उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. सभी राजनीतिक पार्टियां चुनाव की तैयारियों में जुटने लगी हैं, बंद कमरों में गुप्त मीटिंगें हो रही हैं, कुछ के आंतरिक कलह खुल कर सामने भी आने लगे हैं. इस बीच जमीन पर जनता क्या सोच रही है, उस का क्या मूड है, जानने के लिए पढ़ें यह ग्राउंड रिपोर्ट. देहाती कहावत है कि हांडी के चावल पके हैं या कच्चे हैं, यह देखने के लिए पूरी हांडी के चावल निकालने की जरूरत नहीं होती, केवल चावल का एक दाना ही पूरी हांडी के चावल का हाल बता देता है.
गांव में दलितपिछड़ा राजनीति में जो बर्फ 1990 से 2010 तक जमी थी वह 10 सालों में कितनी पिघल गई है, इस को सम झने के लिए जब नंदौली गांव के लोगों से बात की गई तो सम झ आया कि दलितपिछड़ों में अब पहले जैसी दूरी नहीं रह गई है. दलितपिछड़ों में घटती दूरी के परिणामस्वरूप 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों में नए समीकरण बनने की उम्मीद दिख रही है. यही वजह है कि बसपा से टूटने वाले विधायकों की पहली पसंद सपा बन गई है.
ये भी पढ़ें- पश्चिम परेशान, चढ़ता चीन
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मोहनलालगंज इलाके का एक गांव है नंदौली. यह जिले का सीमावर्ती गांव है. इस गांव के बाद ही रायबरेली का जिला शुरू हो जाता है. दलित और पिछड़ा समाज के जमीनी सच को सम झने के लिए नंदौली गांव को बातचीत के लिए इस कारण चुना क्योंकि यह राजधानी से मात्र 50 किलोमीटर की दूरी पर ही बसा है. यह लखनऊ-रायबरेली मुख्यमार्ग से 6 किलोमीटर अंदर है. इस गांव में दलित, पिछड़ा, मुसलिम और सवर्ण आबादी है. दलित आबादी सब से ज्यादा है. यहां बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और भाजपा का प्रभाव रहता है.
गांव की आबादी करीब 2,000 लोगों की है. 1,450 यहां वोटर हैं. सवर्णों में ठाकुर बिरादरी है. दलितों में पासी, चमार और अन्य जातियां हैं. इसी तरह पिछड़ों में अन्य पिछड़ा वर्ग की गड़रिया जाति है. इस के अलावा मुसलिम हैं. इस गांव में पिछड़ी आबादी तो कम है लेकिन पहले कांग्रेस, बाद में बसपा का समर्थन करने वाले दलित भी बिना किसी भेदभाव के सपा के साथ खड़े होते रहे हैं. दलित और पिछड़ों मे आपसी दूरियां कम होती रही हैं. गांव के पंचायत चुनाव से ले कर विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में इस बात को कसौटी पर कस कर देखा जा सकता है. पंचायत चुनावों में यहां 1990 में शीतला बक्श सिंह, 1995 में राम बहादुर रावत, 1999 में जगन्नाथ, 2005 में चंदा देवी, 2010 में रीना सिंह, 2015 में अमृत लाल और 2019 में रीना सिंह प्रधान चुनी गई थीं.
ये भी पढ़ें- भारत भूमि युगे युगे: किसके बेबी का बम्प
नंदौली गांव के पंचायत चुनावों से ले कर मोहनलालगंज विधानसभा चुनाव तक एकजैसे नतीजे ही दिखे हैं. इस से यह भी पता चलता है कि गांव के लोग सामाजिक समरसता की सोच रखते हैं. किसी भी तरह के भुलावे या नेता की हवा में आ कर वोट नहीं देते हैं. गांव पूरी तरह से खेती पर निर्भर है. गरीब गांव है. कुछ घरों को छोड़ दें, तो कच्चे मकान अधिक हैं. आर्थिक हालत सभी की करीबकरीब एकजैसी ही है. किसानी केवल पेट पालनेभर की है. राजधानी के करीब होने के बाद भी गांव में केवल एक ही सरकारी नौकर है. वह भी केवल स्कूल मास्टर. पहले इस गांव में 3 सरकारी शिक्षक और 3 लोग रेलवे में सरकारी नौकरी करते थे. सरकारी योजना का लाभ पा कर दलितों के कुछ घरों में पक्की छत पड़ गई है.
