चीन से निकले कोरोना वायरस की दहशत ने दुनिया का चक्का जाम कर रखा है. कामधंधे ठप हैं, व्यापार चौपट हैं और लगभग हर देश अपनी डूबती अर्थव्यवस्था को ले कर चिंतित है. मगर आश्चर्यजनक रूप से चीन ने न सिर्फ कोरोना पर पूरी तरह काबू पा लिया बल्कि 2021 की पहली तिमाही में उस की अर्थव्यवस्था ने गजब का उछाल दर्ज किया है. दुनिया को पीछे छोड़ती चीन के विकास की बुलेट ट्रेन जिस रफ्तार से भाग रही है उस ने अमेरिका और यूरोप की चिंता बढ़ा दी है. भारत तो अब कहीं है ही नहीं.

40 वर्षों में चीन की शानदार आर्थिक और सैन्य वृद्धि के बाद उस का मनमाना रवैया और हर क्षेत्र में चीन का बढ़ता वर्चस्व अमेरिका के लिए खतरे की घंटी है. दुनियाभर के बाजारों पर चीन का कब्जा, बंदरगाहों पर चीनी फौजों का जमावड़ा, उस के परमाणु हथियारों की बढ़ती ताकत, चीनी कर्जे में डूबते जा रहे विकासशील देश, लगातार अपनी सीमाओं को नाजायज तरीके से बढ़ाने की कोशिश और इस सब के बीच अचानक चीन से शुरू हुआ कोरोना बम विस्फोट.

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चीन में यह कब, कैसे और कहां पैदा हुआ, इस का जवाब देने के लिए चीन तैयार नहीं है. वह इस बात की जांच भी नहीं होने देना चाहता है. चीन अपनी लैब में अमेरिकी चिकित्सकों व वैज्ञानिकों की टीम को घुसने की इजाजत देने को तैयार नहीं है. चीन की इस हरकत से अमेरिका का पारा चढ़ा हुआ है. बीते माह दक्षिणपश्चिमी इंग्लैंड में हुए जी-7 सम्मलेन में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने साफ कहा, ‘हम चीन की प्रयोगशाला तक नहीं जा पाए.’

अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन इस बात से चिंतित हैं कि इतना समय बीत जाने पर भी यह साफ नहीं हो सका कि कोरोना वायरस का संक्रमण चमगादड़ से इंसानों में आया या यह संकट चीन की किसी प्रयोगशाला से निकला. चीन इस मामले में लगातार विश्व को गुमराह कर रहा है. वह नहीं चाहता कि बाहर से कोई आ कर उस की प्रयोगशालाओं को खंगाले.

कोरोना के कारण अमेरिका सहित पूरी दुनिया को मानवीय जिंदगियों का ही नहीं, बल्कि भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है. मगर दुनिया को तबाही के मुहाने पर पहुंचाने वाले चीन ने खुद बहुत जल्दी न सिर्फ कोरोना पर कंट्रोल कर लिया बल्कि आर्थिक मोरचे पर भी वह मजबूती बनाए हुए है.

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बीते 2 वर्षों के दौरान कोरोना के कारण कामधंधों पर लगी रोक से जहां दुनिया के हर देश की अर्थव्यवस्था डांवांडोल है, भुखमरी, बेरोजगारी और मौतों का आंकड़ा कम होने का नाम नहीं ले रहा है, वहीं चीन की अर्थव्यवस्था में 2021 की पहली तिमाही में ही रिकौर्ड उछाल दर्ज किया गया है. चीन की जीडीपी विकास दर 2021 की पहली तिमाही में 18.3 फीसदी रही.

कोरोनाकाल में जब दुनिया के बाकी देश कमजोर मांग, लाखों नौकरियां जाने और बंद होते कारोबारों से जू झ रहे हैं, तो वहीं चीन ऐसी अकेली इकोनौमी है जिस में इस कदर उछाल देखा जा रहा है. कहा जा रहा है कि निर्यात और घरेलू बाजार में अच्छी मांग और चीन सरकार द्वारा लगातार छोटे कारोबारियों को सहयोग देने की वजह से यह रिकौर्ड बढ़त हुई है.

दरअसल, दुनिया के 2 बड़े लोकतांत्रिक देशों में से एक अमेरिका फेसबुक, गूगल, ट्विटर जैसे सोशल साइट्स के छद्म खेल में फंस गया है, जबकि दूसरा सब से बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत धर्म, जाति और इस पर आधारित राजनीति व अपराध के दलदल में समा चुका है. दोनों ही जगह लघुकुटीर उद्योग मरने की कगार पर हैं जबकि चीन तकनीक और शारीरिक श्रम के मिश्रण का भरपूर दोहन कर अपने उद्योगों के दम पर बढ़त बनाए हुए है. उस के लोग न तो सोशल मीडिया के गुलाम हैं और न ही धर्म के. चीन का नागरिक समाज एक मेहनतकश समाज है. वहां हर युवा शिक्षित है, उसे तकनीक की अच्छी जानकारी है और वह किसी न किसी छोटेबड़े कुटीर उद्योग से जुड़ा है.

