लेखक- Dr. Narendrta Chaturvedi

आजकल टैलीविजन पर सुबह-सुबह ग्रहनक्षत्रों की बात अधिक ही होने लगी है. लगता है, 12 राशियां, 9 ग्रहों के जोड़तोड़, कुल 108 के अंकों में ही 1 अरब से अधिक की जनसंख्या उलझ गई है. सुबह घूमते समय भी लोग आज के चंद्रमा की बात करते मिल जाते हैं. उन का कुसूर नहीं है. हम जैसा सोचते हैं, बाहर वैसा ही दिखाई पड़ता है. उस दिन माथुर साहब मिल गए थे, बोले, ‘‘भीतरिया कुंड पर कोई बनारस के झा आए हुए हैं, कालसर्प दोष निवारण करा रहे हैं.’’

‘‘तो,’’ मैं चौंक गया. उन्होंने जेब से एक परचा निकाला, मुझे देना चाहा.

‘‘नहीं, आप ही रखें. जो होना है, वह तो होगा ही, वह होता है, तो फिर इन उपायों के क्या लाभ? ये कोई सरकारी बाबू तो नहीं हैं, जो पैसे ले कर फाइल निकाल देते हैं.’’

उन का चेहरा कुछ उदास हो गया. वे तेजी से आगे बढ़ गए. मैं ने देखा वे अन्य किसी व्यक्ति के साथ खड़े हो कर शायद मेरी ही चर्चा कर रहे होंगे, क्योंकि बारबार वे दोनों मेरी तरफ देख रहे थे. पर अगले ही दिन, कालसर्प दोष लग ही गया था.

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अचानक पड़ोस के खन्नाजी के घर से रोने की तेज आवाज सुनाई दी थी, ‘इन्हें क्या हो गया?’

तभी बाहर कौलबैल बज गई. पड़ोसी गुप्ताजी खड़े थे.

‘‘आप ने सुना?’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘खन्नाजी का सुबह ऐक्सिडैंट हो गया. वे फैक्टरी से आ रहे थे, पीछे से तेजी से आ रहा टैंकर टक्कर मारता हुआ निकल गया. पीछे आ रहे लोगों ने खन्नाजी को संभाला, पर तब तक उन की मृत्यु हो चुकी थी. अब चलते हैं, उन के घर उन के परिवार वालों को फोन कर दिया है, वे लोग तो शाम तक आ जाएंगे.’’

‘‘हूं, दुख कभी कह कर नहीं आता है और सुख कभी कह कर नहीं जाता है, यह प्रकृति का रहस्य है.’’

बाहर बरामदे में खन्नाजी का शव रखा था. पोस्टमार्टम के बाद उन के सहयोगी शव ले आए थे. खन्नाजी अपने प्लांट में लोकप्रिय थे. पत्नी तो उन के शव को देखते ही अचानक कोमा में चली गईं. डाक्टर को सूचना दे दी गई. उन की छोटी सी 7 साल की बेटी सूनी आंखों से अपने पिता के शव को देख रही थी. सभी पड़ोसी जमा हो गए थे.

डाक्टर ने तुरंत उन की पत्नी को अस्पताल में भरती करने को कहा. ऐंबुलैंस बुलाई गई, पर अस्पताल पहुंचतेपहुंचते उन की पत्नी भी पति के साथ चल बसी थीं.

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शाम तक सभी रिश्तेदार आ गए थे. दाहसंस्कार हुआ. 3 दिन तक सब जमा रहे. समस्या थी, अब डौल्फिन कहां जाए? जो लड़की सामने पार्क में सब से आगे रहती थी, तितलियों से बात करती थी, वह अचानक पथरा गई थी.

खन्ना के मकान का क्या होगा? बैंक में उन का कितना रुपया है? उन के इंश्योरैंस का क्या होगा? ये सवाल रिश्तेदारों के जेहन में उछल रहे थे. डौल्फिन की नानी ने चाहा, डौल्फिन को अपने साथ ले जाएं, पर लड़की है, जिम्मेदारी किस की होगी? मामा ने हाथ खींच लिए थे. चाचाताऊ वकीलों से बात करने चले गए थे.

