मुद्दा लेडीज टौयलेट की कमी क्यों? हमारा समाज बाजार को मर्दों की जगह मानता आया है. यह सोच औरतों को हमेशा चारदीवारी के अंदर समेटने की रही है. बदलते समय के साथ औरतों ने बाजारों में जाना शुरू तो कर दिया है किंतु पब्लिक प्लेसेज में महिला शौचालयों की भारी कमी के चलते उन को भारी समस्या का सामना करना पड़ता है. रेखा और उस की ननद ने आज शौपिंग करने का कार्यक्रम बनाया. उन के साथ शौपिंग की इच्छा लिए रेखा की षोडशी बेटी मोहना भी तैयार हो गई. उत्साहित हो तीनों बाजार पहुंच गईं. खरीदारी करने के बाद उन्होंने कुछ खायापिया. अब मोहना को बाथरूम जाने की इच्छा हुई. उस के पीरियड्स चल रहे थे, सो जाना जरूरी था. लेकिन अनगिनत दुकानों, छोटे रैस्टोरैंट और स्टोर्स में पूछने के बाद भी जब टौयलेट की सुविधा का पता न चला तो मोहना की आंखें छलक पड़ीं. उस की हालत देख कर रेखा ने पास ही में रह रहे लोगों के घर का दरवाजा खटखटाया और बेटी को उन का शौचालय प्रयोग करने की प्रार्थना की.

आप को यह वाकेआ क्या आपबीती लग रहा है? दिल्ली के सरोजिनी नगर में रहने वाली मिसेज धूपर बताती हैं, ‘‘उन का घर मार्केट के पास होने के कारण कई बार उन के घर में महिलाएं इस तरह की प्रार्थना लिए आ जाती हैं, मुझे एकदम साफ बाथरूम पसंद आता है. कई लोग इस्तेमाल करने के बाद उसे गंदा ही छोड़ जाते हैं जिस से मेरा काम बढ़ जाता है. पर क्या करें, बेचारी महिलाओं को दिक्कत तो होती है.’’ कितनी अजीब बात है कि महिलाएं, जो शौपिंग करने के अपने जनून और दीवानगी को ले कर मशहूर हैं, या यों भी कह सकते हैं कि बदनाम हैं, की मूल जरूरत का खयाल रखने वाला कोई नहीं. बड़ेबड़े गुरु, नामीगिरामी एडवरटाइजिंग एजेंसियां, बाजार में बिकने वाले अधिकतर उत्पाद सभी महिलाओं को टारगेट बना कर विज्ञापन कराते हैं. सभी को पता है कि अगर अपना सामान बेचना है तो औरतों को लुभाना होगा.

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फिर भी उन्हें बाजारों में खरीदारी के लंबे समय को आसानी से बिताने के लिए जिन व्यवस्थाओं की जरूरत पड़ती है, उस के बारे में कितने लोग सोच रहे हैं? घरेलू उत्पादों की निर्माता ब्रिटिश कंपनी रेकिट बेंकिसर के प्रैसिडैंट रौबर्ट ग्रुट का मानना है कि भारत में भले ही काफी टौयलेट बन रहे हैं लेकिन उन की स्वच्छता की हालत अभी भी नाजुक है. स्थिति को सुधारने हेतु आवश्यकता है मानसिकता बदलने वाली संसूचनाओं की. स्वच्छता के इर्दगिर्द जो चुप्पी है, उसे तोड़ना होगा. रौबर्ट बताते हैं कि मुंबई के चैंबूर इलाके में रहने वाली अनीता व उन की बेटियों को शौचालय प्रयोग करने के लिए 20 मिनट चल कर जाना पड़ता है. जब रोजाना की जरूरतों की इतनी समस्या है तो बाजारों में टौयलेट के बारे में सोच अभी क्रम में बहुत पीछे है. महिलाओं व लड़कियों की आपबीती गौरी और उस की सहेलियां जब अपने महारानी गर्ल्स कालेज, जयपुर से त्रिपोलिया बाजार में लाख की चूडि़यों की खरीदारी करने जाती हैं तो वे कालेज से ही बाथरूम यूज कर के निकलती हैं. ‘‘क्या करें, वहां ऐसी कोई सुविधा ही नहीं है.’’ वे मुंह बिचका कर बताती हैं, ‘‘हद तो तब हो गई जब मेरी एक विदेशी कजिन यहां आई.

