अफगानिस्तान ने अमेरिकी फौज को बाहर का रास्ता दिखाया है, उस ने अमेरिका के ढहते प्रभुत्व को दुनिया के सामने उजागर कर दिया है. दुनियाभर में यह संदेश भी गया कि अमेरिका ऐसा देश है जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता और वह दुनिया का पुलिसमैन नहीं रह गया है. यह हार लड़ाकू तालिबानियों के दम के चलते ही नहीं हुई बल्कि अंदर से खोखले होते अमेरिका के कारण भी हुई है. अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी और तालिबान के वहां की सत्ता पर दोबारा काबिज होने के पूरे प्रकरण ने अमेरिका की साख को कम किया है. अब तक जो अमेरिका पूरी दुनिया का थानेदार बना हुआ था, उस की औकात अब चौकीदार की भी नहीं बची है.
तालिबान से डर कर अफगानिस्तान को छोड़ना यह बताता है कि वहां अमेरिका का खुफिया तंत्र इतनी बुरी तरह फेल हुआ कि 20 सालों में अंदर ही अंदर तालिबान किस कदर मजबूत और एकजुट होता चला गया, इस की भनक तक अमेरिका को नहीं लगी. गौरतलब है कि अमेरिका दुनियाभर में अपनी खुफिया ताकत के लिए ही मशहूर रहा है. कहा जाता रहा कि अमेरिका की खुफिया शक्ति इतनी मजबूत है कि दुनिया में कहां क्या चल रहा है, सब पर उस की नजर रहती है. 9/11 के हमले के बाद जिस तरह से पाकिस्तान में घुस कर अमेरिकी फौजों ने अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था, उसे अमेरिका के खुफिया तंत्र की ही कामयाबी मानी गई थी. तब जो बाइडेन अमेरिका के उपराष्ट्रपति थे और बराक ओबामा राष्ट्रपति. 2 मई, 2011 को एबटाबाद में अमेरिकी सेना के हाथों ओसामा बिन लादेन मारा गया और इस सफलता का श्रेय अमेरिकी खुफिया एजेंसी को दिया गया, मगर अफगानिस्तान में तालिबान की स्थिति को ले कर अमेरिका का खुफिया तंत्र बुरी तरह से फेल हुआ.
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अमेरिकी सेना को लगा कि उस के डर से तालिबानी लड़ाके अफगानिस्तान से भाग खड़े हुए हैं, जो बचे वे अमेरिकी गोलियों का शिकार हो गए. लेकिन यह उस की भूल थी क्योंकि तालिबानी नेता न केवल अपना वर्चस्व बनाए हुए थे, बल्कि अपने लड़ाकों को हथियार और ट्रेनिंग से भी लैस कर रहे थे. यही नहीं, वे अफगान जनता के बीच अपनी जमीन भी मजबूत कर रहे थे. अमेरिका 1968 में वियतनाम में भी इसी तरह फेल हुआ था. 1968 में उत्तर वियतनाम ने दक्षिण वियतनाम पर हमला कर दिया था, जिस में अमेरिकी सेना को बहुत नुकसान हुआ था. उस युद्ध में 30 लाख लोग मारे गए, जिन में करीब 58 हजार अमेरिकी सैनिक थे. यह सबकुछ इसलिए हुआ था क्योंकि उस वक्त भी अमेरिका की खुफिया एजेंसियां यह पता नहीं लगा पाई थीं कि वियतनाम में ऐसा कुछ होने वाला है. उस ने 2003 में इराक में भी मुंह की खाई थी और इराक को भी गृहयुद्ध में धकेल कर वहां से निकल आया था.
