लेखक-हरीश जायसवाल

“गुडमौर्निंग डाक्टर.” आगंतुक डाक्टर दीपक के चैंबर में दाखिल होते हुए बोला, “मेरा नाम सत्यदीप है और मैं यूएसए से आ रहा हूं. पिछले दिनों मेरी आप से लगातार बातें होती रही हैं.” और वह डाक्टर दीपक के सामने रखी कुरसी पर बैठ गया.

“ओह, तो आप बूआजी के सुपुत्र हैं. आप ने आने में देरी कर दी,” डाक्टर दीपक बोले और अभिवादव के तौर पर हाथ जोड़ लिए.

“नहींनहीं डाक्टर, आप को गलतफहमी हो रही है. मेरी मम्मी का नाम तो दीपिका सत्यनारायण है. वे तो कोविड ट्रीटमैंट के लिए आप के नर्सिंगहोम में भरती हैं. मेरी मम्मी अपने मातापिता की इकलौती संतान थीं,” सत्यदीप ने अपनी बात एक ही सांस में कह दी. स्पष्टतौर पर यह बूआ शब्द का विरोध ही था.

“हां सत्यदीप जी, मैं जानता हूं. बूआजी का ही नाम दीपिका, उन के पति का नाम सत्यनारायण और आप का नाम दोनों को मिला कर सत्यदीप रखा गया है. मैं यह भी जानता हूं कि आप उम्र में मुझ से बड़े हैं तथा लगभग 20 बरसों से यूएसए में रह रहे हैं. अब्रॉड जाने के लगभग 2 साल बाद ही आप की शादी हो गई थी और आप शादी के तुरंत बाद ही भाभी जी को ले कर स्टेट्स चले गए थे.“उसी साल आप के पिताजी का देहांत हो गया था. चूंकि आप उस साल अपनी शादी के लिए

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काफी छुट्टियां ले चुके थे, सो आप लोगों के लिए 15 दिनों से अधिक रुकना संभव नहीं था. उस के अगले साल ही आप की पत्नी प्रैग्नैंट हो गई और अपनी सुरक्षा, हाईजीन व बच्चे के लिए विदेशी नागरिकता के दृषिकोण से वहीं पर डिलीवरी करवाने का निर्णय लिया. यद्यपि बूआजी आप की सहायता के लिए वहां गई थीं और लगभग 6 महीने तक आप लोगों के साथ रहीं भी मगर उन्हें वहां का क्लाइमेट और कल्चर सूट न होने के कारण फिर कभी वे उस देश में नहीं गईं हालांकि आप ने उन्हें कई बार बुलाया.

“उस के बाद आप का 4 बार इंडिया आना हुआ. मगर हर बार आप अपनी ससुराल के किसी न किसी फंक्शन को अटेंड करने के लिए ही आए थे. साथ ही. आप इंडिया के टूरिस्ट प्लेसेस को घूमने का प्रोग्राम भी बना कर आए थे. इसी कारण बूआजी से आप की मुलाकातें अपेक्षाकृत संक्षिप्त ही हुआ करती थीं,” डाक्टर दीपक बोल रहे थे.

“आप मेरे बारे में इतना कुछ कैसे जानते है? क्या आप का कोई रिलेटिव, मेरा मतलब है मम्मी या पापा, भी उस सरकारी स्कूल में सर्विस करता था जहां पर मम्मी थीं?” सत्यदीप ने आश्चर्य से पूछा.

“जी नहीं. मेरी बूआजी के परिवार में एंट्री उस समय हुई जब आप के पिताजी के देहांत को 6 महीने हो चुके थे और अपने इतने बड़े घर में अपना अकेलापन दूर करने के लिए घर के एक हिस्से, जिस में एक बैडरुम, किचन था, को किराए पर देने का निर्णय लिया. उन दिनों मैं और मेरी पत्नी दोनों ही यहां के सरकारी हौस्पिटल में ट्रांसफर हो कर आऐ थे.

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“घर दिखाते समय बूआजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वे घर को किसी भी आर्थिक मजबूरी के कारण किराए से नहीं दे रही हैं और न ही वे किराएदार रख रही हैं बल्कि वे तो अपने दुखसुख बांटने के लिए अपना परिवार बढ़ा रही हैं. उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान बाजारभाव से इस जगह का किराया 5 हज़ार रुपए प्रतिमाह होता है लेकिन आप को जो भी उचित लगे, आप दे दीजिएगा.

“उस के बाद हम उस घर में बूआजी के साथ लगभग साढ़े 5 साल तक रहे. सरकारी नौकरी छोड़ कर नर्सिंगहोम डालने की रूपरेखा में बूआजी ने सक्रिय सहयोग दिया. हमारे परिवार की  पहली व एकमात्र डिलीवरी भी उसी घर में हुई. अपने बच्चे की देखभाल के लिए उन्होंने हमें कभी भी आया नहीं रखने दी. दलील देती थीं कि बड़े होने के बाद तो बच्चों की अपनी मजबूरियां होंगी और वे हमारे साथ रह पाएं या नहीं, सभीकुछ परिस्थितियों पर निर्भर करेगा. हम आज से ही क्यों अपने बच्चों को व्यावसायिक हाथों में सौंपे.

“हमारे बच्चे के सभी काम उन्होंने पूरी प्रसन्नता और मनोयोग से किए. कभीकभी विशेष परिस्थितियों में हम दोनों को ही नाइट शिफ्ट में जाना पड़ता था, ऐसे में बूआजी सारी रात बच्चे को अपने साथ ही रखती व संभालती थीं.

