरस पर जम कर बरतनों की खरीदारी होने की संभावना है वगैरहवगैरह.
दिखाने के इन दांतों से परे खाने के दांतों की बात करें तो इस दीवाली आम लोगों का मूड उखड़ाउखड़ा सा है क्योंकि सब की जेबें खाली हैं, इसलिए उन के चेहरों पर पहले सी खुशी और मन में उत्साह नहीं है. एकदूसरे को देने को जबां पर शुभकामनाएं हैं पर मन में एक सफेद झूठ बोलने का गिल्ट भी है. आतिशबाजी के बहिष्कार या उस के कम चलाने को प्रोतसाहित इसलिए नहीं किया जा रहा कि उस से कोई ध्वनि प्रदूषण की चिंता किसी को सताने लगी हो बल्कि इसलिए कि यह उन मदों में से एक है जिन में कटौती करना मजबूरी हो चली है. मिठाई से शुगर यानी डायबिटीज होने की दलील लोग देने लगे हैं तो सहज समझा जा सकता है कि हम दीवाली मना नहीं रहे हैं, बल्कि मनाने का स्वांग कर रहे हैं.
भार बना त्योहार –
ये वे लोग हैं जिन्हें मध्यवर्गीय कहा जाता है और जिन की तादाद 20 फीसदी के लगभग है. बाकी बचे 75 फीसदी, जो गरीब यानी लक्ष्मीविहीन हैं, के लिए तो दीवाली पैसे वालों का तमाशा और देखनेभर का त्योहार होता है. बचे 5 फीसदी, वे पैसे वाले उच्चवर्ग और उच्चमध्यवर्गीय लोग हैं जिन के लिए हर रात दीवाली होती है. इन्हीं से बाजारों में रोनक है जिस का गाना गाया जा रहा है.
मिडिल क्लास की कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की अपनी अलग परिभाषाएं हैं. दीवाली के मद्देनजर देखा जाए तो तमाम त्योहारी औपचारिकताएं इसी मिडिल क्लास के हिस्से में ही आती हैं और वही सही मानो में बड़ा उपभोक्ता और ग्राहक है. इस दीवाली पर संकट में यही मध्यवर्ग है जो घरों की रंगाईपुताई तक नहीं करवा पा रहा है यानी हाथ खींच कर खर्च कर रहा है.
इस समीकरण को बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से आसानी से समझा जा सकता है जिन से दीवाली आधी फीकी हो रही है. दो टूक कहा जाए तो दीवाली पर दिल खोल कर एकमुश्त खर्च करने वाला यह वर्ग अब पैसा फूंकफूंक कर खर्च कर रहा है क्योंकि पिछले साल कोरोना के कहर और लौकडाउन ने उसे तगड़ा झटका दिया है. सरकार की नीतियां और फैसले भी उस के हक में नहीं रहे हैं. रोजमर्रा के आइटमों के बढ़ते दाम तो उस की जेब पर डाका डाल ही रहे हैं पर पैट्रोलडीजल की बढ़ती कीमतें तो हर दिन उसे यह एहसास कराती हैं कि पैसा ज्यादा खर्च हो रहा है और बचत न के बराबर हो रही है.
इस वर्ग, जो अर्थव्यवस्था को मोटेतौर पर खुद की आर्थिक स्थिति से तुलना करते समझता है, ने मन मार कर फैसला ले लिया है कि मिठाई आधा किलो ही काफी है, नए कपड़े खरीदना कोई बाध्यता नहीं है, बच्चे जिद करें तो भी पटाखे हजार रुपए से ज्यादा के नहीं खरीदना है. कुछ खरीदने की रस्म निभाने के नाम पर भी 5-10 हजार रुपए से ज्यादा खर्च नहीं करना है क्योंकि दीवाली के बाद महीने के बाकी 26 दिन भी पैसा खर्च होना है. लक्ष्मीपूजन भी सस्ते से सस्ते में निबटाना है. सार यह है कि जैसेतैसे दीवाली मन जाए, तो भार हटे.
