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लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

अनुपमा शुक्ला, सरकारी स्कूल से प्रधानाचार्य के पद से कुछ साल पहले ही रिटायर हुई थीं. पति की कुछ साल पहले सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. वर्षों का आनाजाना था. एकदूसरे के सुखदुख के साथी. नियति ने दोनों के जीवनसाथी को छीन लिया था. मनोज की 2 बेटियां ही थीं. दोनों ही शादी कर के अपने घर चली गई थीं. अनुपमाजी का एक ही बेटा था, जो बंगलोर में अपने परिवार के साथ रहता था.

“मिसेज शुक्ला… कैसी हैं आप?””बिलकुल ठीक… आप बताइए.””मैं भी… लगता है, चश्मे का पावर बढ़ गया है. चश्मा चेक कराना पड़ेगा…”अनुपमा जी मंदमंद मुसकराने लगी.”गुप्ता जी… पावर नहीं… आंखें पोंछिए. सब साफसाफ दिखने लगेगा.”

मनोज झेंप से गए… क्या सोचेंगी मिसेज शुक्ला… उन्होंने झट से रूमाल निकाला… आंसू गाल तक ढुलक आए थे.”भाभीजी की याद आ रही थी क्या…?””हम्म…””आप को नहीं आती शुक्ला भाईसाहब की…???”

एक अजीब सी मुसकराहट अनुपमा के चेहरे पर तैर गई”मनोजजी, जवानी में घरपरिवार की जिम्मेदारी निभातेनिभाते खुद के लिए कभी समय ही नहीं मिला. उम्र के जिस पड़ाव पर हूं, वहां दिलों में भावों के उफानों को एक ठहराव सा मिल जाता है. अब तितलियों के पीछे भागने, शहर के नुक्कड़ पर चटपटे गोलगप्पे और किसी फिल्मी हीरोइन के द्वारा पहने गए कपड़ों को सब से पहले खरीदने की होड़ नहीं रहती. अब तो अपने बच्चों को आगे बढ़ते हुए देखने का एक अजीब सा सुकून है, उन के साथ टेढेमेढे मुंह बना कर तसवीरें खिंचवाने की खुशी है…

जब तक ये थे… तो कभी आंखों के आसपास उभर आई आड़ीतिरछी रेखाओं को सौंदर्य प्रसाधनों से छुपाने की पुरजोर कोशिश रहती थी, तो कभी बगल वाली मिसेज राय की अपेक्षा अपनेआप को फिट और स्लिम दिखाने की कवायद जारी रहती थी. पति के ताने… जो कभी दिल को चीर देते थे कि दिनभर करती क्या हो, बिस्तर पर फैली भीगी तौलिया, यहांवहां बेकदरी से पड़े जूतेचप्पलें, बच्चों की चिल्लपों और उन की फरमाइश पूरी करने वाले हाथ अब उन आवाजों को सुनने के लिए बेकरार रहते हैं…

पर अब कहीं कुछ खोया सा महसूस होता है. इन के जाने के बाद जीवन खाली सा हो गया है… ऐसा नहीं कि मैं अपने वर्तमान से संतुष्ट या खुश नहीं हूं, पर उम्र के इस पड़ाव पर अतीत के अरमान, वो सपने, जिन्हें हम कहीं बहुत पीछे छोड़ आए थे… मुझे दोबारा पुकारने लगे हैं. कभी आईने के सामने खड़ी होती हूं, तो अपना ही चेहरा अनजाना सा लगता है. आज एक बार फिर… उम्र के इस पड़ाव पर अपनेआप से दोबारा मिलने की ख्वाहिश है.”

मनोज अनुपमा को चुपचाप देखते रह गए…अकेलापन जाति, धर्म या लिंग का कभी भेदभाव नहीं करता. अनुपमा की हालत भी तो कुछ उस की तरह ही तो थी… बेखयाली में भी जिस का खयाल कभी नहीं भूलता, शायद उसे ही जीवनसाथी कहते हैं. मनोज की नजर कलाई में बंधी घड़ी पर अचानक ही चली गई, “ओह… आज तो बहुत देर हो गई. अनुपमाजी चलता हूं.”