यहां के रहने वाले लोग राजनीतिक रूप से काफी सम झदार हैं. गांव के पंचायत चुनावों में ही नहीं, विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भी ग्रामीणों की रुचि रहती है. 1990 के करीब इस गांव में पक्की सड़क का निर्माण हुआ. इस के बाद ही बिजली आई. गांव में सड़क और बिजली आने के बाद भी बहुत विकास नहीं हो पाया है. सरकारी स्कूल कक्षा 8 तक है. गांव में शिक्षा का स्तर काफी कम है. रोजगार नहीं है. गांव के युवाओं में नशे की लत भी उन के पिछड़ेपन का बड़ा कारण है. इस के साथ ही, कई युवा ऐसे भी हैं जो जागरूक हैं. वे राजनीतिक रूप से प्रगतिशील सोच रखते हैं. युवावर्ग में सपा नेता अखिलेश यादव के प्रति लगाव है. पिछड़े ही नहीं बल्कि अगड़े, मुसलिम और दलितवर्ग के लोग भी उन को बेहतर नेता मानते हैं. पहले यहां के लोग कांग्रेस, मायावती और भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेई के प्रति रुचि रखते थे.
ये भी पढ़ें- नया केबिनेट भाजपा,संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अग्नि परीक्षा
2017 के बाद कुछ युवाओं में योगी आदित्यनाथ के प्रति लगाव बढ़ा पर गांव में खेतों को नुकसान पहुंचाने वाले छुट्टा जानवरों के कारण योगी से इन की नाराजगी बढ़ गई. गांव के लोगों का मानना है कि योगी की यह सोच किसानों को सब से अधिक नुकसान पहुंचा रही है. इस सोच के कारण ही पंचायत चुनावों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा. कोरोना के समय जिस तरह के गांव के लोगों को अस्पताल दर अस्पताल भटकना पड़ा, वह दर्द कम नहीं हो रहा है. रोजीरोजगार चाहते हैं युवा सब से बड़ी बात यह है कि यहां के वोटर बहुत सम झदारी के साथ समय को देखते हुए बसपा, सपा और भाजपा के बीच वोटिंग करते रहते हैं. इन का झुकाव हमेशा ही बसपा और सपा के प्रति रहा है. दलितपिछड़ा राजनीति को सम झने के लिए गांव के युवाओं से बात की तो उन के विचार निकल कर सामने आए.
अस्फान खान नंदौली गांव के रहने वाले हैं. खेती करते हैं. उन का कहना है, ‘‘हम अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं. आगे बढ़ाना चाहते हैं. हम ने हमेशा अच्छी राजनीतिक सोच को बढ़ावा दिया है. जिस दल ने अच्छा काम किया उस के साथ रहे. बसपा और फिर सपा के नेताओं ने हमारे गांव में अच्छा काम किया. हम उन के साथ हैं. हम लोग कभी भी जाति व धर्म के बहकावे में नहीं आते हैं.’’ दलित जाति के राजेश कुमार रावत शिक्षित बेरोजगार हैं. वे कहते हैं, ‘‘हमारे गांव के विकास में सपा का विशेष योगदान रहा है. क्षेत्र के विधायक समाजवादी पार्टी के अंबरीश पुष्कर हैं. वे हम लोगों के हर सुखदुख में खड़े रहते हैं. हम दलित और पिछड़ा वर्ग का कोई भेदभाव नहीं करते. जो हमारे गांव के विकास की सोच रखता है, पंचायत चुनाव से ले कर विधानसभा व लोकसभा तक हम उसी को वोट देते हैं. अखिलेश की सरकार ने युवाओं को लैपटौप दे कर उन की सोच को बदलने का काम किया था.