दीवाली दिल से कम, पैसों से ज्यादा मनती है. लेकिन महंगाई का आलम यह है कि पैट्रोल 110 और डीजल 100 पार हो गया है. खाने का तेल 200 रुपए प्रतिलिटर है और नमक तक 25 रुपए हो गया है. दालों के भाव भी आसमान छू रहे हैं. आटा और चावल भी क्रमश 35 और 50 रुपए प्रतिकिलो हैं. इन से भी ज्यादा अहम गैस सिलैंडर 998 का आ रहा है जो 7 साल पहले 420 रुपए का था. ये सब आम गृहिणियों की दीवाली की मिठास को खटास में बदल रहे हैं.
भोपाल के नयापुरा इलाके की एक गृहिणी कल्पना अचारकाटे कहती हैं, ““यह दीवाली बहुत महंगी और भारी पड़ रही है. पति की पगार 24 हजार रुपए महीना है. अगर पूरी कंजूसी से भी मनाएंगे तो पूरी तनख्वाह भी कम पड़ रही है. कोई बड़ी चीज खरीदने की बात तो हम सोच भी नहीं सकते. पटाखे, मिठाई, पकवान, सजावट, दीये, पूजा का सामान और बिजली की लड़ों का खर्च ही 10 हजार रुपए बैठ रहा है.
“बच्चों के कपड़े 3-4 हजार के पड़ रहे हैं. घर की रंगाईपुताई अभी खटाई में है क्योंकि 6 हजार रुपए तो मकान का किराया ही देना है. किराने का सामान, दूध, बिजली और पानी का बिल, बच्चों के स्कूल की फीस जैसे जरूरी खर्चों में तो कटौती की कोई गुंजाइश ही नहीं. ऐसे में कैसे खींचतान कर बुझे मन से दीवाली मन रही है, यह मैं ही जानती हूं.”
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भुखमरी में दीवाली
कल्पना जैसी गृहिणियों की परेशानियों से इतर आईएमएफ यानी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था धीरेधीरे सामान्य तो हो रही है लेकिन महंगाई पर ध्यान देने की जरूरत है. लेकिन सरकार कह रही है कि महंगाई दर पहले के मुकाबले ठीक हुई है. सरकार की यह कागजी बात लोगों को हजम नहीं हो रही है. ऐसे में शुभलाभ की कामना और भावना की उम्मीद एक बेकार की बात है.
यह भी कोई संयोग नहीं कि देश में भुखमरी की समस्या हाल के सालों में तेजी से बढ़ी है बल्कि लगातार गिरती अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी के चलते कोई 70 फीसदी लोगों के पास खाने तक के लाले पड़ गए हैं. यह तबका दीवाली पर घर की देहरी के बाहर दोचार दीये रख अगले दिन के खाने की चिंता में डूब जाता है. यह कोई इत्तफाक नहीं है कि देश में भुखमरी तेजी से बढ़ी है.
गिरती अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी के चलते लोगों को खाने तक के लाले पड़ गए हैं. ग्लोबल हंगर इंडैक्स 2021 की लिस्ट के मुताबिक, भारत में भुखमरी की स्थिति पहले से भी ज्यादा भयावह हो गई है. 116 देशों की लिस्ट में भारत 101वें नंबर पर आ गया है जबकि पिछले साल वह 94वें नंबर पर था.
ग्लोबल हंगर इंडैक्स रिपोर्ट में भारत को अलार्मिंग हंगर श्रेणी में रखा गया है जो भुखमरी के मामले में पाकिस्तान, नेपाल और बंगलादेश से भी पिछड़ गया है. इस लिस्ट में भारत के बाद अफगानिस्तान, पापुआ, नाईजीरिया और कौंगो जैसे गरीब व पिछड़े देश शामिल हैं. फिर किस बल पर विश्वगुरु बनने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, यह सभी के सोचने का विषय है.
गरीब तबके के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दे कर सरकार फौरीतौर पर बदहाली ढक तो सकती है लेकिन कोई स्थायी उपाय कर पाने में नाकाम है या फिर उस की नीयत में ही खोट है. क्योंकि हाल में प्रसारित हुए ग्लोबल हंगर 2021 की रिपोर्ट में भारत अपने पड़ोसी गरीब देशों से इस मामले में पीछे है.