उसे जयपुरी लहरिया सूट खरीदना था. पर इतने बाजारों में घूमते हुए हमें एक जगह भी यूज करने लायक पब्लिक टौयलेट नहीं मिला. कितनी शर्मिंदगी हुई थी उस के सामने.’’ उस ने बताया था कि उस के देश में साफसुथरे पेड टौयलेट की व्यवस्था हर जगह मिल जाती है. काश, यहां भी ऐसा हो सके. ‘‘वर्तमान पीढ़ी की लड़कियों को साफ टौयलेट का अभाव खटकता है. उन्हें यह बात चुभती है कि उन की नैसर्गिक जरूरतों का किसी को ध्यान नहीं है. और वह इसलिए क्योंकि इस पुरुषवादी समाज में औरतों की बात करने की आवश्यकता किसी को नहीं लगती. औरतों को हमेशा से केवल काम करने और भोगने की वस्तु समझा जाता रहा है. और औरतें भी इस दोगले बरताव के प्रति कोई आवाज नहीं उठाना चाहतीं क्योंकि उन्हें सदा से चुप रह कर सहन करना सिखाया जाता है.’’

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आरुषी को मुंबई के गेटवे औफ इंडिया जाना बेहद पसंद है पर आसपास कोई टौयलेट की सुविधा न होने के कारण वह अकसर वहां के ताज होटल में जा कर बाथरूम इस्तेमाल किया करती थी. पर जब से 26/11 का हादसा हुआ तब से हर होटल में घुसने पर काफी सख्त सुरक्षा कर दी गई और कई बार ऐसी इमरजैंसी होती है कि इतना समय भी नहीं होता कि वहां सिक्योरिटी जांच में टाइम लगाया जाए. देशभर में यही हाल नागपुर के बड़े बाजार, जैसे सदर, जरीपटका, धरमपेठ, सक्करधारा, इतवारी और सीताबुल्दी में पब्लिक टौयलेट की कोई व्यवस्था नहीं है. जब औरतों को खरीदारी करने जाना होता है, खासकर इतवारी के बाजार में हफ्तेभर की खरीदारी करते समय, तो उन्हें बाथरूम जाने की खास दिक्क्त का सामना करना पड़ता है. मोहम्मद रेहान जैसे कुछ दुकानदार उन्हें अपनी दुकान में बने शौचालय का इस्तेमाल करने देते हैं लेकिन अधिकतर को इस परेशानी को झेलना ही पड़ता है.

42 वर्षीय प्रतीक्षा मस्के कहती हैं, ‘‘एक ओर नागपुर स्मार्टसिटी बनने के सपने देख रहा है, जबकि शर्म की बात यह है कि यह एक बड़ा व्यावसायिक केंद्र होते हुए भी यहां के बाजारों में शौचालय जैसी मूलभूत सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं, जहां हैं वहां की साफसफाई की हालत इतनी खराब है कि उन्हें प्रयोग नहीं किया जा सकता.’’ नागपुर के ट्रेडर्स एसोसिएशन ने कई बार महिलाओं के लिए अच्छे शौचालयों को बनवाने की मांग को आगे रखा है, पर प्रशासन द्वारा कभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया. वहां के गवर्नर के घर के पास एक पब्लिक टौयलेट जरूर है पर अपनी खराब हालत के कारण वह बेकार है. वहां अकसर असामाजिक तत्त्वों का बोलबाला रहता है.’’ मुंबई के बांद्रा एरिया के बैंडस्टैंड इलाके में बने पब्लिक टौयलेट को वहां से हटवाने के लिए वहां के रसूखदार निवासी, जैसे प्रसिद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान और मशहूर फिल्मकार सलीम खान पूरा प्रयास कर रहे हैं.