लोगों में यह भावना बनी थी कि उन को रोजगार मिलना चाहिए. बच्चों में पढ़ने की भावना जाग्रत हुई थी.’’ ओबीसी जाति के रामसेवक पाल पढ़ेलिखे बेरोजगार हैं. वे कहते हैं, ‘‘हमारा गांव बेहद गरीब है. यहां रोजीरोजगार नहीं है. पशुपालन और खेती पर हम लोग निर्भर रहे हैं. जिस तरह से महंगाई बढ़ रही है, हमें खेती में लागत भी नहीं मिल रही. सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था. अब किसान निधि दे कर पुराने वादे को भूल गई है. किसान को निधि नहीं, अपनी फसल का अच्छा मूल्य चाहिए. किसान तभी संपन्न होगा जब खेती मजबूत होगी. खेती छोड़ कर न किसान मजबूत होगा और न ही उस का विकास होगा.’’ जातीय भेदभाव नहीं नंदौली गांव में रहने वाले शिक्षक व समाजसेवी इंद्र प्रताप सिंह कहते हैं, ‘‘गरीबी में जीवन जीने के बाद भी हमारे गांव के लोगों की सोच किसी भी तरह के जातीय भेदभाव वाली नहीं रही है. यही कारण है कि हर जाति के लोग अपनी सोच व पहचान के साथ रहते हैं.
ये भी पढ़ें- ममता बनर्जी का भविष्य!
दलित, सवर्ण और पिछड़ा किसी के बीच कोई जातीय वैमनस्यता नहीं है. राजनीतिक कारणों से जब कभी कोई इस तरह का काम करना भी चाहता है तो गांव के लोग उस को नकार देते हैं. कभी उस को समर्थन नहीं देते. हम गांव वाले सरकार के कामकाज का सही आकलन करते हैं. यहां के विधायक हमेशा सपा-बसपा से ही जीतते रहे हैं. ऐसे में गांव के लोग दलों से कम नेता से अधिक जुड़ते रहे हैं. केवल चुनावी भाषण से गांव के लोगों को बहकाया नहीं जा सकता.’’ गांव में ठाकुर जाति के आशीष सिंह खेती और रोजगार से जुड़े हैं. वे कहते हैं, ‘‘हमारे गांव के लोग जागरूक हैं. पीढि़यों से इस गांव में दलित, पिछड़ा और मुसलिम साथसाथ रहते आ रहे हैं. कभी कोई जाति या धार्मिक झगड़ा नहीं हुआ.
राजनीतिक रूप से अलगअलग दलों के साथ भले रहे हों पर वोट के समय कोई ऐसा विवाद कभी नहीं हुआ. सभी जाति और धर्म के लोग आपसी सम झदारी से रहते हैं. कभी कोई भेदभाव या छुआछूत नहीं रहा है. खेती के कानून को ले कर क्या अच्छा है, क्या बुरा है, हम गांव के लोग उस पर भी नजर रखे हैं.’’ मिलजुल कर लड़ते हैं गरीबी से नंदौली गांव में भले ही संपन्नता न दिखती हो पर यहां के रहने वाले आपस में मिलजुल कर एकदूसरे की मदद करते हैं. गरीब से गरीब की मदद गांव के ही दूसरे लोग करने को तैयार रहते हैं. गांव के रहने वाले सत्तन गौतम कहते हैं, ‘‘चुनाव के समय थोड़ी दूरी भले ही दिख जाए पर चुनाव खत्म होते ही आपसी मेलजोल बन जाता है. इस वजह से कभी कोई परेशानी आती है तो सब एकजुट हो जाते हैं. दलित और पिछड़ों में भेदभाव नहीं है. राजनीतिक रूप से हम उसी को वोट देते हैं जो गांव के दुख व मुसीबत में साथ खड़ा हो.’’ युवा मनोज गोस्वामी कहते हैं, ‘‘सरकार को बेरोजगारी दूर करने के लिए काम करना चाहिए. गांव के गरीब लोग अपना जीवनयापन कर सकें,