दरअसल, सरकार की मंशा यह जताने की ज्यादा है कि गरीबी पिछले जन्मों के पापों की देन है और वह इस दैवीय सजा में कोई दखल नहीं दे सकती. इस बढ़ती भुखमरी की चिंता और उसे दूर करने के उपाय कौन करेगा, इस पर सोचने की जहमत कोई नहीं उठाता. यह हालत सोचने को मजबूर करती है कि लक्ष्मी चंद लक्ष्मीपतियों पर ही क्यों मेहरबान रहती है.
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अमीरों पर करम
पूंजी का असमान वितरण अर्थशास्त्र पढ़ने वाले बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते हैं लेकिन इस गुत्थी को सुलझा नहीं पाते कि खासतौर से विकासशील अर्थव्यवस्था में अमीर और अमीर और गरीब और गरीब क्यों होता जाता है? अब न समझने वाली नई बात यह भी इस में शामिल होती जा रही है कि मध्यवर्ग क्यों तेजी से निम्नवर्ग में शिफ्ट होता जा रहा है? मुमकिन है हम तेजी से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में लीन होते जा रहे हैं. इसे समझने के लिए हालिया कुछ आंकड़ों पर गौर करें तो हैरत यह जानकर होती है कि अमीरों की तादाद भी बढ़ रही है लेकिन उस की शर्त यह है कि जब 20 लाख लोग नए गरीब बढ़ेंगे तब एक अरबपति बढ़ेगा.
हुरून इंडिया रिच लिस्ट 2021 कहती है कि भारत के 119 शहरों में एक हजार करोड़ रुपए या उस से ज्यादा पूंजी वालों के पास संचित संपत्ति में 51 फीसदी की बढ़ोतरी हुई जबकि औसत संपत्ति में 25 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. इस वक्त देश में 237 अरबपति हैं, जबकि पिछले साल इन की तादाद 179 थी.
इस लिस्ट के मुताबिक, भारतीय अरबपति मुकेश अंबानी 7 लाख 18 करोड़ रुपए की जायदाद के साथ सब से अमीर व्यक्ति हैं. पिछली दीवाली सोशल मीडिया पर वायरल हुआ एक मीम लोगों ने चटखारे ले कर देखा था जिस में देवी लक्ष्मी मुकेश अंबानी के सामने हाथ जोड़े खड़ी हैं और कह रहीं हैं कि बेटा, अब तो मेरी पूजा बंद कर, मुझे और भी जगह जाने दे.
इस व्यंग्य के अपने माने हैं कि पैसा चंद मुट्ठियों में कैद होता जा रहा है. इस की दूसरी बेहतर मिसाल एक और उद्योगपति गौतम अडानी हैं, जिन की संपत्ति एक साल में 4 गुना बढ़ी है. पहले यह 1.40 लाख करोड़ रुपए थी, अब 5.05 लाख करोड़ रुपए है. अपने विभिन्न कारोबारों से अडानी ग्रुप को रोजाना 1 हजार करोड़ रुपए का मुनाफा होता है. इन दोनों और इन के जैसे 2 दर्जन लक्ष्मीपतियों पर सरकार की मेहरबानी और हुक्मरानों से अंतरंग संबंध अकसर विवादों और चर्चाओं में रहते हैं.
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कोरोना से बने करोड़ों
इस दीवाली उन घरों में सन्नाटा रहेगा जिन में कोरोना से कोई मौत हुई है. आमतौर पर भारत में परंपरा रही है कि किसी भी घर मौत हो जाती है, तो तीजत्योहारों में खुशियों पर सीधा असर पड़ता है. यह एक मानवीय कृत्य भी समझा जा सकता है.
भारत में कोरोना से मरने वाले लोगों का गैरसरकारी आंकड़ा 40 लाख आंका गया है. यानी, यह दिखाता है कि तकरीबन 2 करोड़ लोग फीकी दीवाली मनाएंगे. घरों में न कोई शोशा होने वाला है, न लड़ीझड़ी, धूमधड़ाका. उन के नजदीकी सगेसंबंधी भी दीवाली मनाने के नाम पर एक रस्म सी अदा करेंगे.