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आज पूरी दुनिया अपनी रोजमर्रा की छोटी से छोटी जरूरत के लिए चीन का मुंह देखती है. चीन दुनिया को सूई से ले कर जहाज तक सप्लाई कर रहा है. अमेरिका में क्रिसमस का त्योहार चाइनीज लाइट के बिना फीका है तो भारत में भगवान की आरती चाइनीज दीयों से होती है. दीवाली में चाइनीज पटाखे फोड़े जाते हैं, चाइनीज दीप जलते हैं, तो होली में रंग खेलने के लिए बच्चों को चाइनीज पिचकारी चाहिए. हमारे प्रधानमंत्री ने ‘मेक इन इंडिया’ का सिर्फ नारा बुलंद किया जबकि पूरी दुनिया में ‘मेड इन चाइना’ का बोलबाला है. आज चीन पूरी दुनिया के लिए एक बहुत बड़ी वर्कशौप बन गया है.

वो कहां और हम कहां

भारत की तरह ही चीन एक बहुत पुरानी और महान सभ्यता है. उस ने भी सदियों तक विदेशी ताकतों की मार सही है. गुलामी में नरक भोगा है, मगर सालों तक दबाए जाने के बाद चीन अब दुनिया के नक्शे पर अपनी चमक बिखेर रहा है. वह आत्मविश्वास से लबालब है क्योंकि उस ने हर विपरीत परिस्थिति को सकारात्मक दिशा दी. उस ने दुनिया के सामने अपनी बढ़ी हुई आबादी का रोना नहीं रोया, बल्कि बढ़ी हुई आबादी को श्रम में लगाया, सब को भरपेट खाना दिया और गरीबी से उबारा.

चीन शिक्षा और तकनीक को गांव की  झोंपड़ी तक ले गया ताकि राष्ट्र की तरक्की में किसी का योगदान छूट न जाए. चीन ने पिछले 30-35 सालों में जिस तेज गति से विकास किया है उस से पूरी दुनिया अचंभित है. रामराज्य की कल्पना भारत में हुई मगर असली रामराज्य चीन में है. वर्ष 1947 में भारत आजाद हुआ और 1949 में पीपल्स रिपब्लिक औफ चाइना बना. 1980 में आर्थिक विकास के महत्त्वपूर्ण पैमाने ग्रास डोमैस्टिक प्रोडक्ट पर चीन और भारत एक ही पायदान पर थे. प्रतिव्यक्ति आय में भारत आगे था मगर आज लगभग 34 वर्षों बाद हम कहां और चीन कहां.

हालांकि, बिना लोकतंत्र के आगे बढ़ रहे चीन की समस्याएं कम नहीं हैं. वहां जनता के पास बहुत सीमित आजादी है. लोग अपनी पसंद का नेतृत्व नहीं चुन सकते. निष्पक्ष न्यायपालिका जैसी कोई चीज चीन में नहीं है. चीन में प्रदूषण लगातार बढ़ा है और इस के खिलाफ आवाज भी नहीं उठाई जा सकती. लेकिन इस सब का यह मतलब भी नहीं है कि चीन से सीखने लायक कुछ भी नहीं है. अब यह हम पर है कि हम चीन से कौन से सबक लेते हैं.

उल्लेखनीय है कि 1981 से 2013 के बीच चीन ने अपने 68 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकाला. मानव इतिहास में इतनी तेजी से इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने कभी गरीबी से अमीरी का सफर तय नहीं किया है.

लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स के आंकड़ों के अनुसार, साल 1978 में चीन का निर्यात सिर्फ 10 बिलियन डौलर था. 1985 में यह 35 बिलियन डौलर हुआ और अगले 2 दशकों के भीतर यह 4.3 ट्रिलियन डौलर तक पहुंच गया. इसी के साथ चीन व्यापार करने वाला दुनिया का सब से बड़ा देश बन गया. वहां के आर्थिक सुधारों का नतीजा यह हुआ कि करोड़ों चीनियों का रहनसहन बेहतर हो गया. इतना ही नहीं, चीन में गरीबी घटने के साथसाथ वहां शिक्षा के स्तर में सुधार भी हुआ. आंकड़े बताते हैं कि साल 2030 तक चीन के 27 फीसदी कामगार यूनिवर्सिटी स्तर की शिक्षा वाले होंगे. यह लगभग वैसा ही होगा जैसा आज जरमनी में है.

इसी दौर की चीनी फिल्मों और साहित्य पर नजर डालें तो वहां कोई रोनाधोना नहीं है, बल्कि श्रम और लड़ाई के तेवर नजर आते हैं. लड़ाई थी गरीबी व गुलामी से और चीन ने उस लड़ाई में विजय पाई है. आज चीन दुनिया का सब से बड़ा एक्सपोर्टर बन कर उभर रहा है. इस का उसे अहंकार भी है. वह आर्थिक महाशक्ति बन रहा है. दुनिया की दूसरी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था कायम कर रहा है. मात्र 3 दशकों के भीतर चीन ने जो ताकत हासिल कर ली है, मानव इतिहास में उस की कोई अन्य मिसाल नहीं है. आखिर इस की वजह क्या है? आखिर चीन ने ऐसा क्या किया कि दुनियाभर के बाजार उस के सामानों से पटे पड़े हैं?

