पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव ने भाजपा को करारी चोट पहुंचाई है, जिसका दर्द लम्बे समय तक बना रहेगा और इसका असर अलगे साल कई अन्य राज्यों में होने वाले चुनाव पर भी दिखेगा, खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव पर.

बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के तमाम बड़े नेता सिर्फ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर ही पिले रहे. बंगाल की बेटी के लिए वहां के मंच से प्रधानमंत्री मोदी का बार बार ‘दीदी ओ दीदी’ जैसा कटु और व्यंगात्मक सम्बोधन बंगाल की जनता को कतई रास नहीं आया.

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दीदी ने कहा ‘खेला होबे’ तो भाजपा के साथ बंगाल में ‘खेला’ हो गया, मगर इससे बड़ा खेला हुआ भाजपा की बी-टीम के नाम से पुकारी जाने वाली असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ.

बिहार की चार सीटों पर जीत का परचम लहराने के बाद अति उत्साह में बंगाल के रण में उतरने वाले असदुद्दीन ओवैसी को बंगाल में जो करारी शिकस्त मिली है उसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी. बिहार के रास्ते पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में सियासी राह तलाशने उतरे असदुद्दीन ओवैसी के सारे सपने धराशाही हो गए. मुस्लिम समुदाय ने असदुद्दीन ओवैसी पर रत्ती भर भरोसा नहीं जताया. बंगाल के मुसलमानों ने ओवैसी भाईजान को इतनी बुरी तरह से नकारा कि उन्हें सिर्फ 0.01% ही वोट हासिल हुए जबकि ओवैसी से ज्यादा वोट तो मायावती की पार्टी बीएसपी को बंगाल में मिल गए. बीएसपी ने बंगाल में 0.39% वोट हासिल किये हैं.

बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में असदुद्दीन ओवैसी ने इस उम्मीद से अपने सात मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे कि ये सीटें तो हर हाल में उनको हासिल हो जाएंगी, मगर बंगाल के मुसलमानों ने ओवैसी को इस बुरी तरह दुत्कारा कि उनके सातों उम्मीदवारों को अपनी जमानत बचाने भर के वोट हासिल नहीं हो पाए. ओवैसी को चुनाव से पहले फुरफुरा शरीफ ने झटका दिया था, तो चुनाव के बाद मतदाताओं ने उन्हें ‘सातों’ खाने चित कर दिया और सभी सीटों पर उनकी पार्टी के प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी.

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सच पूछें तो दुनिया में बोली और पहनावे का रिश्ता बड़ा मजबूत होता है. देश के कुछ राज्यों ने इस रिश्ते को बखूबी सम्भाला हुआ है. इसमें एक राज्य पश्चिम बंगाल भी है. बंगाल का मुसलमान बंगाल के हिन्दू की तरह ही बांग्लाभाषी है. भाषा और संस्कार को लेकर वह एक दूसरे में ऐसे रचे बसे हैं कि लाठी मार कर इस पानी को कोई अलग नहीं कर सकता है. टीएमसी सांसद और अभिनेत्री नुसरत जहाँ का उदाहरण ले लीजिये. नुसरत जहाँ और किसी बंगाली हिन्दू स्त्री के पहनावे, श्रृंगार, बोली-भाषा में कोई फर्क नहीं कर सकते हैं. बंगाली मुसलमान नुसरत जहाँ को अपने ज़्यादा निकट देखता है और ओवैसी की दाढ़ी-टोपी वाली शख्सियत से डरता है, जो कि साम्प्रदायिकता का खुला प्रदर्शन हैं.

बंगाली आदमी मन का मीठा और मोहब्बती होता है. बंगाली हिन्दू और बंगाली मुसलमानों के बीच कितने ही विवाह सम्बन्ध होते रहते हैं मगर वहां लव जिहाद जैसी घटिया और ओछी बातें कभी सुनने में भी नहीं आतीं. बंगाल में दुगापूजा-कालीपूजा में मुसलामानों के योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता है. ये पूजा समारोह मुसलामानों के बगैर पूरे ही नहीं हो सकते हैं. बंगाल में हज़ारों मूर्तिकार मुस्लिम हैं जिनके हाथों से माँ दुर्गा और माँ काली की मूर्तियां गढ़ी जाती हैं. देवी के परिधानों की सिलाई मुस्लिम दर्जियों के द्वारा होती है. उनके आभूषण मुस्लिम जोहरी द्वारा बनाये जाते हैं. मुसलमान मालियों द्वारा दुर्गापूजा के भव्य पंडालों को पूरी श्रद्धा के साथ लाखों फूलों से सजाया जाता है और देवी पर चढ़ने वाली खूबसूरत फूलमालाएं मुस्लिम घरों से बन कर आती हैं.