कोरोना के कहर ने कई को कंगाल कर दिया है. लेकिन कुछ ने इस पर भी जम कर चांदी काटी है. मोदीकाल की तारीफ करने वाले साइरस पूनावाला का नाम हर किसी को रट गया है, जिन की वैक्सीन बनाने वाली कंपनी सीरम इंस्टिट्यूट की संपत्ति पिछले एक साल में 74 फीसदी बढ़ी. आपदा में अवसर इसी को कहते हैं. जहां देश के लोग कंगाल हुए वहीं इन्होंने आपदा को अवसर में बदल खूब पैसा समेटा.
ब्लूमबर्ग की हालिया लिस्ट के मुताबिक, कोरोनाकाल में दुनिया के सब से 25 रईस परिवारों ने जी भर कर पैसा कमाया. इन में एक चर्चित नाम योगगुरु बाबा रामदेव का भी है जिन की कंपनी पतंजलि ने कोरोनिल नाम की दवा बेच कर ही खरबों रुपए कमाए थे. यह और बात है कि कोरोनिल, दरअसल, कोरोना पर प्रभावी थी ही नहीं लेकिन इसे कोरोना की दवा कह कर ही बेचा गया था और सरकार इस पर खामोश रही थी. पिछले साल दीवाली तक पतंजलि का मुनाफा 250 करोड़ रुपए पार कर गया था जिस का इस दीवाली दोगुना होने की उम्मीद है.
इन कुछ उदाहरणों से साबित यह होता है कि लक्ष्मी नहीं, बल्कि सरकार मेहरबान हो, तो आप गोबर बेच कर भी करोड़पति बन सकते हैं, शर्त यह है कि आप को क्रूर और संवेदनहीन होना पड़ेगा, लोगों को ठगना पड़ेगा और ऐसा इफरात से हो भी रहा है.
पूंजी के इस असमान वितरण से अब शायद ही कोई काल मार्क्स पैदा हो जो इस के नुकसान गिना और बता सके. किसी आर्थिकसामाजिक क्रांति की आस पालना भी मूर्खतापूर्ण खयाल है क्योंकि दौर भ्रांतियों और धार्मिक आडंबरों का है जिस का मुकाबला नहीं किया जा सकता क्योंकि अधिकतर मुख्यधारा वाले लोग सरकार की गलत और भेदभावभरी नीतियों का विरोध करने के बजाय उन का प्रचार कर रहे हैं. बाबजूद यह समझने के कि ये नीतियां उन्हें श्रीहीन और उन की आने वाली पीढ़ी को बेरोजगार बना रही हैं.
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हैप्पी बेरोजगारी
महंगाई की मार के बाद तेजी से बढ़ती बेरोजगारी दीवाली को फीका कर रही है. सीएमआईई (सैंटर फौर मानिटरिंग इंडियन इकोनौमी) की ताजी रिपोर्ट के मुताबिक, औपचारिक और अनौपचारिक दोनों सैक्टरों के 15 लाख से भी ज्यादा लोगों ने अकेले अगस्त के महीने में अपनी नौकरियां गंवा दी थीं.
देश में कुल बेरोजगारों की संख्या गिनना भेड़ के बाल गिनने जैसी बात है लेकिन आईएलओ यानी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक यह बहुत साफ है कि देश में बेरोजगारी की औसत दर 47 फीसदी है. इसे सरलता से समझने के लिए सीएमआईई के इस आंकड़े पर नजर डालें कि आबादी के मुताबिक देश में कामगारों की तादाद 63 करोड़ होनी चाहिए जबकि यह है कुल 39 करोड़ यानी 24 करोड़ लोग बेरोजगार हैं. इन में भी युवाओं की तादाद सब से ज्यादा है.
यह बहुत चिंताजनक आंकड़ा है जिस की चिंता किसी को नहीं. ये लोग दीवाली कैसे मनाएंगे जिन की जेब में अपनी फूटी कौड़ी भी नहीं. असल में ये बेरोजगार असंगठित हैं और इन के असंगठित रहने के इंतजाम भी करने वालों ने कर रखे हैं. ये लोग कोई आंदोलन नहीं करते, रोजगार का अपना हक सरकार से नहीं मांगते.
