मुसलिम औरत को अग्रलिखित आधारों पर तलाक पाने का अधिकार मुसलिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 के तहत हासिल है.
1.पति की अनुपस्थिति :
यदि पति 4 साल तक अनुपस्थित रहता है तो ऐसी परिस्थिति में एक मुसलिम महिला अपने विवाह को विघटन करने के लिए न्यायालय में आवेदन दे कर डिक्री ले सकती है. यह डिक्री इस के पारित होने के 6 महीने के भीतर प्रभावी होती है. यदि 6 महीने के भीतर पति वापस लौट आता है तो डिक्री को वापस रद्द करना होता है.
ये भी पढ़ें- तलाक हर औरत का अधिकार-भाग 1
2. भरणपोषण करने में पति असफल हो :
यदि पति 2 साल तक पत्नी के भरणपोषण के संबंध में उपेक्षा करे या असफल रहे तो भी मुसलिम विधि के अंतर्गत स्त्री विवाह विच्छेद की डिक्री की हकदार हो जाती है. पति वाद का केवल इस आधार पर प्रतिवाद नहीं कर सकता कि वह अपनी निर्धनता, अस्वस्थता, बेरोजगारी या कारावास या अन्य किसी आधार पर उस का भरणपोषण नहीं कर सका. मुसलिम विधि में एक पति को अपनी पत्नी का भरणपोषण करने का परम कर्तव्य सौंपा गया है. यदि वह कर्तव्य को भलीभांति पूरा नहीं करता है तो पत्नी को यह अधिकार है कि वह उस से तलाक मांग ले.
3. पति जेल में हो :
यदि पति को 7 साल तक का कारावास दे दिया जाता है. दंडादेश अंतिम हो गया है तथा इस दंडादेश के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई अपील नहीं की जा सकती है तो ऐसी परिस्थिति में पत्नी न्यायालय से तलाक की डिक्री मांग सकती है.
ये भी पढ़ें- पैसे नहीं तो धर्म नहीं
4. दांपत्य दायित्व के पालन में असफल :
यदि बिना उचित कारण के पति ने 3 साल तक दांपत्य दायित्व का पालन नहीं किया है तो पत्नी विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने की हकदार है.
5. पति की नपुंसकता :
यदि पति विवाह के समय नपुंसक था और अब भी है तो पत्नी विवाह विच्छेद की न्यायिक डिक्री प्राप्त करने की हकदार है. डिक्री पारित करने से पूर्व न्यायालय पति के आवेदन पर उस से अपेक्षा करते हुए यह आदेश पारित करेगा कि ऐसे आदेश पाने के एक साल के अंदर वह न्यायालय को इस बारे में आश्वस्त कर दे कि वह नपुंसक नहीं रह गया है. यदि वैसा कर दे तो डिक्री प्रभावी नहीं की जाएगी. नपुंसकता के अंतर्गत पूर्ण और संबंधित नपुंसक दोनों को लिया जाता है. पूर्ण नपुंसक व्यक्ति प्रत्येक स्त्री के प्रति नपुंसक होता है और संबंधित नपुंसक किसी निर्धारित स्त्री के प्रति नपुंसक होता है. यदि पति अपनी पत्नी के प्रति नपुंसक है, उस के साथ सहवास नहीं कर पाता है तो ऐसी परिस्थिति में पत्नी द्वारा तलाक मांगा जा सकता है और इस आधार पर न्यायालय डिक्री पारित कर सकता है.
6. पति का पागलपन :
पति यदि पागल हो गया है या फिर कुष्ठ रोग या किसी ऐसे रोग से पीडि़त है जिस का संक्रमण एक से दूसरे में फैलता है, जैसे एचआईवी या एड्स, तो ऐसी स्थिति में महिला न्यायालय में तलाक की डिक्री मांग सकती है.
ये भी पढ़ें- कोरोना की मार: इस दर्द की दवा नहीं
7. पत्नी द्वारा विवाह अस्वीकृत करना :
यदि पत्नी का विवाह उस की नाबालिग अवस्था में उस के मातापिता की सहमति से कर दिया गया था तो 18 साल के पहले वह अपने विवाह को अस्वीकार करवा सकती है तथा न्यायालय में इस आधार पर डिक्री मांग सकती है कि उस का विवाह उस की सहमति से नहीं हुआ है.
