दरख्तों पे बुलबुल अब आती नहीं हैं
नगमे मुहब्बत के गाती नहीं हैं
सहमती हैं किरणें उतरते सुबह की
कलियों को अब गुदगुदाती नहीं हैं
भौंरे भी अब गुनगुनाते नहीं हैं
तितलियां भी ठुमके लगाती नहीं हैं
रूठे से हैं काहे शबनम के मोती
क्यों सजाने जमीं को अब आते नहीं हैं
महलों में हैं दफ्न दरवाजों की जड़ें
पंछी तभी आतेजाते नहीं हैं
करते हुए मां से हाथापाई हम
जाने क्यों लजाते नहीं हैं.
– पूनम रानी
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