“अरे मनोजजी क्या हुआ? आप यों अचानक क्यों उठ गए? आज तो रविवार है? फिर…””ओह… हां, मैं तो भूल ही गया था.””अब उठ ही गए तो चलिए आप को एक बढ़िया सी अदरक वाली चाय पिलाती हूं.”चाय की कितनी तलब हो रही थी मनोज को… मनोज को तो मानो मुंहमांगी मुराद मिल गई, पर…”अरे, आप क्यों परेशान हो रही है? राम सिंह एक घंटे में आ ही जाएगा… फिर कभी…””फिर कभी क्यों… उस के लिए भी मुहूर्त निकालना पड़ेगा. आप के बहाने मैं भी पी लूंगी.”

मनोज चाह कर भी मना नहीं कर पाए…”आप मानेंगी नहीं… आप चाय चढ़ाइए, मैं तब तक गीजर औन कर आऊं.”एक दीवार का फासला ही भर तो था दोनों घरों में, मुकद्दर ने दोनों घरों की किस्मत न जाने क्यों एकजैसी ही लिख दी थी. एक सा दर्द… एक सा खालीपन… एक सा ही सूनापन.”मनोजजी, चाय ठंडी हो रही है. कहां रह गए आप?” अनुपमा ने गेट से आवाज लगाई.

“आ रहा हूं अनुपमाजी. बस एक मिनट…” मनोज ने दरवाजे पर कुंडी चढ़ाई और अनुपमा के घर की ओर चल दिए.”कहां रह गए आप? ठंड की वजह से चाय भी ठंडी हो गई है… रुकिए… बस एक मिनट में गरम कर के लाती हूं.””जाने दीजिए, मैं पी लूंगा…””अरे, ऐसे कैसे? मैं हूं न.”

“वो असल में… निक्की का फोन आ गया था. बस, उस से बात करने में वक्त लग गया. वो तो अभी और बात करने के मूड में थी… वैसे तो जल्दी फोन करती नहीं. जब करती है तो जल्दी रखती नहीं… वो तो उस से कहना पड़ा कि तेरी आंटी चाय बना कर इंतजार कर रही है, फोन रख… बाद में बात करते हैं,” कह कर मनोज मुसकराने लगे.

 

“अनुपमाजी, ये रहा आप का डब्बा. मजा आ गया गाजर का हलवा खा कर…” “पसंद आया आप को…””हां बिलकुल… लता भी बहुत अच्छा हलवा बनाती थी.””आप को शायद पता नहीं… मैं ने हलवा बनाना उन्हीं से सीखा था.””अरे वाह…तभी आप के हाथ का हलवा खा कर मुझे लता की याद आ गई.”

मनोज लता को याद कर भावुक हो गए. अनुपमा चाय गरम करने के लिए अंदर चली गई. एक जानीपहचानी सी खुशबू से मनोज की तंद्रा टूट गई.”अरे वाह… घुघरी… अनुपमाजी आप को विश्वास नहीं होगा, आज मुझे घुघरी खाने का बहुत मन कर रहा था.”

” वाह… लीजिए आप की इच्छा पूरी हो गई. बातें तो होती रहेंगी. पहले अब आप गरमागरम घुघरी का आनंद लीजिए.”मनोज गरमागरम घुघरी और अदरक वाली चाय के स्वाद में डूब गए. अनुपमा ने डब्बे को उठाया, तो उन्हें कुछ भारी सा लगा…”मनोजजी… इस डब्बे में कुछ है क्या …”

“वो चौक की तरफ गया था, तो दुकान पर चिक्की मिल रही थी, तो सोचा आप के लिए भी ले लूं. आपके ब्लड प्रेशर की दवा का पत्ता भी उसी में रखा है…”

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