इस वक्त भी उस ने यही किया है. आज तालिबान से हार के बाद अमेरिका अपनी सुपर पावर वाली छवि को वैश्विक रूप से खोने की कगार पर है. अरब देशों से भी धीरेधीरे अमेरिका का प्रभुत्व खत्म होता जा रहा है. अफगानिस्तान से जिस तरह अमेरिकी फौज 40 दिनों के भीतर खदेड़ कर निकाली गई है, या यों कहें कि तालिबान से हार मान कर भाग खड़ी हुई है उस से अमेरिका के ढहते प्रभुत्व को सम झा जा सकता है. भले ही लंबे समय से इस बात की चर्चा थी कि अमेरिकी सैनिकों की घरवापसी जल्दी होगी, मगर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जिस आपाधापी में सेना की वापसी करवाई है, उस ने न सिर्फ अफगानिस्तान जैसे देश को गृहयुद्ध में धकेलने का काम किया है, बल्कि इस से दुनियाभर में यह संदेश भी गया है कि अमेरिका ऐसा देश है जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता. दरअसल, अफगानिस्तान की सुरक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका की थी. 20 वर्षों से अफगान नागरिकों को अमेरिका यह विश्वास दिला रहा था कि ‘मैं हूं ना,’ लेकिन जब अफगानिस्तान को अमेरिका की सब से ज्यादा जरूरत थी तो अमेरिका ने उसे पीठ दिखा दी. वहां के लोगों को धोखा दिया. उन्हें तालिबान के हाथों कटनेमरने के लिए छोड़ दिया.
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इस वजह से दुनियाभर के तमाम छोटे देश, जो अमेरिका को सुपर पावर मानते थे और उन्हें लगता था कि अमेरिका के होने से वे सुरक्षित हैं, अब अमेरिका को संदेह की नजरों से देखने लगे हैं. ताइवान के रक्षा मंत्री ने तो साफ कह दिया है कि उन का देश अमेरिका पर भरोसा करने के बजाय अपने रक्षातंत्र पर भरोसा करेगा. यह एक बड़ा बयान है. इस से साफ जाहिर होता है कि अमेरिका की छत्रछाया में जो देश कल तक खुद को महफूज सम झते थे, अब उन का उस पर से विश्वास उठने लगा है. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अफगानिस्तान में अमेरिका की भागीदारी की आलोचना करते हुए कहा है कि ‘‘वहां उस ने अपनी 20 साल लंबी सैन्य उपस्थिति से ‘शून्य’ हासिल किया है. 20 वर्षों तक अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में जमी रही. वह वहां रहने वाले लोगों को सभ्य बनाने की कोशिश कर रही थी. इस का परिणाम व्यापक त्रासदी, व्यापक नुकसान के रूप में सामने आया. यह नुकसान दोनों को हुआ, यह सब करने वाले अमेरिका को और उस से भी अधिक अफगानिस्तान में रहने वालों को.’’ पुतिन ने कहा, ‘‘किसी पर बाहर से कुछ थोपना असंभव है.
अगर कोई किसी के लिए कुछ करता है, तो उन्हें उन लोगों के इतिहास, संस्कृति, जीवन दर्शन के बारे में जानकारी लेनी चाहिए. उन की परंपराओं का सम्मान करना चाहिए.’’ हालांकि अमेरिका के अफगानिस्तान से इस तरह निकलने के बाद रूस की सिरदर्दी भी बढ़ी हुई है. रूस नहीं चाहता कि मध्य एशिया में कट्टरपंथी इसलाम का फैलाव हो. रूसी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों ने मध्य एशिया में अस्थिरता, तालिबान के फैलाव, चरमपंथियों की संभावित घुसपैठ और अफगानिस्तान में अफीम उत्पादन व तस्करी को ले कर अलर्ट जारी किया है. ऐसे ही अलर्ट पर अब भारत भी है. अब तालिबानी सत्ता कायम होने पर उस के नजदीकी रहे आतंकी संगठन अलकायदा, जैश या लश्कर के आतंकी अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत में आतंकी गतिविधियों को चलाने के लिए करेंगे और कश्मीर में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करेंगे. ऐसे में अमेरिका से भारत को कोई मदद मिलने की संभावना नहीं है.
तालिबान से हार मान कर अपनी खोह में मुंह छिपाने वाला अमेरिका अब क्या तालिबान को नसीहत करेगा या उसे आंख दिखाएगा? अफगानिस्तान से लोकतांत्रिक सरकार का जाना जिस से भारत के अच्छे संबंध थे, अपनेआप में नरेंद्र मोदी सरकार के लिए बड़ा झटका है. भारत ने अफगानिस्तान में इंफ्रास्ट्रक्चर डैवलपमैंट प्रोजैक्ट्स में जो 3 बिलियन डौलर का निवेश किया है उस के भविष्य को ले कर भी डर बना हुआ है. साथ ही, अब यह डर भी है कि कहीं पाकिस्तान अफगानिस्तान की जमीन को भारतविरोधी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल न करने लगे. भारत के लिए ऐसी संकटभरी परिस्थिति पैदा करने के लिए बाइडन प्रशासन जिम्मेदार है. बीते 100 सालों में अमेरिका दुनिया के सामने एक सुपर पावर बन कर उभरा था. दुनियाभर के देशों के आंतरिक मामलों में उस ने अपना दखल बनाया. हर जगह निगरानी की, हर जगह थानेदारी की. हालांकि उस ने कमजोर देशों को हिम्मत भी दी.