तरक्की की शुरुआत

चीन की तरक्की की शुरुआत हुई 1978 में. पहले चीन की पहचान एक कम्युनिस्ट मुल्क के तौर पर थी. यानी ऐसा देश जहां निजी संपत्ति का अधिकार किसी को न था. जो था वह स्टेट का था. तब कम्युनिस्ट नेता माओ त्से तुंग की साम्यवादी विचारधारा और नीतियां सब से ऊपर थीं. पूंजीवादी सोच को जड़ से खत्म करने के लिए 1966 से 1976 तक माओ त्से तुंग ने एक आंदोलन चलाया जिस का नतीजा यह हुआ कि देश की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई.

1976 में माओ त्से तुंग की मृत्यु के बाद कम्युनिस्ट पार्टी पर डांग श्याओपिंग का नियंत्रण मजबूत हुआ. हालांकि औपचारिक तौर पर उन्होंने चीन की कमान नहीं संभाली लेकिन उन्होंने चीन की अर्थव्यवस्था को कम्युनिस्ट नीतियों से अलग करने की शुरुआत की. इस दौर को ‘पीरियड औफ रिएडजस्टमैंट’ कहा जाता है. इस के तहत विदेशी निवेश के रास्ते खोले गए. विदेश से तकनीकी मदद लेने में कोई गुरेज नहीं किया गया.

डांग श्याओपिंग ने दुनिया के दूसरे देशों के साथ चीन के संबंध सुधारने की शुरुआत की. इस का सब से बड़ा सुबूत था 1979 में अमेरिका का चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देना. इस के साथ ही ब्रिटेन और जापान से भी चीन ने बेहतर रिश्तों की शुरुआत की.

चीन की विदेश नीति में इस बड़े बदलाव की वजह थी डांग श्याओपिंग की आर्थिक सोच. उन का मानना था कि चीन को पूरी तरह सोशलिस्ट बनाने के लिए पहले उस की अर्थव्यवस्था का मजबूत होना जरूरी है और इस की शुरुआत तभी हो सकती है जब चीन की बंद आर्थिक व्यवस्था के दरवाजे पूरी दुनिया के लिए खोल दिए जाएं. डांग श्याओपिंग के मुताबिक समाजवाद का मतलब गरीबी खत्म करना है. मगर कंगाली में जीना समाजवाद नहीं है बल्कि सब को सामानरूप से समृद्ध करना ही असली समाजवाद है. डांग श्याओपिंग की इसी सोच ने चीन को दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने का रास्ता प्रशस्त किया.

चीन को ताकतवर बनाने में 3 नेताओं का नाम लिया जाता है- माओ त्से तुंग, डांग श्याओपिंग और वर्तमान नेता शी जिनपिंग. श्याओपिंग की आर्थिक क्रांति के 40 सालों बाद एक बार फिर से चीन शी जिनपिंग जैसे मजबूत नेता की अगुआई में आगे बढ़ रहा है.

विश्व बैंक के डेटा के अनुसार, वैश्विक कपड़ा निर्यात में चीन की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से भी ऊपर है. मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर, जिसे पूंजीवादी मूल्य उत्पादन का सब से प्रमुख क्षेत्र

माना जाता है, में चीन दुनिया का अग्रणी देश बन चुका है. इस प्रकार चीन ने मैन्युफैक्चरिंग में 110 वर्षों से चले आ रहे अमेरिका के नेतृत्व को पछाड़ दिया है. दुनिया के कुल कच्चे स्टील के उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा चीन का है. इस समय दुनिया के 80 प्रतिशत एयरकंडीशनर, 70 प्रतिशत मोबाइल फोन और 60 प्रतिशत जूते चीन में बनते हैं.

खोले विदेशी निवेश के रास्ते

चीन के महान विचारक लाओत्सू ने कहा था कि ‘हजारों मील की यात्रा के लिए भी पहला कदम रखना जरूरी होता है.’ वर्ष 1978 में चीन ने वह पहला कदम उठाया. विदेशी निवेश के लिए अपने दरवाजे खोले और जिस आबादी को विकास में बाधक माना जाता है उसे चीन ने अपनी ताकत बनाया. उद्योगों को गति दी और सस्ते मजदूरों का लालच दे कर विदेशी निवेशकों को लुभाया.

आज चीन दुनिया का सब से बड़ा एक्सपोर्टर है. उस का सामान लगभग हर देश में बिकता है. इसी एक्सपोर्ट की वजह से चीन के पास सब से बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार भी है. चीन के विकास की कहानी लिखने वालों ने इसी मकसद से वहां की आर्थिक नीतियां बनाईं. एक ऐसी अर्थव्यवस्था, जिस में ज्यादा से ज्यादा विदेशी निवेश हो और जिस में कमाई का मुख्य जरिया एक्सपोर्ट से होने वाली आमदनी हो.

चीन के विकास के इस मौडल में शेनचेन शहर के सेज (एसईजेड) यानी स्पैशल इकोनौमिक जोन्स की अहम भूमिका रही है. चीन का शेनचेन शहर जो कभी एक छोटा गांव हुआ करता था, आज दुनियाभर में इलैक्ट्रौनिक सामानों के लिए ख्यात शहर है. मोबाइल से ले कर टीवी तक शेनचेन में बनते हैं. हायर, तोशिबा और जेबीसी जैसी कंपनियों के एलईडी टीवी शेनचेन की फैक्ट्री में तैयार होते हैं.

