लेखक-अरविंद कुमार सिंह

कृषि प्रधान भारत में आजादी के बाद सभी सरकारें खेतीबारी को अपेक्षित महत्त्व देती रही हैं. लेकिन कृषि उत्पादन बढ़ने के बाद भी किसानों का आर्थिक पक्ष वैसा मजबूत नहीं हो पाया, जो अपेक्षित था. इसी नाते समयसमय पर तमाम आंदोलन हुए. कृषि क्षेत्र की मजबूती के लिए कई उपाय विभिन्न मौकों पर तलाशे गए, जिस में खाद्य प्रसंस्करण सुविधाओं का विकास भी शामिल है. भारत में खाद्य प्रसंस्करण को विशेष महत्त्व देते हुए तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने जुलाई, 1988 में खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय की स्थापना की. उसी के बाद से भारत में इस क्षेत्र को महत्त्व मिलना आरंभ हुआ.

बाद में इसे 15 अक्तूबर, 1999 को इस की हैसियत मंत्रालय से कृषि मंत्रालय के विभाग की बना दी गई लेकिन जब इस का काफी विरोध हुआ तो सरकार ने 6 सितंबर, 2001 को फिर से मंत्रालय बना दिया गया. लेकिन इस क्षेत्र को अपेक्षित संसाधन न मिलने के कारण अभी भी किसानों के सामने कई समस्याएं हैं और सभी क्षेत्रों में फसल कटाई के बाद काफी बरबादी देखने को मिलती है. इस समय भारत दूध, घी, दालों, अदरक, केला, अमरूद, पपीता और आमों के उत्पादन में विश्व में पहले नंबर पर है, वहीं धान, गेहूं और कई फलसब्जियों के मामले में दूसरे नंबर पर है.

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इस नाते अगर खाद्य प्रसंस्करण को ठीक से गति मिले, तो हम न केवल दुनिया की अग्रणी शक्ति बन सकते हैं, बल्कि इस से किसानों की आय बढ़ने में भी काफी मदद मिल सकती है. खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय के तहत विभिन्न कृषि उत्पादों की प्रोसैसिंग और रेफ्रीजरेशन आता है. इस में अनाज, फल और सब्जियों, दुग्ध उत्पाद, पशु और पोल्ट्री उत्पादों के साथ मछली आदि भी शामिल हैं. अनाजों की मिलिंग उद्योग भी इसी के तहत ही आता है. भारत असिंचित भूमि के मामले में विश्व में 10वें नंबर पर और सिंचित भूमि में 5वें नंबर पर है. भारत को दुनिया की तकरीबन सभी तरह की जलवायु, सूर्य के प्रकाश की लंबी अवधि और अच्छी बारिश का सुयोग है, जो पूरे साल खेती के लिए आदर्श है.

भारत के पास सब से अधिक पशुधन है. बकरी और भेड़ के मामले में भी यह दूसरे नंबर पर है. कम लागत के साथ खाद्य प्रसंस्करण उद्योग अपेक्षाकृत अधिक संख्या में लोगों को रोजीरोटी दे रहा है और किसानों के लिए भी मददगार है. गैरपंजीकृत मैन्यूफैक्चरिंग इकाइयों में 14.18 फीसदी रोजगार इसी क्षेत्र में है. समग्र रूप से इस उद्योग में 19.33 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है. राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी, 2020 के मुताबिक, 2018-19 में खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों का जीवीए या सकल मूल्य वर्धन 2.08 लाख करोड़ रुपए था. यह कृषि क्षेत्र के जीवीए का तकरीबन 11.11 फीसदी था. संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति पिछले काफी समय से इस क्षेत्र पर खास गौर करती रही है. इस समिति का नेतृत्व 2014-15 से भाजपा ने अपने हाथों में ले रखा है, जबकि पहले अधिकतर विपक्षी सांसद इस के अध्यक्ष रहे. 16वीं लोकसभा में बिहार से भाजपा सांसद हुक्मदेव नारायण यादव इस के अध्यक्ष थे,

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जबकि 2019 से कर्नाटक के सांसद पर्वतगौड़ा चंदनगौड़ा गद्दीगौदर के पास इस का नेतृत्व है. दिसंबर, 2014 में समिति ने कहा था कि देश के सामने एक प्रमुख समस्या उन की उपज का लाभकारी मूल्य मिलने की है. अधिक उत्पादकता एक प्रगतिशील कृषि क्षेत्र का आवश्यक घटक है. लेकिन मूल्यवर्धन सुनिश्चित करता है कि बरबादी कम हो और गुणवत्ता के उत्पाद बाजार पहुंचे. एक सशक्त और गतिशील खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र कृषि के विविधीकरण और वाणिज्यीकरण में अहम भूमिका निभाता है और उत्पादों की सैल्फ लाइफ बढ़ाने के साथ रोजगार के अवसर देता है. स्वाभाविक है कि इस से किसानों की आय भी बढ़ती है. इस बीच समिति ने लगातार इस पर ध्यान दिया और कई अहम सु झाव दिए, लेकिन कुल मिला कर तसवीर बहुत उत्साहजनक नहीं है. हाल ही में स्थायी समिति ने खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय की अनुदान मांगों की समीक्षा में कई मुद्दों पर गौर किया. मंत्रालय ने 2021-22 के दौरान 3490.07 करोड़ रुपए की मांग की थी, लेकिन उसे वित्त मंत्रालय से केवल 1308.66 करोड़ रुपए का आवंटन मिला. मंत्रालय को 2018-19 में एक हजार करोड़ रुपए का आवंटन हुआ,