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पब्लिक टौयलेट उन्हें मखमल में टाट का पैबंद दिख रहा है लेकिन इस का विकल्प सोचने की फुर्सत किसी को नहीं. बैंडस्टैंड पर समुद्र के किनारे बैठने कई युवा आते हैं. वहां घूमने आई लड़कियां बाथरूम की सुविधा के लिए कहां जाएंगी, इस बारे में शायद किसी ने सोचा ही नहीं. भारत अपने मेलों के लिए प्रसिद्ध है. ऐसे भीड़वाले इलाकों में बीमारी पकड़ने का खतरा काफी हद तक बढ़ जाता है. फिर भी कुछेक मेलों और सभाओं को छोड़ कर, अकसर टौयलेट की, खासकर महिलाओं के लिए, व्यवस्था नहीं रहती. यहां तक कि विश्वप्रसिद्ध कुंभ मेले में भी जो टौयलेट का निर्माण किया जाता है वहां कितनी ही बार सफाई नहीं होती पानी की किल्लत रहती है.

क्या कहते हैं नियम नियमों के अनुसार, हर 50 लोगों पर एक कमोड और एक यूरिनल की व्यवस्था होनी चाहिए और ये पुरुषों व महिलाओं के लिए अलग होने चाहिए. पर जमीनी हकीकत यह है कि कुछ टौप एंड सिनेमा और मौल को छोड़ कर टौयलेट की सुविधा उपलब्ध नहीं होती. प्रोफैसर घोष, प्रोफैसर कुमार और प्रोफैसर पौल अपने एक शोध लेख में लिखते हैं कि भारतीय बाजार सारे साल भीड़ से भरे रहते हैं. ऐसे में टौयलेट की सुविधा का होना और भी आवश्यक हो जाता है. लेकिन जमीनी सचाई यह है कि देश के अधिकतर बाजारों में टौयलेट की सुविधा उपलब्ध ही नहीं होती और जहां होती है, वहां हालत इतनी खराब होती है कि वे प्रयोग करने लायक नहीं होते. डाक्टर की सुनें गंदे टौयलेट को इस्तेमाल करना महिलाओं के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है.

डा. राजलक्ष्मी बताती हैं कि स्त्री का शरीर इस तरह रचित होता है कि उस में बहुत जल्दी इन्फैक्शन लग सकता है. और यह इन्फैक्शन फैलते हुए किडनी तक पहुंचते देर नहीं लगती. औरतों की अपेक्षा मर्दों को उन की शारीरिक संरचना के कारण इन्फैक्शन लगने के चांस काफी कम होते हैं. विडंबना यह है कि मर्दों के लिए फिर भी टौयलेट मौजूद होते हैं. यदि यूरिनल मौजूद न भी हों, तब भी मर्द खुले में भी ओट कर के पेशाब करने चले जाते हैं. हमारे समाज में यह साधारण सी बात है जो सब को स्वीकार है. बल्कि हर गलीनुक्कड़ पर आप को आदमी पेशाब करते खुलेआम दिख जाएंगे. पार्कों की दीवारों, दुकानों के पीछे, बसस्टैंड के पीछे आदि कई जगहों पर आदमी पेशाबघर बना कर हर ओर बदबू फैला देते हैं. इस बात पर कोई नाकभौं नहीं सिकोड़ता, न ही उन के लिए यह सुरक्षा के प्रति प्रश्नचिह्न की बात है. लेकिन औरतों के लिए ऐसा करना तो क्या सोचना भी सर्वथा वर्जित है. यही मानसिकता औरतों में भी पलती है. औरतों के लिए पेशाब जाना एक नैसर्गिक क्रिया न हो कर शर्म की बात होती है. वे तो खुलेआम यह भी नहीं पूछ पातीं कि यहां टौयलेट कहां है. वे अकसर दबेढके शब्दों में, इशारों में कहना पसंद करती हैं कि ‘जाना है.’