उन्हें उन के पड़ोसियों के कहर से बचाया भी. कहा जाने लगा कि अमेरिका जिस के साथ खड़ा हो जाए, उस का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता. लेकिन अफगानिस्तान की ऐसी दुर्दशा देख कर अब लोगों को इस बात पर यकीन दिलाना अमेरिका के लिए मुश्किल हो गया है कि- ‘मैं हूं ना.’ अमेरिका अपने गिरेबान में झांके अमेरिका भले इतने साल दुनिया का थानेदार बना रहा, दूसरे देशों में जा कर कट्टरपंथी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ लड़ाइयां लड़ता रहा, दूसरों को सुरक्षा और न्याय देने के ढोल पीटता रहा, मगर हकीकत यह है कि अमेरिका का अपना समाज खुद कट्टरपंथी, रूढि़वादी, धर्म, जाति और नस्लवादी समस्याओं से ग्रस्त है. खुद का घर गंदा हो तो दूसरों के घरों को साफ करने का दावा करना बड़ा हास्यास्पद लगता है. सत्ता के संरक्षण में अमेरिकी पुलिस की रंगभेदी, नस्लभेदी, दक्षिणपंथी सोच और व्यवहार की दुनियाभर में आलोचना होती रही है.
भारतीय मूल के अमेरिकी और अश्वेत नागरिकों के खिलाफ अमेरिकी पुलिस का रवैया जल्लाद जैसा है. बीते साल यह नस्लीय भेदभाव अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में बड़ा मुद्दा बन चुका है. पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर नस्लीय हिंसा को भड़काने का आरोप लगा जब एक अश्वेत अमेरिकी नागरिक जौर्ज फ्लौयड को सरेआम जमीन पर गिरा कर पुलिस के एक गोरे जवान ने अपने घुटनों के नीचे उस की गरदन तब तक दबाए रखी जब तक उस की सांस न टूट गई. फ्लौयड चीखते रहे कि वे सांस नहीं ले पा रहे हैं- ‘आई कांट ब्रीद…..’ लेकिन श्वेत जवान के मन में अश्वेतों के प्रति इतनी नफरत भरी थी कि उस ने फ्लौयड की गरदन तब तक नहीं छोड़ी जब तक वह मर नहीं गया.
जौर्ज फ्लौयड के आखिरी शब्द ‘आई कांट ब्रीद’ इस हत्या के विरोध में सड़कों पर उतरे आम अमेरिकी के लिए नारा बन गए. दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का डंका पीटने वाला अमेरिका अपने ही आंगन में श्वेत पुलिसकर्मी के घुटने तले दम तोड़ते एक अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक को ले कर समता, सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकारों की रक्षा में नाकामी के कारण कठघरे में खड़ा हुआ. बराबरी के अधिकार का खोखला दावा अमेरिका का नया संविधान सब को बराबरी का अधिकार देता है. इसी संविधान की बदौलत अमेरिका में अश्वेत जज, अश्वेत गवर्नर और अश्वेत राष्ट्रपति तक बन चुके हैं. लेकिन क्या सचमुच सिर्फ कानून बन जाने भर से अश्वेत अमेरिकी श्वेतों के मुकाबले बराबरी में आ गए हैं? कुछ घटनाओं पर नजर डालते हैं- द्य साल 2012 में फ्लोरिडा में ट्रेवोन मार्टिन नाम के एक अश्वेत अमेरिकी की हत्या हुई. यह हत्या एक श्वेत सिक्योरिटी गार्ड जौर्ज जिमरमैन ने की थी.