शेनचेन की तरह चीन में कुल 6 स्पैशल इकोनौमिक जोन हैं. यहां के सेज काफी बड़े होते हैं. भारत से तुलना की जाए तो जहां भारत में सिर्फ 10 हैक्टेयर जमीन पर भी सेज बन जाता है, वहीं चीन का कोई भी स्पैशल इकोनौमिक जोन 30 हजार हैक्टेयर से छोटा नहीं है. दरअसल, चीन ने जो कुछ भी किया वह बहुत बड़े पैमाने पर किया.

स्पैशल इकोनौमिक जोन के बाद चीन ने अपने राज्यों में स्पैशल डैवलपमैंट जोन बनाए. एक डैवलपमैंट जोन में एक तरह के उत्पाद बनाने वाली फैक्ट्रियां होती हैं. इसलिए अगर चीन का एक राज्य सिर्फ खिलौने बनाने के लिए मशहूर है तो दूसरा होजरी के लिए.

गौरतलब है कि दुनियाभर के व्यापारिक घरानों के साथ ही कई भारतीय कंपनियों ने भी चीन में भारी निवेश किया है. जैसे महिंद्रा एंड महिंद्रा के महिंद्रा ट्रैक्टर ने चीन के यांगचेन में फैक्ट्री लगाने का बड़ा फैसला लिया. कई छोटे निवेशक भी हैं जिन्होंने भारत के बजाय चीन में फैक्ट्री लगाना ज्यादा बेहतर सम झा. इन्हीं में जैकी भगनानी भी हैं जिन्होंने यांगचेन में फैक्ट्री लगाई है.

भगनानी के मुताबिक, चीन का इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत अच्छा है, हर चीज आसानी से उपलब्ध है, बिजनैस इनवायरमैंट है, व्यापारियों के साथ गवर्नमैंट काफी फ्रैंडली है. वहां फैसले जल्दी लिए जाते हैं और ज्यादातर फैसले स्थानीय लैवल पर ही ले लिए जाते हैं. चाहे मामला जमीन अधिग्रहण का हो या सड़क, बिजली, पानी का. जबकि भारत में जमीन अधिग्रहण को एक कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. विस्थापित होने वालों के पुनर्वास पर ध्यान देना पड़ता है.

दरअसल, लोकतांत्रिक देश होने की वजह से जमीन अधिग्रहण और पुनर्वास भारत की सरकार के लिए बड़ा मुद्दा होता है, जो कभीकभी राजनीतिक इच्छा की राह में बड़ा रोड़ा साबित होता है. यहां अधिग्रहण के खिलाफ खड़े हुए आंदोलन से सत्ता पलट दी जाती है, जबकि विकास के शुरुआती दौर से ही चीन की सरकार की नजर आर्थिक विकास पर रही. उस के सामने राजनीति ने किसी भी तरह के विरोध को सिर नहीं उठाने दिया. चीन की राजनीति ने विकास के आगे विरोध और बहस को दरकिनार कर दिया. वहीं आर्थिक निवेश को कभी विचारधारा और राजनीति के चश्मे से नहीं देखा.

चीन अगर आज दुनिया में एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर उभरा है तो उस की वजह है विदेशी निवेशकों के लिए अनुकूल माहौल बनाना, अपने यहां स्किल्ड लेबर तैयार करना, ऐसी नीतियां बनाना जो कारोबार बढ़ाने में मददगार हों और इन सब की मदद से दुनिया की हर वह चीज बनाना जिस की जरूरत लोगों को रोजमर्रा की जिंदगी में पड़ती है.

आयातकों का खास खयाल

चीन में इम्पोर्टर की सुविधा का खास खयाल रखा जाता है. इस की मिसाल है शंघाई से 300 किलोमीटर दूर बसा एक शहर ईवू. ईवू में दुकानें ही दुकानें हैं. ऐसी कोई चीज नहीं जो वहां न मिलती हो. बच्चों के खिलौनों से ले कर लक्ष्मी, गणेश तक सबकुछ. ईवू दुनिया का सब से बड़ा होलसेल मार्केट है, जहां करीब 7.50 लाख दुकानें हैं. इतनी दुकानें कि अगर आप हर दुकान में जा कर सामान देखना चाहें तो आप को एक साल का वक्त लग सकता है. खिलौने, कपड़े, कौस्मैटिक्स, हार्डवेयर के सामान, ज्वैलरी, लैदर गुड से पूरा मार्केट भरा हुआ है. वहां हर साइज, हर क्वालिटी के सैंटा क्लाज, क्रिसमस ट्री और क्रिसमस लाइट्स भी मिलेंगी. दीवाली के दीयेपटाखे, होली के पिचकारी रंग सबकुछ उस होल सेल मार्केट में मिलेगा.

दरअसल,  ईवू का यह होलसेल मार्केट फैक्ट्री और दुनियाभर के आयातकों के बीच की कड़ी है. व्यापारी वहां और्डर देते हैं. और्डर फैक्ट्रियों में बढ़ा दिया जाता है और फैक्टरी से माल सीधे खरीदार के पास एक्सपोर्ट हो जाता है. ईवू में इतनी बड़ी मार्केट बनाने का काम करीब 12 साल पहले शुरू हुआ. इस के पीछे चीन का मकसद साफ था. योजनाबद्ध तरीके से चीन ने पहले फैक्ट्रियां बनाईं और फिर उन के उत्पाद को बेचने की व्यवस्था भी कर दी.