इस के लिए महंगाई कम हो. खेती में प्रयोग होने वाले सामान बीज, खाद, डीजल और दवाएं सस्ती हों, हम ऐसी सरकार चाहते हैं. थाने और तहसील में जल्द न्याय मिल सके, ऐसी व्यवस्था हो. नेता वही है जो हमारा फोन हमारी जरूरत के समय उठा ले और हमारी मदद कर सके. हम ऐसे नेता को ही वोट देते हैं.’’ महत्त्वपूर्ण है इलाका उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मोहनलालगंज इलाके का अपना महत्त्व है. महत्त्व इस कारण से है कि मोहनलालगंज विधानसभा की सीट भी है और लोकसभा की भी. इस का राजनीतिक महत्त्व इस कारण और भी बढ़ जाता है कि यह सुरक्षित सीट है. यहां से निकले राजनीतिक निहितार्थ पूरे प्रदेश और देश तक में अपना प्रभाव दिखाते हैं. मोहनलालगंज विधानसभा और लोकसभा सीट के परिणाम देखें तो साफ लगता है कि पहले यहां कांग्रेस का प्रभाव दिख रहा था.
1990 के बाद कांग्रेस का जनाधार खत्म होने के बाद यहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का प्रभाव दिखने लगा. विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनावों में यह साफ होता गया. विधानसभा चुनावों को देखें तो 1993 में संत बक्श रावत समाजवादी पार्टी से विधायक थे. इस के बाद 1996 में बसपा से आर के चौधरी विधायक चुने गए. आर के चौधरी दलितवर्ग से हैं. उन का अपना जनाधार था जिस की वजह से 2002 और 2007 में वे निर्दलीय चुनाव जीते. 2012 में यह सीट समाजवादी पार्टी के खाते में गई. इस साल चंद्रा रावत विधायक बनीं. 2017 में जब पूरे प्रदेश में भाजपा की सुनामी चल रही थी तो भी भाजपा यहां से हार गई और सपा के अंबरीश सिंह पुष्कर यहां से विधायक चुने गए. इसी तरह लोकसभा चुनावों में देखें तो 1991 में जब राममंदिर का आंदोलन चरम पर था तब यहां भारतीय जनता पार्टी के छोटे लाल सांसद चुने गए. उस के बाद 1996 में भाजपा की पूर्णिमा वर्मा चुनाव जीतीं.
उस के बाद के चुनाव में यहां समाजवादी पार्टी का कब्जा हो गया. 1998 और 1999 में सपा के टिकट से रीना चौधरी सांसद रहीं. सपा से ही 2004 में जयप्रकाश रावत और 2009 में सुशीला सरोज सांसद चुनी गईं. 2014 में यह सीट भारतीय जनता पार्टी के खाते में गई. कौशल किशोर सांसद बने. इस के बाद 2019 के चुनाव में भी कौशल किशोर ही सांसद बने. लोकसभा के चुनाव में भले ही भाजपा यहां यदाकदा चुनाव जीतती रही पर विधानसभा के चुनाव में भाजपा यहां अपना विधायक नहीं जिता पाई. वजह यह थी कि विधानसभा के चुनावों में यहां भाजपा से अधिक जनता का भरोसा सपा-बसपा पर रहा. यहां बसपा का वोटर सपा के साथ भी आसानी से घुलमिल जाता है.