जब मामला अदालत में पहुंचा तो ज्यूरी ने जौर्ज जिमरमैन को निर्दोष करार दिया और साथ ही, यह भी आदेश दिया कि जौर्ज की बंदूक उसे वापस कर दी जाए. द्य 2013 में कोलकाता के सुनंदो सेन को अमेरिका में मैट्रो के आगे धक्का दे कर मार डालने की कोशिश हुई. उसे एक सनकी महिला एरिका मेनेनडेज ने धक्का दिया था. पुलिस को दिए इकबालिया बयान में उस ने कहा कि उस ने सुनंदो को धक्का इसलिए दिया था क्योंकि वह हिंदुओं और मुसलिमों से नफरत करती है. द्य 2013 के अगस्त में विस्कोन्सिन के एक गुरुद्वारे पर मजहबी नफरत से ग्रस्त एक व्यक्ति ने गोलीबारी कर 6 सिखों को मार दिया था. वेड माइकेल पेज नामक वह व्यक्ति पूर्व सैनिक था और उस ने इंड एपाथी नाम से श्वेत नस्लवादी बैंड आरंभ किया था. अमेरिकी मीडिया ने उसे कुंठित शख्स बताया.
17 जुलाई, 2014 न्यूयौर्क में एक अश्वेत अमेरिकी एरिक गार्नर की पुलिस प्रताड़ना के चलते मौत हो गई. इस के पीछे कहानी यह थी कि एरिक का किसी से झगड़ा हो रहा था. पुलिस आई और उस ने एरिक को खुली सिगरेट बेचने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया. एरिक सफाई देते रहे, लेकिन पुलिसवालों ने उसे दबोच लिया और जमीन पर पटक दिया. दम घुटने से एरिक गार्नर की मौत हो गई. द्य 9 अगस्त, 2014 मिसूरी में माइकल ब्राउन नाम के एक अश्वेत की हत्या हुई. हत्या 26 साल के एक श्वेत पुलिस अफसर डैरेन विल्सन ने की थी. केस चला, लेकिन मिसूरी की ग्रैंड ज्यूरी ने डैरेन विल्सन के खिलाफ केस चलाने से इनकार कर दिया. इस के खिलाफ अमेरिका भर में प्रदर्शन हुए, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा.
13 जुलाई, 2019 लौस एंजिल्स में 17 साल की एक लड़की हन्ना विलियम्स नकली बंदूक से एक पुलिस अफसर पर निशाना लगाने की कोशिश कर रही थी. पुलिस अधिकारी ने उसे असली बंदूक मान लिया और बिना सोचेसम झे हन्ना की गोली मार कर हत्या कर दी. द्य और बीते साल 25 मई, 2020 को अश्वेत जौर्ज फ्लौयड की हत्या एक श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा हुई, जिस के बाद पूरा अमेरिका सुलग उठा. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दुनियाभर में लानतमलामत हुई. पर क्या अमेरिकी समाज की मानसिकता में कुछ बदलाव आया? शायद नहीं. वाशिंगटन पोस्ट की साल 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका में श्वेतों की तुलना में दोगुने अश्वेत पुलिस की प्रताड़ना का शिकार होते हैं. अगर अमेरिका में श्वेत और अश्वेत की हत्या होती है तो श्वेत लोगों की हत्याओं का केस सुल झने की दर ज्यादा है.
यही नहीं, अगर किसी अश्वेत ने श्वेत की हत्या कर दी है तो अश्वेत को फांसी होने के चांसेज 80 फीसदी से ज्यादा हैं. इस के अलावा शायद ही कभी ऐसा मौका हो जब अपराध में अश्वेत शामिल हो और उस की गिरफ्तारी न हुई हो. अमेरिका में अगर किसी श्वेत और अश्वेत को एक ही अपराध के लिए सजा हो रही हो, तो अश्वेत की सजा श्वेतों की तुलना में 20 फीसदी ज्यादा होगी. ये सिर्फ वे आंकड़े और उदाहरण हैं जिन में पुलिस वालों ने अश्वेतों पर जुल्म किए हैं. बाकी अमेरिका के श्वेतों में यह धारणा आम है कि वे अश्वेतों से बेहतर हैं, उन की नस्ल बेहतर है और अश्वेत उन के हमेशा से गुलाम रहे हैं और उन्हें रहना चाहिए. यही वजह है कि अमेरिका में हर साल 10 हजार से ज्यादा नस्लभेदी मामले दर्ज किए जाते हैं और इन के शिकार सिर्फ और सिर्फ अश्वेत होते हैं. स्वयंभू समाज सुधारक अमेरिका सारी दुनिया का एक ‘स्वयंभू समाज सुधारक’ बना रहा.