इंपोर्टरों को इधरउधर जाने की जरूरत नहीं और फैक्ट्री मालिकों को भी खरीदार ढूढ़ने की जरूरत नहीं. कम दाम और ज्यादा मुनाफे की चाहत में भारत के थोक व्यापारी बड़ी संख्या में चीन के ईवू शहर में पहुंचते हैं. ईवू आने वाले भारतीय व्यापारियों की संख्या इतनी ज्यादा है कि वहां की एक पूरी सड़क भारतीय रैस्टोरैंट और होटलों से भरी हुई है. शहर में 15 बड़े भारतीय रैस्टोरैंट हैं. चीन में बिजनैस का एक फार्मूला है. वहां कोई भी सौदा छोड़ा नहीं जाता और किसी भी सौदे में नुकसान नहीं उठाया जाता.

आबादी को लगाया देश के विकास में

चीन ने जहां एक तरफ लोगों की समस्याओं को विकास के रास्ते पर नहीं आने दिया, वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोग तैयार किए जो चीन के विकास की सीढ़ी बने, यानी स्किल्ड लेबर या ह्यूमन कैपिटल. चीन में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के साथ ही इस बात पर खास ध्यान दिया गया कि लोगों को ऐसी ट्रेनिंग दी जाए जिस से ज्यादा से ज्यादा कुशल कारीगर तैयार हो सकें. इस बात का अंदाजा इस से लगाया जा सकता है कि चीन में 13 हजार से भी ज्यादा वोकेशनल इंस्टिट्यूट्स हैं जो दुनिया में सब से ज्यादा हैं. स्किल्ड लेबर तैयार करने के साथ ही चीन ने लघु और मध्यम उद्योगों को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाया. आज चीन के निर्यात में करीब 68 फीसदी योगदान लघु व मध्यम उद्योगों का है.

चीन में मीडियम और स्मौल स्केल इंडस्ट्रीज बहुत स्ट्रौंग हैं. वहां के राज्य देखते हैं कि उन के अपने राज्य में स्मौल स्केल इंडस्ट्री को ज्यादा से ज्यादा लोन कैसे दिया जा सकता है, टैक्स बैनिफिट सब्सिडी कैसे दी जा सकती है. लघु और मध्यम उद्योगों को जिस तरह से जमीन और बिजली दी जाती है, जो माहौल और सुविधाएं दी जाती हैं वह शायद ही दुनिया के किसी दूसरे देश में होता हो.

किसी भी विदेशी के लिए चीन में कंपनी बनाना और बिजनैस शुरू करना बेहद आसान है. यही नहीं, कम्युनिस्ट देश होने के बावजूद चीन में कड़े लेबर कानून नहीं हैं. हालांकि इस की वजह से कई बार चीन की निंदा भी होती है.

बीते माह हुए जी-7 सम्मलेन में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने लोकतांत्रिक देशों पर बंधुआ मजदूरी प्रथाओं को ले कर चीन के बहिष्कार का दबाव बनाने की पेशकश की. इस सम्मलेन में चीन के वैश्विक अभियान के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए एक बुनियादी ढांचा योजना का भी अनावरण किया गया मगर इस मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई कि मानवाधिकारों के उल्लंघन पर चीन को किस तरह रोका जाए.

कारोबारी सस्ते लेबर या बंधुआ मजदूरों को चीन के विकास की एक बड़ी वजह मानते हैं. उन को भले ही कई कड़े प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है मगर देश की उन्नति के लिए वे इन प्रतिबंधों के खिलाफ नहीं हैं. मसलन, चीन के कानून के मुताबिक अगर एक प्रांत का मजदूर किसी दूसरे प्रांत में काम करता है तो वह अपने परिवार को साथ नहीं रख सकता और अगर कोई ऐसा करता है तो उस के बच्चे को किसी स्कूल में दाखिला नहीं मिलेगा, स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिलेंगी.

जिनपिंग का ड्रीम प्रोजैक्ट

वैश्विक स्तर पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्त्वाकांक्षी योजना है- ‘वन बैल्ट वन रोड.’ इसे ‘सिल्क रोड इकोनौमिक बैल्ट’ और 21वीं सदी के समुद्री सिल्क रोड के रूप में भी जाना जाता है. यह चीन की एक विकास रणनीति है जो संपर्क (कनैक्टिविटी) पर केंद्रित है. इस के माध्यम से सड़कों, रेल, बंदरगाह, पाइपलाइनों और अन्य बुनियादी सुविधाओं को जमीन व समुद्र के रास्ते एशिया, यूरोप और अफ्रीका से जोड़ने की योजना है.

चीन की मंशा है कि ‘वन बैल्ट, वन रोड’ के माध्यम से एशिया के साथसाथ वह विश्व पर भी अपना अधिकार कायम कर ले. पिछले काफी सालों से चीन के पास स्टील, सीमेंट, निर्माण साधन इत्यादि की सामग्री का भी आधिक्य हो गया है. सो, चीन इस परियोजना के माध्यम से इस सामग्री को भी खपाना चाहता है.