इन में से अधिकतर को देश की एक काल्पनिक चिंता का भागीदार बना लिया गया है. यह चिंता धर्म और देश पर मंडराते उस खतरे की है जिस का कोई वजूद ही नहीं. जैसे मध्यवर्ग थोड़े से में खुश है वैसे ही ये फांके करते एक अदृश्य काल्पनिक दुश्मन से लड़ रहे हैं. और जो इनेगिने लोग हकीकत समझ रहे हैं, वे बेबस हैं और हैप्पी दीवाली के बजाय हैप्पी बेरोजगारी सैलिब्रेट कर रहे हैं. इन का कोई भविष्य नहीं है.
कायदे से तो अब तक बेरोजगारी को ले कर हाहाकार मच जाना चाहिए था. सरकार की पेशानी पर बल पड़ जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. तो इस की अपनी वजहें हैं.
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वजह है धर्म
न केवल बेरोजगार, बल्कि खासे कमातेखाते लोग भी समझौतावादी हो रहे हैं तो उस की सब से बड़ी वजह धर्म और उस का होहल्ला है, जिस के शोर में मुद्दे नीचे कहीं दब कर रह गए हैं. इन लोगों को रोज सुबह से ही एहसास करा दिया जाता है कि धन तो कभी भी कमा लेंगे लेकिन धर्म गया, तो हाथ में कुछ नहीं रह जाएगा.
देश में नए उद्योग नहीं डल रहे, फैक्ट्रियां नहीं बन रहीं. लेकिन मंदिर इफरात से बन रहे हैं. पुराने मंदिरों को चमकाया जा रहा है और सरकार धड़ाधड़ अपनी कंपनियां और संपत्तियां लक्ष्मीपतियों को बेच रही है क्योंकि पैसा उस के लिए हाथ का मैल है.
यह पैसा जा कहां रहा है, इस सवाल का जबाब साफ है कि इस का बड़ा हिस्सा घूमफिर कर उद्योगपतियों की तिजोरियों और पंडेपुजारियों की जेब में जा रहा है जो दिनरात लोगों को उल्लू बनाने का सनातनी काम पूरी लगन व ईमानदारी से कर रहे हैं. किसी भी शहर में चले जाएं, भागवत कथा के दोचार तंबू तने मिल जाएंगे.
दीवाली व्यापारियों का भी त्योहार है. इस दिन बहीखाते बदले जाते हैं. सालभर के नफानुकसान का हिसाबकिताब लगाया जाता है. इस दीवाली व्यापारियों में भी खास उत्साह नहीं है क्योंकि छोटे और मंझोले व्यापार सिमटते जा रहे हैं. मीडिया जो रौनक दिखा रहा है उस का मकसद खुद अपने व्यापारिक स्वार्थ हैं क्योंकि उन के चैनल पर किसी बड़ी कंपनी के धमाका सेल का विज्ञापन तभी चलेगा जब वो लोगों को बताएं कि इस त्योहार में सभी खुश हैं, बाजार चमक रहे हैं और लोग खरीदारी कर रहे हैं. पर हकीकत में बाजार सूने हैं. लोग जरूरतभर की खरीदारी कर रहे हैं. अधिकतर जेब की मोटाई पहले देख रहे हैं, फिर कटौती कर के ही सामान ले रहे हैं.
कोरोना के कहर के बाद भी पिछली दीवाली कैट यानी ‘कंफैडरेशन औफ आल इंडिया ट्रेडर्स’ के मुताबिक, दुकानदारों ने 72 हजार करोड़ रुपए का सामान बेचा था. इस साल क्यों मायूसी है, इस का मुकम्मल जवाब दीवाली के बाद ही मिलेगा. लेकिन यह बात साफ है कि पिछले साल लोगों की जेब में पैसा था और कोरोना के कहर के चलते लोग बौखलाहट में जमापूंजी खर्च कर रहे थे. लौकडाउन से उपजा अवसाद भी उन्हें पैसा खर्च करने को उकसा रहा था. और लोग इस अवसाद व नीरस जीवन से तंग आ बाहर निकल खर्च करने को लालायित थे.