दुनिया के धार्मिक समूहों, जातियों, प्रजातियों की आजादी को ले कर उस ने हर जगह अपनी टांग अड़ा कर रखी. वह सारी दुनिया के देशों में अपने धार्मिक आजादी पर निगाह रखने वाले अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ या यूएस कमीशन औन इंटरनैशनल रिलीजियस फ्रीडम) के दल भेज कर लोगों के धार्मिक अधिकारों और उन के हनन को ले कर अपनी रिपोर्ट जारी करता है. इतना ही नहीं, अपनी रिपोर्ट में वह इस बात की भी जानकारी देता है कि कौन से देश में अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों का हनन हो रहा है और कितना? इस संगठन ने भारत के बारे में भी खूब रिपोर्ट्स जारी की हैं. उस की रिपोर्ट के अनुसार, बीते एक दशक में भारत में असहिष्णुता और धार्मिक आजादी के उल्लंघन की घटनाएं बढ़ी हैं. अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक हिंदूवादी गुटों से धमकियां मिलती हैं, उन का उत्पीड़न होता है और उन के खिलाफ हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं.
पुलिस और अदालतों का रवैया पक्षपातपूर्ण है और अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. मुसलिम लड़कों को चरमपंथी बता कर जेल में डाल दिया जाता है और बिना मुकदमे उन्हें वर्षों तक जेल में रखा जाता है. पर दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाले देश में जहां ऐसा होता है, वहीं दुनिया की सब से बड़ी ताकत कहलाने वाले ‘मोस्ट मौडर्न’ देश में क्या सभी कुछ सामान्य है? जौन पेराजो की ई-बुक ‘द न्यू लैफ्ट विंग मोबोक्रेसी’ में अमेरिका के दंगों, फसादों, अराजकता, हिंसा और असहिष्णुता को गिनाया गया है. पेराजो लिखते हैं, ‘क्या जाति (प्रजाति) के आधार पर ब्लैक लाइव्स मैटर जैसे आंदोलन अमेरिका में नहीं हुए? अपने समूचे इतिहास में अमेरिका एक ऐसा देश रहा है जोकि 2 चीजों के लिए जाना गया- पहला प्रवासियों का देश और दूसरा, बेजोड़ धार्मिक विविधता.
हालांकि अमेरिका में वैसे भयानक धार्मिक युद्ध और दशकों तक चलने वाले संघर्ष नहीं हुए जैसे मध्यपूर्व के इसलामी देशों में होते हैं, लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं है कि अमेरिका में धार्मिक आधार से जुड़े संघर्षों का इतिहास नहीं रहा है. अमेरिका में धार्मिक कट्टरता अमेरिका ऐसा देश है जो खुद धार्मिक संघर्षों से पैदा हुआ है. यहां पर यूरोप के वे लोग आ कर बसे जोकि यूरोप में धार्मिक दमन का शिकार हो रहे थे. अमेरिकी क्रांति में धर्म की एक खास भूमिका रही है और क्रांतिकारियों का मानना था कि ब्रिटिश लोगों के खिलाफ युद्ध करना ईश्वर की मरजी है. जहां चर्च औफ इंग्लैंड एक ओर समानता आधारित राज्य बनने की ओर अग्रसर था, वहीं अमेरिका की प्रत्येक कालोनी (औपनिवेशिक बस्ती) में अपने ही तरह की ईसाइयत हावी थी. चूंकि यह ब्रिटेन से दूर था और औपनिवेशिक बस्तियों के बीच गुंजाइश थी,
इसलिए यहां अलगअलग तरह की ईसाइयत भी पनपी और इन औपनिवेशिक बस्तियों के लोगों में अपने धर्म के प्रति बेहिसाब कट्टरता है. अमेरिका में विभिन्न राज्यों और ईसाई संप्रदायों में बहुत लड़ाइयां हुईं. वर्जीनिया में एंग्लिकन लोगों का प्रभाव था जोकि चर्च औफ इंग्लैंड के समर्थक थे, इस कारण से इन लोगों ने बैपटिस्ट और प्रेस्बिटेरियन लोगों का दमन किया. 1830 और 40 के दशक में पूर्वोत्तर और अन्य हिस्सों में कैथोलिक विरोधी हिंसा फैली. इस दौरान स्थानीय अमेरिकियों और आयरिश कैथोलिक लोगों के बीच इतनी हिंसा हुई कि मार्शल लौ लगाना पड़ा. फिलाडेल्फिया इस हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित हुआ. वर्ष 1933 और 1939 के दौरान महामंदी के कारण यहूदी विरोधी भावनाएं सारे देश में देखी जाने लगीं.