इस योजना के जरिए वह दक्षिणी एशिया एवं हिंद महासागर में भारत के प्रभुत्व को भी कम कर सकता है. इस परियोजना के जरिए चीन सदस्य देशों के साथ द्विपक्षीय सम झौते कर के, उन्हें आर्थिक सहायता एवं ऋण उपलब्ध करा कर उन पर मनमानी शर्तें थोपेगा, जिस के फलस्वरूप वह सदस्य देशों के बाजारों में अपना प्रभुत्व कायम करेगा. कोई शक नहीं कि इस योजना के तहत चीन दुनियाभर के देशों को कर्ज के जाल में फंसाने में भी सफल होगा.

गौरतलब है कि श्रीलंका, पाकिस्तान समेत अफ्रीका के कई देश पहले ही चीन के आर्थिक गुलाम बन चुके हैं. चीन की इस परियोजना के खतरे को खुद पाकिस्तान के एक अखबार ने उजागर किया था. उस का मानना है कि इस परियोजना ने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के अधिकांश क्षेत्रों पर अपना प्रभाव जमा लिया है तथा चीनी उद्यमों और संस्कृति द्वारा समाज में गहराई तक पैठ बना ली है.

भारत इस से सजग तो है और इस का विरोध भी कर रहा है मगर वह विरोध नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह गया है. वर्ष 2017 में जब बीजिंग में ‘बैल्ट एवं रोड फोरम सम्मेलन’ का आयोजन हुआ था तब विश्व के अनेक देशों ने उस में भाग लिया था. उस में अमेरिका एवं जापान सहित अनेक एशियाई देशों ने भी शिरकत की थी मगर भारत ने उस में भाग नहीं लिया क्योंकि ‘वन बैल्ट, वन रोड’ के तहत बनने वाला पाकिस्तान-चीन आर्थिक गलियारा, जो पाक-अधिकृत कश्मीर से हो कर गुजरेगा उस से भारत की संप्रभुता का हनन और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन होता है. मगर भारत के इस विरोध के बावजूद चीन अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने में जुटा हुआ है.

चीन की कुटिल कर्ज नीति

चीन के सरकारी बैंक अपने देश में लोगों को कर्ज देने से ज्यादा दूसरे मुल्क को कर्ज दे रहे हैं. चीनी बैंकों का यह कदम वहां की जिनपिंग सरकार की सोचीसम झी रणनीति का हिस्सा है. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ‘वन बैल्ट वन रोड’ परियोजना के तहत कई देशों में आधारभूत ढांचे के विकास के लिए सम झौते किए हैं और भारी निवेश भी किया है. लिहाजा, वह अपनी कर्ज नीति को बहुत तेजी से आगे बढ़ा रहा है. चीन अपनी कंपनियों को दुनिया के उन देशों में बिजनैस करने के लिए भी आगे कर रहा है जहां से एकतरफा मुनाफा कमाया जा सके.

दक्षिण एशिया के 3 देशों, पाकिस्तान, श्रीलंका और मालदीव पर तो चीन का बेशुमार कर्ज लद गया है. पिछले साल एक अरब डौलर से ज्यादा के कर्ज के कारण श्रीलंका ने चीन को अपना हंबनटोटा पोर्ट भी दे दिया. द सैंटर फौर ग्लोबल डैवलपमैंट की रिपोर्ट के अनुसार, चीनी कर्ज का सब से ज्यादा खतरा पाकिस्तान को है. चीन ने पाकिस्तान को उच्च ब्याज दर पर कर्ज दिया है. आने वाले समय में पाकिस्तान पर चीनी कर्ज का बो झ और बढ़ेगा. गहराई से देखें तो पता चलता है कि पाकिस्तान चीन का आर्थिक उपनिवेश बनता जा रहा है. ग्वादर पोर्ट में पैसे के निवेश की सा झेदारी और उस पर नियंत्रण को ले कर चीन ने 40 सालों का सम झौता किया है. चीन का इस के राजस्व पर  91 फीसदी अधिकार होगा और ग्वादर अथौरिटी पोर्ट को महज 9 फीसदी मिलेगा. जाहिर है अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान के पास 40 सालों तक ग्वादर पर नियंत्रण नहीं रहेगा.

मालदीव बुरी तरह से चीनी कर्ज में फंसता दिख रहा है. मालदीव की घरेलू राजनीति में टकराव है और वर्तमान में मालदीव की सत्ता जिस के हाथ में है उसे चीन का विश्वास हासिल है. मालदीव के सभी बड़े प्रोजैक्टों में चीन व्यापक रूप से शामिल है. मालदीव में चीन कई परियोजनाओं पर काम कर रहा है.

हाल यह हो गया है कि जिन प्रोजैक्टों पर भारत काम कर रहा था उन्हें भी अब ?चीन को सौंप दिया गया है. मालदीव ने भारतीय कंपनी जीएमआर से 511 अरब डौलर की लागत से विकसित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की डील को रद्द कर दिया है. अब चीन मालदीव में 830 करोड़ डौलर की लागत से एक एयरपोर्ट बना रहा है. एयरपोर्ट के पास ही एक पुल भी बन रहा है जिस की लागत 400 करोड़ डौलर है. इतना भारी निवेश करने के बाद क्या चीन मालदीव को छोड़ देगा?

