लेट-जीव,
अब लुप्त है, दूर है
गहरी, तीव्र पीड़ा
अश्रु बन बहे नयन
मेजर का तमगा
अस्थिर हुआ सफर में
छोड़ कुछ मझधार में
किसी प्रहार में
अंगरेजी के दो शब्द
और हो गई मैं स्तब्ध
एक गर्वित नौजवान
कर अपना जीवनदान
देश पर हुआ कुरबान
पुष्प और नारे
यही मोल हम ने निकाले
धधकते जज्बात के
रक्तभरे चुभते एहसास के
क्यों न उस के घर तक जाएं
बूढ़े मांबाप, बेबस बच्चे
उदास बेवा को ढांढ़स बंधाएं
पर, हम भी तो मजबूर हैं
जीवनकार्य में चूर हैं
बच्चों के नखरे, बुढ़ापे की चिंता
और बहुत से ख्वाब हैं
आजाद धरा में लेते सांस हैं
क्यों डरें हम जब
सरहद पे खड़ा एक जवान है
हर वीर पर हैं हम इठलाते
पर, शहीद हम को हैं भाते
दूर के मकान में
नाम की तख्ती पर अब तक
नहीं लिखा कि ‘लेट’ है
रंग गहरे दर्शाती जीवनस्लेट है
किस ने कहा अभी ‘लेट’ हैं…
– अंशु अरोड़ा