तब धर्म का कारोबार थोड़े दिनों के घाटे के बाद फिर पटरी पर आ गया था, जो अब सरपट दौड़ रहा है. सालभर धर्म और उस के पाखंडों का जम कर प्रचार हुआ है. खुद सरकार भी इस में शामिल है. अयोध्या ब्रैंड दीवाली इस की बेहतर मिसाल है जहां पिछली दीवाली की तरह इस दीवाली भी करोड़ों रुपए फूंके जा रहे हैं. रामलीलाएं हो रही हैं और शहर को दुलहन की तरह सजाया जा रहा है.
इस बार सरकार अयोध्या में साढ़े 7 लाख दीये जलाएगी जो पिछले साल से 2 लाख ज्यादा हैं. उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं, ऐसे में अयोध्या की दीवाली और मंदिर को भव्य बनाने का मकसद लोगों को यही जताना है कि धर्म है, तो सबकुछ है और धर्मरक्षा की जिम्मेदारी भाजपा ही निभा सकती है.
अंधभक्तों की जो फौज 7 साल पहले खड़ी हुई थी उस से ज्यादातर लोग अलिखित इस्तीफा दे चुके हैं. लेकिन बचेखुचे 4-5 करोड़ रोजाना हिंदुत्व और धर्म की लड़ाई लड़ रहे हैं. इन का पसंदीदा काम मुसलमानों के प्रति नफरत और उन का काल्पनिक डर फैलाना है.
ये लोग नहीं चाहते कि आम लोग खुद की और देश की असल समस्याओं से कोई वास्ता रखें, अगर वास्ता रखेंगे तो भगवा गैंग की पोल खुल जाएगी कि उसे मुद्दों से कोई सरोकार नहीं. वह तो एक मुहिम के तहत काम कर रही है और आरएसएस के इशारे पर फैसले ले रही है. हाल त्रेता और द्वापर युग जैसा है जिन में राजा धर्मपरायण हो कर ऋषिमुनियों के इशारे पर नाचता रहता था.
इस नाचने के तहत वह मठ मंदिर बनवाता था, ब्राह्मणों को खजाना खोल कर दानदक्षिणा देता था, ऊंची जाति वालों के बच्चों के अध्ययन के लिए गुरुकुल खोलता था, गौशालाएं बनवाता था और बचे वक्त में यज्ञहवंन वगैरह संपन्न कराता रहता था. इस से समाज का निचला तबका, जिसे वर्णव्यवस्था में शूद्र करार दिया गया है, दबा रहता था. आज के कथित लोकतांत्रिक युग में भी यही सब नए तरीके से हो रहा है जो हर कभी दिखता भी रहता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों, जो अब प्रवचन ज्यादा लगते हैं, में देश की एकजुटता, सांस्कृतिक गौरव और 140 करोड़ लोगों के धैर्य की सराहना करते नजर आते हैं. वे अब पहले की तरह भारत को दुनिया की सब से बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं बताते तो यह उन की मजबूरी भी हो चली है क्योंकि देश का हाल और अधिकतर लोगों का उखड़ता मूड अब उन से भी छिपा नहीं रह गया है और अगर छिपा है तो उन्हें अपने सलाहकारों और गुप्तचरों पर ध्यान देना चाहिए जो इनाम के लालच में दिनरात उन के कानों को खुश करने में लगे रहते हैं.
‘मोदी जैसा शेर पहले कभी पैदा नहीं हुआ यारो, इस की हिम्मत मत टूटने देना, नहीं तो देश टूट जाएगा.’ जैसी भड़काऊ और बहकाऊ पोस्टों से सोशल मीडिया भरा पड़ा रहता है. इसीलिए डाटा सस्ता और आटा महंगा है. इसी प्लेटफौर्म पर दिनरात धर्मप्रचार भी होता रहता है जिस में अमावस, ग्यारस और पूर्णिमा वगैरह की महत्ता सहित रोज का पंचांग और भविष्यफल भी प्रवाहित होते रहते हैं.