चीन कई देशों को अपने ऊपर निर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. वह जिन अनुबंधों को हासिल कर रहा है वे पूरी तरह से अपारदर्शी हैं. नियम और शर्तों को ले कर स्पष्टता नहीं है. बेहिसाब कर्ज से जहां गलत कामों को बढ़ावा मिलेगा वहीं उन देशों की आत्मनिर्भरता व संप्रभुता खत्म होगी. चीन एशियाई देशों में ही नहीं, बल्कि अफ्रीकी देशों में भी आधारभूत ढांचा विकसित करने में लगा है. उन्हीं देशों में एक देश है जिबूती. जिबूती में अमेरिका का सैन्य ठिकाना है. चीन की एक कंपनी को जिबूती ने एक अहम पोर्ट दे दिया है जिस से अमेरिका नाखुश है.

द सैंटर फौर ग्लोबल डैवलपमैंट का कहना है कि ‘वन बैल्ट वन रोड’ में भागीदार बनने वाले देश जिबूती, किर्गिस्तान, लाओस, मालदीव, मंगोलिया, मोन्टेनेग्रो, पाकिस्तान और तजाकिस्तान चीन के भारी कर्ज के बो झ तले दबे हुए हैं.

दक्षिणपूर्वी एशिया में लाओस गरीब मुल्कों में से एक है. लाओस में ‘चाइना-लाओस रेलवे परियोजना’ को ‘वन बैल्ट वन रोड’ के तहत शुरू किया गया है. इस परियोजना की पूरी लागत 6.7 अरब डौलर है. यानी, यह लाओस की जीडीपी का आधा है. दरअसल, इन देशों ने यह अनुमान तक नहीं लगाया है कि कर्ज से उन की प्रगति किस हद तक प्रभावित होगी. कर्ज नहीं चुकाने की स्थिति में कर्ज लेने वाले देशों को पूरा प्रोजैक्ट चीन के हवाले करना पड़ सकता है. लाओस चीन से कर्ज लेने के जिस रास्ते पर चल रहा है उस में उस की हालत इतनी बदतर हो जाएगी कि वह अंतर्राष्ट्रीय कर्ज हासिल करने की योग्यता खो देगा.

तजाकिस्तान की गिनती भी एशिया के सब से गरीब देशों में होती है जो चीन

के कर्ज के बो झ तले दबा हुआ है. तजाकिस्तान पर कुल विदेशी कर्ज में चीन का हिस्सा 80 फीसदी है. वहीं किर्गिस्तान भी चीन की ‘वन बैल्ट वन रोड’ परियोजना में शामिल है. किर्गिस्तान की विकास परियोजनाओं में चीन का एकतरफा निवेश है. 2016 में चीन ने वहां 1.5 अरब डौलर निवेश किया था. आज किर्गिस्तान पर कुल विदेशी कर्ज में चीन का 40 फीसदी हिस्सा है.

दुनिया के बंदरगाहों पर नजर

इंफ्रास्ट्रक्चर डैवलपमैंट के नाम पर पहले कर्ज देना और फिर उस देश को एक तरह से कब्जे में लेना,  इसे ‘डेट-ट्रैप डिप्लोमैसी’ कहते हैं. ये शब्द चीन के लिए ही इस्तेमाल होता है. चीन अपने प्रभुत्व के विस्तार के लिए कर्ज और कब्जे की रणनीति के तहत एक अंतर्राष्ट्रीय नैटवर्क तैयार कर रहा है. चीन की ऋणजाल कूटनीति का खतरनाक उदाहरण श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह है जो चीनी ऋण का भुगतान न कर पाने के कारण उसे चीन के हवाले करना पड़ा.

पाकिस्तान ने ग्वादर पोर्ट विकास और अन्य प्रोजैक्ट के लिए चीन से अरबों डौलर का कर्ज लिया है. अरब सागर के किनारे पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में चीन ग्वादर पोर्ट

का निर्माण चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना के तहत कर रहा है. पाकिस्तान में सीपेक के जरिए घुसपैठ करने के बाद पाकिस्तान को अपना गुलाम बनाने की चीन की पूरी साजिश तैयार है. कर्ज नहीं चुकाने की स्थिति में वह पाकिस्तान के आर्थिक गलियारे पर कब्जा हासिल करने

के लिए पाकिस्तान को मजबूर कर सकता है.

गौरतलब है कि पाकिस्तान ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपेक) के तहत चीन से 62 अरब डौलर का कर्ज लिया हुआ है लेकिन पाकिस्तान की माली हालत इतनी खराब है कि वह चीन का कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं रह गया है. ग्वादर में चीन अपने 5 लाख चीनी नागरिकों को बसाने के लिए कालोनी भी बना रहा है. चीन ने पाकिस्तान में न सिर्फ 5 लाख चीनी नागरिकों को बसाने  का प्लान बनाया है बल्कि चीन अब पाकिस्तान में अपनी करैंसी भी चलाने की योजना को अमलीजामा पहनाने जा रहा है. यानी, पाकिस्तानी रुपए और डौलर के बाद अब चीनी युआन भी पाकिस्तान में लीगल टैंडर बन जाएगा और पाकिस्तान को अपने प्रभुत्व से सम झौता कर के चीनी मनमानी को सहना पड़ेगा.