डौल्फिन चुपचाप अपने कमरे में रह गई थी. उस की आंखों के आंसू मानो धरती सोख गई हो, ‘‘अरे, इसे रुलाओ,’’ महिलाओं ने कहा, ‘‘नहीं तो यह भी मर जाएगी.’’

पड़ोस की बुजुर्ग महिला, मालतीजी, जो रिटायर्ड अध्यापिका थीं, वे ही डौल्फिन के लिए खाना ले कर आती थीं, पर डौल्फिन कुछ नहीं खाती थी, वे उसे बस अपनी छाती से चिपटाए बैठी रहतीं. मालतीजी का लड़का न्यूयार्क में था, बेटी पेरिस में, दोनों ही सौफ्टवेयर इंजीनियर थे. उन के अपने घर बस गए थे. वे लोग बुलाते तो मालतीजी यही कहतीं, ‘बेटा, यहां अपना घर है, सब अपने हैं, वहां अब कहां रहा जाए?’ बच्चे ही साल में चक्कर लगा जाते. मालतीजी रिटायरमैंट के बाद शुरूशुरू में बच्चों के पास कुछ दिनों के लिए रहने चली जातीं पर धीरेधीरे उन का जाना कम होता चला गया.

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‘‘यह बुढि़या क्यों आती है यहां?’’ डौल्फिन की ताई ने अपनी देवरानी से पूछा.

‘‘क्या पता? इस के पास खन्नाजी ने रुपए रखे हों.’’

तब तक खबर आ गई थी कि डौल्फिन को शहर के चिल्ड्रन होम में रखने का फैसला घर वालों ने कर लिया है. उस का कौन संरक्षक होगा, उस का फैसला कोर्ट तय करेगा. तब तक वह वहीं रहे, यही तय हुआ है. मकान और उस के सामान को ताला लगा देंगे. घर वाले अब जाना चाहते हैं.

‘‘क्या यह बच्ची अनाथालय में रहेगी?’’

‘‘तो हम क्या कर सकते हैं? जब उस के घर वाले यही चाहते हैं, तो हम लोग क्या हैं?’’

पर क्या डौल्फिन से भी किसी ने पूछा है? सवाल बड़ा था. दोनों ही पक्षकारों में कुछ सुलह भी हो गई थी. पैसा, मकान झगड़ोगे तो सब चला जाएगा. हां, मिल कर कोई कार्यवाही कर लेते हैं, इसी में सब को लाभ है. फिर जहां कोर्ट कहेगा, वहां बच्ची रह लेगी, अभी तो यह मामला कोर्ट में है. इस पर दोनों पार्टियों में सहमति हो गई थी.

पर दूसरे ही दिन मानो भूचाल आ गया हो. मालतीजी अपने साथ डौल्फिन को ले जा रही थीं.

‘‘आप इसे अपने साथ नहीं रख सकतीं,’’ रिश्तेदार कह रहे थे.

‘‘हां, मैं ने कोर्ट में दरख्वास्त दी है, इस को अनाथालय भेजना उचित नहीं है. मैं ने अपनी जमानत दी है, मैं ने इसे गोद नहीं लिया है, न मुझे आप का यह मकान लेना है, न इंश्योरैंस का धन. मेरा खुद का मकान बहुत बड़ा है. यह वहां पढ़ लेगी. मुझे इसे पढ़ाना है. यही मैं ने मजिस्ट्रेट से कहा है, अपनी जमानत दी है. जब तक कोर्ट का निर्णय नहीं आता, तब तक मेरे पास रहने की इजाजत मिल गई है. आप लोग मकान में ताला लगा दें, मुझे वहां से कुछ नहीं लेना है. खन्नाजी आप के रिश्तेदार थे, उन से मुझे कुछ नहीं चाहिए.’’

रुचि खन्ना, मालतीजी को आंटी कहा करती थीं. उस की दोपहर उन के घर पर ही बीतती थी. और तब डौल्फिन भी मां के साथ आ कर उन के घर में खेलती रहती थी. वह उन्हें नानी ही कहती थी. उन के यहां पर कंप्यूटर था, लैपटौप भी था और उन का बेटा तरहतरह के कैमरे भी रख गया था. वह आती, कहती, मेरा फोटो खींचो. फिर वह उन फोटो को लैपटौप पर देखा करती थी. उस के चेहरे की तरहतरह की मुद्राएं मालतीजी को सहेजना पसंद था.