विकल्प के रूप में यहां का वोटर सपा-बसपा के बीच रहता है. अगर पंचायत चुनावों को देखें तो गांवों के लोग भी सपा-बसपा में आतेजाते रहते हैं. साल 2000 के पहले इस क्षेत्र में बसपा का प्रभाव था पर इस के बाद यहां सपा का प्रभाव बढ़ने लगा. 2016 के पंचायत चुनावों में सपा की विजयलक्ष्मी यहां ब्लौक प्रमुख थीं. बसपा से सपा में आ रहे नेता बसपा के कई विधायक चोरीछिपे समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव से मिल रहे हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि बसपा के वोटरों को इस बात का अंदेशा है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में मायावती और भाजपा के बीच छिपा हुआ तालमेल चल रहा है. बसपा को वोट देने का मतलब भाजपा की मदद करना है. भाजपा से गांवगांव के लोग नाराज हैं.
पंचायत चुनाव में भाजपा की करारी हार से यह साबित हो चुका है. भाजपा भले ही लीपापोती करने की कोशिश करे पर जनता को बहका नहीं सकती है. जनता का यही रुख देख कर बसपा के विधायक अब सपा की तरफ आना चाहते हैं. असल में अगर योगी और मायावती के मुकाबले अखिलेश यादव की तुलना की जाए तो उन को इन नेताओं से अधिक मिलनसार व सम झदार माना जाता है. वे अपने दल की ही नहीं, जनता की बात को भी सुनते हैं. विधायक ऐसे नेता को ही चाहते हैं जो उन की बात को सुन कर फैसला ले. अखिलेश के रूप में समाजवादी पार्टी के पास बसपा और भाजपा दोनों में से अधिक प्रभावशाली नेता है. वे केवल उत्तर प्रदेश स्तर पर ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी रचनात्मक सोच रखते हैं. पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी को सब से पहले समर्थन देने वाले नेताओं में अखिलेश यादव का नाम सब से पहले रहा है. अखिलेश की दूसरी बड़ी खूबी यह रही है कि वे विरोधियों को भी सम्मान देते रहे हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के साथ गठजोड़ कर भाजपा के खिलाफ लड़ाई को मजबूत करने का प्रयास किया था. इसी तरह से 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा की प्रमुख विरोधी मायावती के साथ गठजोड़ किया.
जिस मायावती और मुलायम सिंह यादव के बीच छत्तीस का आंकड़ा था उन्हीं से अखिलेश ने सहज भाव से गठजोड़ किया. इस का लाभ भी लोकसभा चुनाव में मायावती को हुआ. बसपा को लोकसभा में 10 सीटें मिल गईं. सपा के खाते में 5 सीटें गई थीं. इस के बाद भी मायावती ने सपा से अपना गठजोड़ खत्म कर दिया. 2022 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सब से मजबूत विपक्ष के रूप में अखिलेश यादव ही सब से आगे हैं. ऐसे में बसपा के विधायकों को लगता है कि सपा ही उन के लिए सब से मुफीद पार्टी होगी. बसपा के एक विधायक नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘
‘मायावती की सौदेबाजी हमेशा पार्टी के हित में नहीं रही है. कांशीराम के समय जो दूरियां दलितपिछड़ों में थीं, अब वे नहीं रह गई हैं. जमीनी स्तर पर तमाम हालात पहले जैसे नहीं हैं. पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों को यह सम झ आ गया है कि भाजपा मायावती के साथ मिल कर सौदेबाजी कर के उन के वोट ले लेती है. जब भाजपा अपने दल के दलित और पिछड़ों को कुछ नहीं दे रही तो बाहरी नेताओं को क्या देगी? ‘‘भाजपा ने राजभर, अपना दल जैसे दलों का प्रयोग वोट लेने के लिए किया, पर जैसे ही वोट मिल गए और सरकार बन गई तो सत्ता की भागीदारी में कोई हिस्सा दलितपिछड़ों को नहीं दिया. ऐसे में जब मायावती भाजपा के साथ सौदेबाजी करती दिख रही हैं तो बसपा के विधायकों को भी पूरा हक है कि वे अपनी मरजी से समाज के हित वाले फैसले लें.’’