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“किराए के घर में प्रवेश के पहले दिन जब हम रहने पहुंचे तो शिष्टाचारवश मैं ने उन्हें मम्मीजी कह दिया तो तुरंत उन्होंने प्रतिकार करते हुए कहा कि यह संबोधन मैं सत्यदीप के अलावा किसी और के मुंह से सुनना नहीं चाहती हूं. यह अधिकार सिर्फ और सिर्फ सत्यदीप का है.

मेरे विचार से वे आप से बहुत अधिक स्नेह करती थीं और आप को एक क्षण के लिए भी भूलना नहीं चाहती थीं. वे यह भी नहीं चाहती थीं कि वे किसी और की औलाद को अपना लें.

तब आप को क्या कहूं? मैं ने कुतुहल से पूछा था तो उन्होंने कहा था कि ‘तुम दोनों ही मुझे बूआ कह सकते हो क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि एक स्त्री को अपने भाई के बच्चे अपने खुद के

बच्चों से भी अधिक प्रिय होते हैं. बूआ का संबंध अपने भतीजेभतीजियों से ज्यादा निकट होता है और दोनों तरफ से विचारों का आदानप्रदान सम्मानपूर्वक व सुगम होता है.’

“ ‘बिलकुल सही बूआजी. मैं अपनी बूआ की गोद में सिर रख कर सो भी जाती हूं और उन के साथ ताश व अंत्याक्षरी भी खूब खेलती हूं. जो बात मैं अपने मातापिता से नहीं कह पाती हूं वह बूआ के माध्यम से उन तक पहुंचा देती हूं.’ मेरी पत्नी बीच में बोली.

“अब स्थिति यह है कि मेरा बेटा भी उन्हें दादी न कह कर बूआजी ही कहता है. मेरा नर्सिंगहोम खुलने के बाद अनिवार्यता के दृष्टिकोण से अपना निवास यहीं बनवा लिया. मगर बूआजी से

संपर्क निरंतर बना रहा.

“मैं अकेला नहीं, बल्कि मेरे बाद आने वाले अन्य 5 किराएदार भी उन्हें बूआजी कह कर पुकारते हैं और वे घर के सभी सदस्यों से ज्यादा सम्माननीय भी हैं. उन सभी लोगों को सूचित भी कर दिया गया है. आप देखेंगे कि अभी कुछ ही समय में सभी लोग यहां पहुंच चुके होंगे.”

“मगर अभी तो कोरोना प्रोटोकौल चल रहा है. ऐसे में कौन अपनी जान जोखिम में डालेगा?” सत्यदीप हैरानी से बोला.

“अरे साहब, बूआजी ने हम सभी की एक बार नहीं, बल्कि कई बार इस तरह की मदद की है कि उन का कर्जा उतरना कम से कम इस जन्म में तो हमारे लिए संभव नहीं है. कोरोना से भी बड़ी कोई महामारी हो, तब भी हम 6 लोग तो बेझिझक वहां पर पहुंच ही जाते,” डाक्टर बोले, “और हां, नर्सिंगहोम के अकाउंटैंट से मैं ने सिर्फ आप को सूचना देने के लिए बोला था, आप से पैसे मंगवाने के लिए बिलकुल भी नहीं बोला गया था. वह तो साधारण पेशेंट के साथ जैसा व्यवहार करता है, उसी प्रकार उस ने आप के साथ भी कर दिया. वैसे, उस की गलती है भी नहीं क्योंकि यह तो उस की ड्यूटी का एक हिस्सा है. आप के द्वारा भेजा गया पैसा वापस आप के अकाउंट में ट्रांसफर किया जा रहा है.”

अब तक बाकी के पांचों किराएदार भी पहुंच चुके थे. वर्तमान किराएदार ओमप्रकाश तो लगातार रोए जा रहे थे. आंसू तो सभी की आंखों में थे जो बूआजी के प्रति स्नेह व आदर दिखाने के लिए पर्याप्त थे.

तभी बतलाया गया कि बूआजी के मृत शरीर को अंत्येष्टि के लिए ले जाया जा रहा है. कोरोना प्रोटोकौल के अंतर्गत सिर्फ 5 व्यक्ति ही जा सकते थे और वह भी सिर्फ पंचनामे पर साइन करने के लिए.

सत्यदीप तो परिवार का सदस्य था, सो उस का जाना तो अनिवार्य था ही लेकिन बाकी 6 में से कोई भी बूआजी का साथ अंतिम समय में छोड़ने को तैयार नहीं था यह जानते हुए भी कि यह एक तरह का रिस्क है.

आखिरकार, 2 व्यक्ति ऐसे व्यक्ति के साथ गए जिन के अपने तक उन की अंतिमक्रिया में जाने को तैयार नहीं थे. बूआजी का क्रियाकर्म कर के लौटते समय सत्यदीप बोला, “मुझे आप लोगों की बातें सुन कर और आप लोगों के व्यवहार को देख कर ऐसा लगता है जैसे मैं ने अपनी मम्मी के साथ न रह कर बहुत बड़ी गलती कर दी है जिस का पश्चात्ताप मुझे जिंदगीभर रहेगा.” उस की आंखें नम थीं.

“नहींनहीं सत्यदीप जी, ऐसी कोई बात नहीं है. बूआजी को आप से कभी कोई शिकायत नहीं थी. वे आप की मजबूरियों को बहुत अच्छे से समझती थीं. दूसरे, सत्यदीपजी, एक बात और है ना, जो चीज हमारे पास होती है उसे हम हमेशा कमतर ही आंकते हैं. शायद इसी कारण से बूआजी की तारीफें सुन कर आप ऐसा समझ रहे हैं. आप की जगह हम सब में से भी यदि कोई होता तो वह भी वही करता जो आप कर रहे हैं. जीवनयापन की सब की अपनीअपनी विवशताएं हैं,” डाक्टर दीपक सत्यदीप के कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देते हुए बोले.

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