पर अब जो हुआ, उस पर किसी का भी विश्वास होना कठिन था.

अगले दिन सुबह ही पार्क में बुजुर्गों की मीटिंग थी. कुछ उन के इस कदम की सराहना कर रहे थे, कुछ चिंता, ‘‘क्या वह उसे गोद लेगी? कितने दिन अपने पास रख पाएगी? अन्यथा किसी रिश्तेदार को सौंप देगी? पर फिर यही तय हुआ, वह जो मदद मांगेगी तो कर देंगे.’’

बस अपना बस्ता और खिलौने ले कर डौल्फिन मालती के घर आ गई थी. उस का घर यथावत बंद हो गया था, रिसीवरी में यह किस के पास रहेगी? विवाद का विषय अब संपत्ति के फैसले से जुड़ गया था.

दिनभर डौल्फिन उन के ही पास रहती, वे उसे पार्क में ले जातीं, पर वह न तो पहले की तरह दौड़ती, भागती, न ही किसी से बोलती. बस, चुपचाप पार्क की बैंच पर बैठी रहती. स्कूल से भी फोन आया था, इम्तिहान भी आने वाले थे, मालतीजी उसे खुद पढ़ाने लग गई थीं. उसे बाजार ले जा कर उस के लिए नए कपड़े ले आई थीं. उन्होंने स्कूल की शिक्षिका को घर पर ही पढ़ाने के लिए बुला लिया था.

हां, वह पढ़ती रही, वह 10वीं पास कर गई थी. तब इस महल्ले में मेरा रहना शुरू हुआ था. कानपुर से मैं यहां पर कोचिंग इंस्टिट्यूट में कैमिस्ट्री पढ़ाने आ गया था. अच्छा पैकेज था, पत्नी को भी काम मिल गया था. यहीं पार्क के सामने हम ने अपना घर किराए पर ले लिया था.

तभी एक दिन मेरे घर पर महल्ले के बुजुर्गों ने कौलबैल बजाई. उस दिन कोई अवकाश था. मुझ से मिलने कौन आएगा? चौंक गया मैं. दरवाजे पर देखा, काफी लोग थे. मैं समझा शायद चंदा मांगने आए होंगे.

‘‘आप?’’

‘‘हम इसी महल्ले में रहते हैं. यह जो सामने पार्क है, इस की कमेटी बना रखी है, इस के सदस्य हैं.’’

‘‘हां, पार्क बहुत सुंदर है, मैं भी शाम को घूमता हूं.’’

‘‘हां, वहीं आप को देखते हैं, आज सोचा, मिल लें.’’

‘‘क्यों नहीं, आज्ञा दें, आप लोग बैठें.’’

‘‘आज्ञा?’’ वे लोग हंसे, तभी एक सज्जन, जिन्होंने अपनेआप को रिटायर्ड प्रिंसिपल बताया था, बोले, ‘‘हम आप से एक रिक्वैस्ट करने आए हैं.’’

‘‘कहें.’’

‘‘आप डौल्फिन को नहीं जानते,’’ तब उन्होंने मुझे उस दुर्घटना के बारे में बताया था और किस प्रकार मालतीजी ने इस डौल्फिन की मदद में अपनेआप को पूरी तरह लगा दिया था. उन का बेटा जब अमेरिका से आया था तो वह उन्हें अमेरिका ले जाना चाहता था लेकिन उन्होंने अमेरिका जाना ठीक न समझा और डौल्फिन को नहीं छोड़ा. यह डौल्फिन महल्ले के सभी लोगों की बेटी हो गई है.