भक्ति के नशे में चूर ये लोग ही देश के असल दुशमन हैं जिन्हें विकास और रोजगार से कोई लेनादेना नहीं और हंगर इंडैक्स के आंकड़े इन के सीने में चुभते हैं कि ये हैं ही क्यों. सरकार भी इन की हिम्मत बढ़ाने को कहती है कि हां, ये विदेशी आंकड़े झूठे हैं जिन का मकसद देश को बदनाम करना है. बात एक लिहाज से सही भी है क्योंकि सरकार खुद मान रही है कि वह 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त अनाज बांट रही है, यानी भूखों की तादाद देसी इंडैक्स में ज्यादा है.
सच अगर किसी को देखना हो तो उसे किसी भी नजदीकी धर्मस्थल में जा कर देखना चाहिए और फिर सोचना चाहिए कि कोरोनाकाल में करोड़ों रेहड़ी वालों का रोजगार छिन गया, दिहाड़ी वाले कम ढूंढ रहे हैं लेकिन पंडेपुजारियों, मुल्लामौलवियों, फादरों और मुनियों की चांदी है. जिन का रुतबा और वैभव देख कर आंखें इतनी चौंधिया जाती हैं कि फिर गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और महंगाई नजर नहीं आतीं. यह सब भी काल्पनिक और मिथ्या लगने लगता है.
मिथ्या तो लक्ष्मीपूजन भी है
लक्ष्मी अगर पूजापाठ से आती होती तो देश में कोई गरीब न रहता क्योंकि दीवाली पर लक्ष्मीपूजा तो सभी करते हैं. दरअसल, पैसा मेहनती और कर्मठ लोगों के पास आता है. लक्ष्मीपूजा तो लोगों को भाग्यवादी बनाती है. ऐसे कई किस्सेकहानी भी खूब प्रचलित हैं जिन का मकसद इतना भर है कि मेहनत करने वाला अपनी गरीबी की बाबत नीचे वाले देवताओं से सवालजवाब न करे, बल्कि उपर वाले को कोस कर, फिर बैल की तरह हल में जोत जाए क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ वही है.
यह तबका उस हनुमान की तरह है जिसे अपनी ताकत का एहसास नहीं और जामवंत आजकल पैदा नहीं होने दिए जाते जो उसे उस की ताकत से वाकिफ करा पाएं.
एक सवाल अकसर हर किसी के जेहन में कौंधता है कि एक मजदूर भी अडानी-अंबानी से ज्यादा मेहनत करता है, फिर उस पर लक्ष्मी क्यों मेहरबान नहीं होती. इस सवाल से एक बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि दूसरे काल्पनिक देवीदेवताओं की तरह लक्ष्मी भी भेदभाव करती है. सोचा यह जाना चाहिए कि इस लक्ष्मी को पैदा किस ने किया? जवाब इस का भी साफ है कि धर्म के दुकानदारों ने अपनी रोजीरोटी के लिए पैदा किया और इस की पूजा से भी वे पैसा बनाते हैं.
गरीबी की जड़ या वजह लक्ष्मी नहीं, बल्कि पूजापाठ है, दानदक्षिणा है. यह बात जिस दिन लोग समझ लेंगे, उस दिन से वे रईस होना शुरू भी हो जाएंगे. पैसा जादू, टोनों और तंत्रमंत्र से भी नहीं आता जो दीवाली की रात इफरात से किए और करवाए जाते हैं.
दीवाली की रात घर का दरवाजा खुला रखने से लक्ष्मी तो कभी आई नहीं, हां, कभीकभार चोरउचक्के जरूर लक्ष्मी पर हाथ साफ कर जाते हैं. यानी, जरूरत हर तरह के लुटेरों से पैसे की हिफाजत करने की है, नुमाइश की नहीं. जरूरत ज्यादा पैसा कमाने और उसे किफायत से खर्च करने की भी है और यह सब पूजापाठ के चलते तो कतई मुमकिन नहीं. इसलिए इस दीवाली भाग्य के बजाय कर्म पर भरोसा करने का प्रण यह सोचते लेना चाहिए कि सब से पहले तो पैसे की हिफाजत धर्म के दुकानदारों से करना है और अपने बाजुओं के दम व बुद्धि से और ज्यादा पैसा कमाना है. इस से अगली दीवाली आधी फीकी नहीं, बल्कि पूरी मीठी रहेगी.