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ऐसे में बंगाल की बेटी ममता बैनर्जी का दुलार हिन्दुओं और मुसलमानों पर बराबर है और इस अपनत्व और प्रेम को साम्प्रदायिकता के रंग में रंगा कोई ‘बाहरी’ समझ ही नहीं सकता है. ममता बनर्जी ने कभी बंगाल में जाति-धर्म की ओछी राजनीति नहीं की. उन्होंने कभी धर्म के नाम पर समाज को बांटने का काम नहीं किया. मगर भाजपा और ओवैसी जैसे नेता समाज को बाँट कर, एक धर्म को दूसरे धर्म से लड़वा कर अपना राजनितिक उल्लू सीधा करते हैं.

चुनाव नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि बंगाल का मुसलमान जहाँ भाजपा से नफरत करता है वहीँ ओवैसी की साम्प्रदायिक बातों को भी वह बखूबी समझता है. बंगाली मुसलमान बंगाल में ‘हिन्दू-मुस्लिम’ विभाजन नहीं चाहता, इसलिए ओवैसी को वहां से दुत्कार कर भगाया गया है.

बता दें कि एआईएमआईएम ने चुनाव में उन सात क्षेत्रों को चुना था जहाँ मुसलमानो की संख्या पचास फीसदी से ज़्यादा है. इन सातों जगहों पर उसने अपने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे. इतहार सीट पर मोफाककर इस्लाम, जलंगी सीट पर अलसोकत जामन, सागरदिघी सीट पर नूरे महबूब आलम, भरतपुर सीट पर सज्जाद हुसैन, मालतीपुर सीट पर मौलाना मोतिउर रहमान, रतुआ सीट पर सईदुर रहमान और आसनसोल उत्तर सीट से दानिश अजीज को मैदान में थे. मगर मुस्लिम बहुल क्षेत्र होने के बावजूद ओवैसी के प्रत्याशियों को यहाँ हज़ार वोटों के भी लाले पड़ गए.

मोफाककर इस्लाम को 1000 से भी कम वोट मिले. सागरदिघी सीट पर 65 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं, लेकिन यहाँ नूरे महबूब आलम को पांच सौ वोट भी नहीं मिले. वहीं, मालतीपुर सीट पर 37 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं, लेकिन पार्टी प्रत्याशी मौलाना मोतिउर रहमान भी हजार का आंकड़ा नहीं पार कर सके. रतुआ विधानसभा इलाके में 41 फीसदी, भरतपुर में 58 फीसदी,  आसनसोल उत्तर में 20 फीसदी तो जांगली विधानसभा इलाके में 73 फीसदी मुस्लिम मतदाना हैं. लेकिन किसी भी सीट पर पार्टी के प्रत्याशी 1000 का आंकड़ा पार नहीं कर सके.

साफ़ है कि बंगाल का मुसलमान अपना नफ़ा-नुकसान खूब समझता है. उसकी आने वाली पीढ़ियों के लिए कौन लोग ठीक हैं और कौन नहीं, वह अच्छी तरह समझ रहा है. वह बांग्ला भाषी को जहाँ तवज्जो देता है, वहीँ धर्म के नाम पर किसी के उकसावे में भी नहीं आता है. ये बातें बंगाल को ताकत देती हैं. इसी के साथ यह भी ध्यान में रखना होगा कि बंगाल में बहुतेरे बांग्लादेशी हों मगर इतने सालों में वह भारत की माटी में इतने रच बस चुके हैं कि इस मिटटी को छोड़ कर जाने की बजाय यहाँ मर जाना पसंद करेंगे. बंगाली हिन्दुओं के साथ उनके रोटी-बेटी के सम्बन्ध बन चुके हैं. रोज़गार-कारोबार के रिश्ते हैं. ऐसे में जब भाजपा सीएए और एनआरसी की बात करती है तो इनसे बंगालियों को दहशत होती है. वहीँ आदिवासी समूह हैं जिन्हे जबरन ‘हिन्दू’ लिखा जाने लगा है. इस जबरदस्ती ने उन्हें संघ और भाजपा के प्रति नफरत से भर दिया है. इन सबको उनकी निजी स्वतंत्रता के साथ अगर कोई साथ ले कर चलने का बूता रखता है तो वह हैं – ममता बनर्जी. भाजपा, ओवैसी या पीरजादा जैसे साम्प्रदायिक सोच रखने वाले बंगाल की नब्ज़ कभी पकड़ ही नहीं सकते.

 

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