‘‘हम सब उसी के लिए आप से सहायता मांगने आए हैं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, 10वीं में डौल्फिन की मैरिट आई है. वह डाक्टर बनना चाहती है. पर जहां आप पढ़ाते हैं, वहां की फीस बहुत ज्यादा है, साथ ही यहां से बहुत दूर है. बहरहाल, हम ने एक आटो लगा दिया है, उस से वह जाया करेगी. आप वहां उस का ध्यान

रख लें, संभाल लें, आप की भी…’’ कहतेकहते उन का गला भर्रा गया था.

मैं अवाक् था, क्या कहता, महीने की भी फीस वास्तव में ज्यादा है. पर अब तो टैस्ट भी हो गए हैं, सीटें भर गई हैं, इन्हें क्या कहूं?

‘‘क्या सोच रहे हैं आप?’’ वे बोले.

‘‘उस ने एंट्रैंस टैस्ट तो पास कर लिया होगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं, वह जा नहीं पाई, तब बीमार हो गई थी और इंस्टिट्यूट में वह जाना नहीं चाहती है.’’

‘‘ठीक है, आप कल आ जाएं, मैं बात करूंगा.’’

उन के जाते ही पत्नी ने कहा, ‘‘किस झमेले में पड़ गए हो. मुझे भी यहां उस के बारे में बताया था, पता नहीं अपने रिश्तेदारों के यहां न भेज कर इन्होंने कौन सा पुण्य किया है?’’

मुझे हंसी आ गई, क्या कहता, स्त्री मन को कौन पढ़ पाया है. जिन रिश्तेदारों को धन से मतलब है, वहां किसी के जीवन का क्या अर्थ है. हमारे समाज में स्त्री का स्त्री होना  ही अभिशाप है. लड़की वह भी बिना मातापिता की, अचानक मेरा सिर मालतीजी के सम्मान में झुक गया था.

मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘तुम अपने मन से कह रही हो या मुझे खुश करने के लिए?’’

वह अचानक स्तब्ध रह गई, ‘‘कैसे इन लोगों ने इस बच्ची को पाला है?’’

‘‘तो फिर.’’

‘‘तुम मदद कर सको तो कर दो,’’ उस ने अचानक मुंह फेर लिया था, वह अपने आंसू नहीं रोक पाई थी.

करुणा का पाठ, किसी पाठ्यपुस्तक में नहीं होगा, यह तो जीवन के थपेड़े कब सौंप जाते हैं, कहना कठिन है.

कालेज में वे सभी लोग एकसाथ आए थे. मैं ने उन्हें विजिटर्स में बैठा दिया था और डौल्फिन की मार्कशीट ले कर माहेश्वरीजी से मिला था.

‘‘यह क्या है?’’ वे चौंके.

‘‘एक फौर्म है.’’

फौर्म उन्होंने हाथ में ले लिया, ‘‘क्या नाम है, डौल्फिन,’’ और हंस पड़े, ‘‘मार्क्स तो बहुत हैं. यह तो मैरिट में है. इस ने एंट्रैंस क्यों नहीं दिया?’’

‘‘नहीं दे पाई,’’ मैं ने सामने रखा पानी का गिलास उठाया और पानी के घूंट के साथ अपनेआप को संयत किया, डौल्फिन की पूरी कहानी सुनाई.

माहेश्वरीजी भी स्तब्ध रह गए थे.

‘‘यह लड़की नीचे बैठी है.’’

‘‘इस के साथ कौन आया है?’’ वे बोले.

‘‘महल्ले के बुजुर्ग,  वे सब इस के संरक्षक हैं.’’

‘‘फौर्म दे दो.’’

‘‘पर…’’

‘‘पर क्या?’’

‘‘वे सब इतनी फीस नहीं दे पाएंगे,’’ मैं ने अटकते हुए कहा था.

अचानक माहेश्वरीजी सीट से उठ कर खड़े हुए, और खिड़की के पास खड़े हो गए. मैं अवाक् था, देखा उन के गाल के पास से पानी की लकीर सी खिंच गई है.

‘‘इसे ‘ए’ बैच में भेज दो,’’ वे धीरे से बोले, ‘‘इस का फौर्म कहां है?’’

फौर्म पर उस का नाम लिखा था और मार्कशीट साथ में लगी हुई थी. जहां मातापिता, संरक्षक के हस्ताक्षर होने थे, वह कालम खाली पड़ा था. उन्होंने पैन उठाया और फौर्म पूरा भर दिया.