इस दौरान यहूदियों का अमेरिका में बहुत दमन और उत्पीड़न किया गया. न्यूयौर्क और बोस्टन जैसे शहरी क्षेत्रों में यहूदियों को हिंसक हमलों का सामना करना पड़ा था. यहूदी विरोधी भावनाएं सामाजिक और राजनीतिक भेदभाव के तौर पर दिखाई देने लगीं. सिल्वर शर्ट्स और कू क्लक्स क्लान जैसे संगठनों की ओर से यहूदियों पर हमले किए गए, उन के खिलाफ प्रचार अभियान चलाया गया और उन्हें डरानेधमकाने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया. अमेरिका में 1950 तक यहूदियों को कंट्री क्लबों में प्रवेश नहीं दिया जाता था. उन्हें कालेज से बाहर निकाल दिया जाता था. उन को चिकित्सा की प्रैक्टिस नहीं करने दी जाती थी और बहुत से राज्यों में उन्हें कोई राजनीतिक पद नहीं दिया जाता था. कहने का तात्पर्य यह है कि जिन बातों को रोकने के लिए अमेरिका दुनिया के दूसरे देशों में अपनी फौजें ले कर पहुंचता रहा है,
उन समस्याओं से तो वह खुद भी ग्रस्त रहा और आज भी है. दुनियाभर को सभ्य बनाने का ठेका लेने वाले अमेरिका में कितनी असभ्यता व्याप्त है, यह कहने की जरूरत नहीं है. ग्लोबल वार्मिंग और अमेरिका आज अमेरिका दुनिया में सब से ज्यादा कूड़ा पैदा करने वाला देश है. और अपना कचरा वह या तो दूसरे देशों में फेंकता है अथवा नदी और समुद्रों में डाल कर उन्हें गंदा करता है. अमेरिका सब से अधिक प्रदूषण फैलाने वाला दुनिया में दूसरा देश है. जब प्रदूषण मुक्त होने की चर्चा किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर होती है तो उस चर्चा से वह खुद को दूर रखता है. खुद परमाणु बम रखने वाला अमेरिका उस वक्त बड़ी चिंता जताने लगता है जब कोई दूसरा देश परमाणु बम बना लेता है.
तब उसे विश्व समुदाय की चिंता होने लगती है. दरअसल, यह चिंता नहीं, बल्कि यह खुद आगे रह कर दूसरों को पीछे धकेलने की बीमारी है. इसीलिए दुनिया में 39 फीसदी देश अमेरिकी दबदबे को सार्वभौमिकता के लिए सब से बड़ा खतरा मानते हैं. तीसरे विश्व युद्ध की आहट इतिहास गवाह है कि जब भी कोई सुपर पावर कमजोर पड़ने लगता है तो एक ऐसा युद्ध होता है जो इंसानियत के लिए भयावह साबित होता है. अमेरिका वैश्विक रूप से कमजोर हो रहा है और चीन शक्तिशाली, ऐसे में आने वाले समय में अगर दुनिया किसी विश्व युद्ध की ओर जाती है तो इस में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इतिहास में जब स्पार्टा को एथेंस की शक्ति से खतरा महसूस हुआ, तब युद्ध हुआ. इस के बाद पहला विश्वयुद्ध तब हुआ जब ब्रिटेन और रूस जैसे देशों को जरमनी की शक्ति से खतरा महसूस होने लगा. और अब वैसी ही स्थितियां अमेरिका, रूस और चीन के बीच शुरू होने वाली हैं.
चीन का उभार पहले दुनिया में 2 बड़ी ताकतें थीं- अमेरिका और सोवियत संघ. बाद में जब सोवियत संघ टूट गया तो उस की ताकत भी छिन्नभिन्न हो गई. ऐसे में दुनिया में अमेरिका ही एकमात्र बड़ी शक्ति के रूप में बचा और उस ने अपनी शक्ति खूब बढ़ाई. उस का प्रभुत्व पूरी दुनिया में धीरेधीरे बढ़ने लगा. वह महाशक्ति के रूप में देखा जाने लगा. लेकिन उसे इस बात का एहसास तक नहीं हुआ कि उस की नाक के नीचे दूसरी महाशक्ति यानी सोवियत संघ के खाली स्थान पर चीन ने अपनी नजरें गड़ा ली हैं. चीन ने धीरेधीरे अपनेआप को आर्थिक रूप से इतना मजबूत कर लिया कि वह अमेरिका के सामने दूसरी महाशक्ति के रूप में उभरने लगा और अमेरिका को चुनौती देने लगा. हालांकि, चीन की रणनीति अमेरिका की रणनीति से थोड़ी अलग है. अमेरिका जहां दूसरे देशों की धरती पर सिर्फ अपनी सैन्य मौजूदगी दर्ज करता है, वहीं चीन विकास और विस्तार की नीतियों पर काम कर रहा है.