लेकिन खर्च 719.17 करोड़ रुपए हुए, वहीं 2019-20 में 1042.79 करोड़ रुपए आवंटन की तुलना में खर्च 845.54 करोड़ रहा. 2020-21 में आवंटन 1247.42 करोड़ रुपए था, लेकिन 15 जनवरी, 2021 तक कुल खर्च 668.16 करोड़ रुपए ही हुआ था. समिति ने मौजूदा आवंटन को बेहद कम माना, लेकिन इस बात पर भी असंतोष जताया कि जो आवंटन हो रहा है, मंत्रालय उस का उपयोग नहीं कर पा रहा है. समिति के समक्ष मंत्रालय ने माना कि भारत में खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र पर कोविड-19 का प्रतिकूल असर लौकडाउन के पहले चरण में बुरी तरह पड़ा था. लेकिन चूंकि इस संकट में भी कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन ही देश में सब से बेहतरीन रहा. इस कारण तसवीर बदली.

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खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र से निर्यात काफी बढ़ा. समिति के समक्ष खाद्य प्रसंस्करण सचिव ने यह दावा भी किया कि ठेका खेती और आवश्यक वस्तु कानून में संशोधन से इस के सामने नई संभावनाएं बनी हैं, लेकिन किसान संगठन इसे खारिज करते हैं. खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय की सब से अहम योजना मैगा फूड पार्क रही है. इस के तहत खेत से बाजार तक आधुनिक आधारभूत ढांचा विकसित किया जाना था. प्राथमिक खाद्य प्रसंस्करण केंद्रों की स्थापना से ले कर कई योजनाएं इस में शामिल रही हैं. लेकिन 2017 में एक नई योजना 100 एग्रो प्रोसैसिंग क्लस्टर्स की स्थापना को अधिक महत्त्व दिया गया. प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना के तहत इसे साकार करने की तैयारी की गई, लेकिन बाद में लक्ष्य 100 से घटा कर 75 कर दिया गया और इस क्षेत्र का आवंटन 750 करोड़ रुपए से घटा कर 562.50 करोड़ रुपए कर दिया गया. एक क्लस्टर में कम से कम पांच खाद्य प्रसंस्करण इकाई होंगे. प्रति क्लस्टर न्यूनतम निवेश 25 करोड़ रुपए होगा.

सरकार की सोच है कि इस से फसल कटाई के बाद की हानियों को कम करने में मदद मिलेगी. इस मंत्रालय के तहत एक नई योजना आपरेशन ग्रींस 2018-19 के बजट में 500 करोड़ रुपए के आवंटन के साथ आरंभ की गई. इस के दायरे में टमाटर, आलू और प्याज की सुरक्षा रही है, जिस से बाजार में इन की कीमतें कम हों तो किसानों की मदद हो सके. लेकिन यह बुरी तरह फेल रही. इस के तहत 2018-19 से 2020-21 के दौरान 327 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया, जिसे संशोधित कर 268.23 करोड़ रुपए किया गया, लेकिन कुल खर्च महज 29.91 करोड़ रुपए रहा. योजना में बाद में तमाम हेरफेर भी किए गए हैं, लेकिन इसे जिस इरादे से शुरू किया गया था, उस से वह काफी दूर है. अलबत्ता, जून, 2020 के दौरान एक नई योजना प्रधानमंत्री एफएमई (प्रधानमंत्री माइक्रो फूड प्रोसैसिंग एंटरप्राइजेज) शुरू की गई. इस के तहत 10,000 करोड़ रुपए की लागत से साल 2020 से 2025 के बीच साकार करना है. इस से 2 लाख इकाइयों को क्रेडिट लिंक्ड सब्सिडी के तहत फायदा पहुंचाने का विचार है.

योजना के तहत इस में आधुनिकीकरण कराने वाली इकाइयों के शामिल होने का रास्ता भी खोला गया है. लेकिन संसदीय समिति ने माना है कि इस के लिए बहुत सीमित धन आवंटन किया गया है. समिति ने 2021-22 में 2,300 करोड़ रुपए आवंटित करने की सिफारिश की है. इसी तरह ‘एक जिला एक उत्पाद’ नई योजना का लक्ष्य बड़ा है, लेकिन इस की आरंभिक तैयारियां अभी चल रही हैं और इस के लिए 103.83 करोड़ रुपए की राशि 25 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को दी गई है.

संसदीय समिति ने अपनी 2019-20 और 2020-21 की रिपोर्ट पर सरकारी कार्यवाही रिपोर्ट में इस बात पर असंतोष जताया था कि 39 मैगा फूड पार्क परियोजनाओं में केवल 11 ही पूरे हो सके और मंत्रालय इस में सफल नहीं रहा. राज्य सरकारों का सक्रिय सहयोग इस में बाधा रहा. समिति की राय में इस मामले में सिंगल विंडो व्यवस्था होनी चाहिए और इस दिशा में जरूरी कदम उठे. मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड, पंजाब, ओडिशा, राजस्थान, बिहार, उत्तराखंड ने सिंगल विंडो सिस्टम भी बना दिया. मैगा फूड पार्कों के असर पर एक कंसल्टेंसी एजेंसी केपीएमजी को 7 जनवरी, 2020 को एक परियोजना सौंपी गई थी, लेकिन कोविड 19 के नाते उस की रिपोर्ट में देरी हुई.

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