चीन की पैनी नजर बंगलादेश के पायरा बंदरगाह पर भी है. बंगलादेश का पायरा बंदरगाह चीन के कब्जे में जा सकता है. दरअसल, दिसंबर 2016 में चीन और बंगलादेश ने ‘वन बैल्ट वन रोड’ को ले कर सम झौता किया था.

चीन की 2 कंपनियां चाइना हार्बर इंजीनियरिंग कंपनी और चाइना स्टेट कंस्ट्रक्शन इंजीनियरिंग कंपनी ने यरा बंदरगाह के मुख्य ढांचे के विकास व अन्य कार्यों के लिए 600 मिलियन अमेरिकी डौलर का निवेश किया. अब इस कर्ज के बदले इस बंदरगाह पर चीन का कब्जा हो सकता है. यह बंदरगाह बंगाल की खाड़ी के तट पर है. चीन इस पर कब्जे से समुद्री जाल बिछाना चाहता है.

नेपाल में घुसपैठ

भारत को घेरने की नीति के तहत वह भारत के सभी पड़ोसी देशों में अपनी पैठ मजबूत कर रहा है. नेपाल को वह अपनी राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक मदद से काबू में ले चुका है. बता दें कि चीन की नीयत को सम झते हुए भी नेपाल चीन की ‘वन बैल्ट वन रोड’ परियोजना में शामिल हो चुका है.

भारत से लगी सीमाओं तक अपनी पहुंच बनाने के लिए चीन नेपाल में रेल और सड़क विस्तार करने जा रहा है. चीन के केरुंग से काठमांडू तक रेलवे ट्रैक के निर्माण में वह बहुत अधिक दिलचस्पी दिखा रहा है. चीन की योजना है कि इस रेल विस्तार को लुंबिनी तक पहुंचाया जाए. हिंदूबहुल देश नेपाल में चीन का दिलचस्पी लेना भारत के लिए काफी खतरनाक है.

हथियारों का बढ़ता जखीरा

आज चीनी अर्थव्यवस्था विश्व की दूसरी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है. शंघाई की चमक विश्व के सब से विकसित देशों के शहरों को टक्कर देती है. चीन की सैन्य क्षमता बढ़ने से वैश्विक स्तर पर उस की धमक बढ़ी है. इस समय विश्व में घातक परमाणु हथियार इकट्ठा करने की होड़ लगी हुई है. स्टौकहोम स्थित अंतर्राष्ट्रीय शांति अनुसंधान संस्थान (एसआईआरआई) के एक अध्ययन के अनुसार, चीन के पास 350, पाकिस्तान 165 और भारत के पास जनवरी 2021 तक 156 परमाणु हथियार मौजूद थे. ऐसा लगता है कि ये तीनों पड़ोसी देश अपने परमाणु शस्त्रगारों का विस्तार कर रहे हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, इस समय 13,080 परमाणु हथियार दुनिया के देशों के पास हैं. इन में 90 प्रतिशत से ज्यादा रूस और अमेरिका के पास हैं. इन के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस, इसराईल और उत्तरी कोरिया के पास भी हथियारों का बड़ा जखीरा है. चीन परमाणु हथियारों की संख्या के बढ़ाने के साथ उन का तकनीकी रूप से आधुनिकीकरण भी कर रहा है. सऊदी अरब, मिस्र, भारत, आस्ट्रेलिया और चीन ने 2016 से 2020 के बीच सब से ज्यादा हथियार आयात किए हैं.

चीनी खतरे से दुनिया चिंतित

चीन दुनिया की प्रमुख सैन्य और आर्थिक शक्ति बन रहा है जिस की राजनीति, रोजमर्रा की जिंदगी और समाज पर सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी की मजबूत पकड़ है. चीन के पास इस वक्त दुनिया में सब से बड़ी सेना मौजूद है, जिस में करीब 20 लाख सैनिक सक्रिय ड्यूटी पर हैं. हाल ही में ब्रसेल्स में नाटो नेताओं की बैठक में कहा गया है कि चीन की महत्त्वाकांक्षाएं और हठधर्मिता दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय नियमों पर आधारित व्यवस्था को चुनौती पेश कर रही हैं. चीन के व्यवहार में पारदर्शिता की कमी और दुष्प्रचार के इस्तेमाल से दुनिया चिंतित है. नाटो चीन की बढ़ती सैन्य क्षमताओं को ले कर भी लगातार फिक्रमंद होता जा रहा है. यह संगठन चीन की ताकत को अपने सदस्य मुल्कों की सुरक्षा व उन के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरे के तौर पर देखता है. हाल के सालों में चीन की अफ्रीका में बढ़ती गतिविधियों से भी नाटो चिंतित है.

चीन ने अफ्रीका में कई सैन्य ठिकाने बना लिए हैं. गौरतलब है कि नौर्थ अटलांटिक ट्रीटी और्गनाइजेशन को नाटो के नाम से जाना जाता है जो दुनिया का सब से ताकतवर क्षेत्रीय रक्षा गठबंधन है. 1949 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वामपंथी विस्तार के खतरे का सामना करने के लिए इस का गठन हुआ था. शुरुआत में इस के 12 सदस्य थे जो अब 30 हो चुके हैं. बीते 15 जून को इस की बैठक ब्रसेल्स में हुई जिस में सब से ज्यादा चर्चा चीन से उत्पन्न खतरे को ले कर हुई.

 

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