वह इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण के बहाने दूसरे देशों में घुसता है और फिर वहां सुरक्षा के नाम पर अपना सैन्य बंदोबस्त करता है. गौरतलब है कि ऐसा वह श्रीलंका, पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान और कई अन्य देशों में कर चुका है और लगातार कर रहा है. चीन सिर्फ अपनी सैन्य संख्या में ही दुनिया में सब से आगे नहीं है, बल्कि आर्थिक मामले में चीन इस वक्त दुनिया का केंद्रबिंदु बन चुका है. चीन से निकले कोरोना वायरस ने बीते 2 सालों में पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी है. अमेरिका इस से अभी उबर नहीं पाया है, मगर चीन ने हैरतअंगेज तरीके से खुद को बहुत जल्दी दुरुस्त कर लिया है. इस वायरस के कारण अमेरिका और चीन के व्यापार में काफी तनाव आ चुका है. अमेरिका गुस्से से फुंफकार तो रहा है मगर ड्रैगन को डसने की हिम्मत उस में नहीं है.
आस्ट्रेलिया और भारत जैसे देश भी चीन से तनावपूर्ण स्थिति की वजह से व्यापारिक और आर्थिक रूप से कमजोर हो रहे हैं. चीन ने अपने देश को आर्थिक और व्यापारिक रूप से इतना ज्यादा मजबूत कर लिया है कि दुनिया के दूसरे तमाम देश चाह कर भी चीन से व्यापारिक रिश्ता तोड़ने की बात नहीं सोच सकते हैं. इस वक्त दक्षिणपूर्व एशिया के छोटे देशों में चीन का प्रभुत्व बढ़ रहा है. यहां तक कि चीन अब मध्य एशिया के देशों में भी दखल देने लगा है. वहीं रूस अपने आसपास के देशों पर अपना प्रभाव जमाने लगा है. भूमध्य सागर में भी रूस का दबदबा देखने को मिल रहा है.
चीन लगातार भारत को घेरने की भी कोशिश में है. इस कड़ी में चीन भारत के पड़ोसी देशों से बेहतर संबंध बनाने की कोशिश में है और श्रीलंका में उस की गतिविधियां चरम पर हैं. श्रीलंका में चीन अपनी विस्तारवादी नीति पर काम कर रहा है और भारत के लिए यह खतरे की घंटी है. वह तमिल मूल के लोगों को लुभाने की कोशिश में भी है. चीन अपनी कर्ज नीतियों के जरिए श्रीलंका में पहले से ही पैठ बना चुका है और अब वह भारतीय तट के नजदीक पहुंचने की हर संभव कोशिश में लगा है. उस ने श्रीलंका में अपना सैन्य अड्डा भी स्थापित कर लिया है.
चीन उत्तरी श्रीलंका में इकोनौमिक एक्टिविटी और प्रस्तावित इंफ्रास्ट्रक्चर डैवलपमैंट प्रोजैक्ट्स पर बहुत तेजी से काम कर रहा है जिस का बाद में रणनीतिक तौर पर फायदा उठाया जा सकता है और यह भारत के लिए चिंता का विषय है. इस से पहले श्रीलंका में चीन के प्रोजैक्ट्स दक्षिणी हिस्से तक ही सीमित थे, लेकिन अब गोताबाया राजपक्षे सरकार उत्तरी श्रीलंका में चीन को जगह दे रही है. श्रीलंका ने हंबनटोटा पोर्ट को 99 साल के पट्टे पर चीन को दिया हुआ है. श्रीलंका के साथ ही चीन सेशेल्स, मौरीशस, मालदीव, बंगलादेश, म्यांमार और पूर्वी अफ्रीकी देशों के साथ समुद्री संबंध बना कर पूरे हिंद महासागर क्षेत्र में अपने पंख फैला रहा है.