8. पति की निदर्यता :
अधिनियम की धारा 2(8) के अनुसार पति द्वारा निर्दयता या क्रूरता करने पर भी पत्नी द्वारा न्यायालय से तलाक की डिक्री मांगी जा सकती है. पति अपनी पत्नी के साथ मारपीट करता है, अनैतिक औरतों के साथ संबंध रखता है, तवायफ के कोठे पर जाता है, दहेज की मांग करता है, पत्नी के मातापिता को गाली देता है तो ऐसी परिस्थिति में पत्नी तलाक मांग सकती है. न्यायालय को इस आधार पर डिक्री प्रदान करनी होगी.
इस लिहाज से मुसलिम औरतों को कानून और कुरान दोनों के जरिए बहुत से अधिकार मिले हुए हैं जिन के जरिए वे गुलामी, हिंसा, प्रताड़ना और धोखाधड़ी से बच सकती हैं.
हिंदू महिलाओं की स्थिति चिंताजनक…
वहीं हिंदू धर्म पर नजर डाली जाए तो वहां विवाह कोई कौंट्रैक्ट नहीं, बल्कि एक संस्कार है. वहां विवाह को 7 जन्मों का रिश्ता बताया जाता है. घर से बेटी ससुराल के लिए विदा होती है तो उस से यह कहा जाता है कि अब ससुराल ही तुम्हारा अपना घर है. अब उस घर से तुम्हारी अर्थी ही उठेगी. यानी हिंदू औरत को हर जुल्म, प्रताड़ना, हिंसा और गालीगलौज झेलते हुए अपनी ससुराल में ही रहने को बाध्य किया गया है.
पति कितना ही क्रूर हो, बाहरी औरतों के साथ शारीरिक संबंध रखता हो, शराबी हो, पत्नी को पीटता हो, नपुंसक हो, नालायक हो, पत्नीबच्चों के भरणपोषण का जिम्मा ना उठाता हो, फिर भी हिंदू धर्म में औरत को कहा जाता है, ‘पति परमेश्वर है.’ कहना गलत न होगा कि हिंदू समाज अपनी औरतों के प्रति ज्यादा कट्टर है और वहां गैरबराबरी का बोलबाला है.
जबकि मुसलिम समाज ने अपनी औरतों को जुल्म बरदाश्त न करने और बराबरी का दर्जा पाने का हक 1939 में ही दिला दिया था. यह और बात है कि गरीबी, आर्थिक रूप से दूसरे पर निर्भरता, शिक्षा की कमी और मौलानाओं की बदनीयती ने औरतों के हक की बहुतेरी बातें उन तक पहुंचने नहीं दीं. मगर पढ़ीलिखी मुसलिम औरतें काफी हद तक अपने अधिकारों से वाकिफ हैं.
केरल हाईकोर्ट ने भी शरिया कानून के तहत निकाह समाप्त करने के लिए मुसलिम महिलाओं को मिले अधिकारों पर बड़ी टिप्पणी करते हुए उन के द्वारा तलाक लेने के तरीकों, जिन में तलाक ए ताफवीज, खुला, मुबारत और फस्ख शामिल हैं, का उल्लेख किया और कहा, ‘शरियत कानून के प्रावधान-2 में तलाक के जिन तरीकों का जिक्र है वे सभी अब मुसलिम महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं. इसलिए हम मानते हैं कि के सी मोइन मामले में घोषित कानून सही कानून नहीं है.
उल्लेखनीय है कि लगभग सभी प्राचीन राष्ट्रों में विवाह विच्छेद दांपत्य अधिकारों का स्वाभाविक परिणाम सम झा जाता है. रोमवासियों, यहूदियों, इजरायली आदि सभी लोगों में विवाह विच्छेद किसी न किसी रूप में प्रचलित रहा है. इसलाम के आने के पहले तक पति को विवाह विच्छेद के असीमित अधिकार प्राप्त थे. मुसलिम विधि में तलाक को स्थान दिया गया है परंतु स्थान देने के साथ ही तलाक को घृणित भी माना गया है. मोहम्मद साहब का कथन है कि जो मनमानी रीति से पत्नी को अस्वीकार करता है, वह खुदा के श्राप का पात्र हो