डौल्फिन उन की उम्मीदों पर खरी उतरी थी, मेरे सामने ही वह पीएमटी में अच्छी रैंक से पास हो गई थी. बोर्ड में उस की मैरिट थी. जब उस का परिणाम आया था, महल्ले  ने पार्टी दी थी, मैं भी तब वहीं था. पर उस के बाद वहां से मुझे नागपुर आना पड़ गया. वहां के विश्वविद्यालय में मेरा चयन हो गया था.

समय किसी के चाहने से ठहरता नहीं है. उस की अपनी गति है. मैं भी इस शहर को, यहां के लोगों को भूल ही गया था. शास्त्र भी कहता है, ज्यादा बोझा स्मृति पर डाला नहीं जाता, ‘भूल जाना’ स्वास्थ्य के  लिए अच्छा है. यहां के विश्वविद्यालय में पीएचडी के लिए मौखिक परीक्षा थी. मैं परीक्षक था. मुझे आना पड़ा. सोचा तो यही था, एक बार पुराने महल्ले में हो आऊं, छोड़े 10 साल हो गए हैं, क्या पता अब वहां कौन हो? मालतीजी भी हैं या नहीं और डौल्फिन, अचानक उस की याद आ गई. पर संबंध भी समय के साथ टूट जाते हैं. मोबाइल में मेमोरी भी वही नंबर रखती है जो हम फीड करते हैं. यह तो नौकरी के साथ घटी घटना थी, बस. विश्वविद्यालय की कार ने दरवाजे पर उतारा. मैं अपना ब्रीफकेस ले कर स्टेशन की तरफ तेजी से बढ़ ही रहा था कि तभी एक कार तेजी से मेरे पास आ कर रुकी.

मैं चौंक गया, ‘‘आप?’’

सुंदर सी युवती, जिस के साथ एक छोटा सा खूबसूरत बच्चा था, अचानक कार से उतरी.

‘‘अंकल, मैं डौल्फिन, आप को कई पत्र लिखे, पर आप का जवाब ही नहीं आया, आप की यूनिवर्सिटी का पता लगाया था, वहां भी कोरियर भेजा था, पर आप तो हमें भूल ही गए.’’

‘‘तुम?’’

‘‘हां, मैं आप का यूनिवर्सिटी से पीछा कर रही हूं, मुझे तो आज ही पता लगा था कि आप मौखिक साक्षात्कार लेने आए हैं. वहां गई थी, वहां पता लगा कि आप ट्रेन से जा रहे हैं, पर आप की ट्रेन तो लेट है.’’

मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा उसे देखे जा रहा था.

‘‘अंकल, नानी आप को बहुत याद करती हैं, उन्होंने आप का फोटो भी अस्पताल के हौल में लगा रखा है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, मैं ने पढ़ाई पूरी कर के, एमडी भी कर लिया, नानी ने मेरी शादी भी कर दी, रोहित भी डाक्टर हैं, नानी ने हमारा क्लीनिक खुलवा दिया है, हम नानी के पास, नानी हमारे पास रहती हैं.’’

‘‘बहुत अच्छा, तुम ने जो मालतीजी को साथ ही रखा वरना इस बुढ़ापे में उन की देखभाल करने वाला था ही कौन.’’

‘‘घर चलिए आप, मैं आप को नहीं जाने दूंगी, हमारा पूरा महल्ला भी आप को याद करता है, पर आप तो, बड़े शहर के हो…’’ वह हंस रही थी.

मैं अचानक मानस समुद्र के उद्वेलित जल में उठती, फूटती, डौल्फिन का नृत्य देख कर चकित था. बहुत पहले गोआ गया था, अचानक समुद्र में तेज पानी का उछाल देख कर चौंक गया था, पास खड़ा कोई कह रहा था, बाहर से डौल्फिन ला कर यहां छोड़ी गई है. मैं उसे नहीं देख पाया था. क्या पता कोई और हो, पर यहां डौल्फिन अपने होने का सचमुच एहसास करा रही थी.

 

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