औरतें अकसर झुंड में टौयलेट जाना चाहती हैं, अकेले नहीं. ग्रुप की जो महिला सब से दबंग होगी वही पूछेगी कि बाथरूम किस ओर है, और फिर सब की सब उस के पीछे मुंह छिपा कर खिसियातीहंसती चल देंगी. स्थिति के पीछे की सोच पुरुषवादी सोच रखने वाला हमारा समाज बाजार को मर्दों की जगह मानता आया है. औरतों का काम घर की चारदीवारी के अंदर ठीक है, उन का बाहर जाने का क्या काम. इसी सोच के चलते बाजार शुरू से ही आदमियों के हिसाब से बनाए गए. बदलते समय के साथ औरतों ने बाजारों में जाना जरूर शुरू कर दिया पर उन के प्रति सोच अब भी नहीं बदली है. इस पुरुषसत्तात्मक समाज ने औरतों की तकलीफ, उन की जरूरतों के बारे में सोचने की ओर कभी ध्यान नहीं दिया. महिला दुकानदारों की भी अपनी परेशानी है. वे सारा दिन पानी नहीं पीतीं क्योंकि फिर बाथरूम कहां ढूंढ़ेंगी. कितनी बार, खासतौर पर पीरियड्स के दौरान, वे आसपास रहने वालों से मिन्नतें कर के उन के बाथरूम इस्तेमाल करती हैं. समाजशास्त्री सरोज पांडे इस भेदभाव का जिम्मेदार हमारे समाज की पितृसत्तात्मक सोच को ठहराती हैं.

हमारे समाज ने महिलाओं को यह सीख भली प्रकार दी हुई है कि अपने प्राकृतिक व्यक्तिगत कार्यों को छिप कर करना हमारे संस्कार हैं. पीरियड्स चल रहे हैं तो छिपाओ, बाथरूम जाना है तो जितनी देर तक रोक सकती हो रोक कर रखो, संभव हो तो घर लौट कर ही जाओ. लड़कियों को हर क्षेत्र में दब कर, झुक कर रहना सिखाया जाता है. जैसे शिक्षा से स्वाधीनता मिलती है, वैसे ही स्वच्छता की कमी के कारण पराधीनता और दमन बढ़ते हैं. घर से बाहर निकलने पर औरतें पानी नहीं पीतीं ताकि उन्हें बाथरूम जाने की परेशानी से बचना पड़े. सरोज कड़े शब्दों में कहती हैं, ‘‘स्वच्छ भारत अभियान के बावजूद महिलाओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा के आयामों के प्रति पूरा ध्यान नहीं दिया जा रहा है.’’ पहले शौचालय, फिर देवालय साल 2012 में जब कांग्रेस के नेता जयराम रमेश ने कहा था कि शौचालय, मंदिर से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, तब बीजेपी उन पर टूट पड़ी थी. बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद ने उन को क्षमा मांगने पर जोर देते हुए कई विरोध प्रदर्शन किए थे. कांग्रेस ने भी उन से किनारा करते हुए कह दिया था कि वह हर धर्म को समभाव से देखती है. उन के समर्थन में केवल सुलभ शौचालय संस्था सामने आई थी. तब राजनेता जयराम रमेश ने अपनी सफाई में कहा था कि मंदिर और शौचालय दोनों धर्मनिरपेक्ष शब्द हैं.

आप किसी भी धर्म के मंदिर में जा सकते हैं. इसी प्रकार आप शौचालय में क्या करते हैं, इस से आप के धर्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. उन की बात का असली मर्म न समझ उस पर राजनीति का जाल फैला दिया गया था. लेकिन जब 2013 में प्रधानमंत्री बनने से पूर्व नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में एक युवासभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘पहले शौचालय, फिर देवालय’ तो भक्तों ने उन की इस बात को आड़ी नजर से नहीं देखा. मतलब, हर विषय में राजनीति हो जाना हमारे देश की विडंबना है. बात का असली मुद्दा न समझते हुए हमारे नेतागण उस पर राजनीति करने से बाज नहीं आते. धर्म की दोगली सोच कबीर ने चक्की की तुलना भगवान की मूर्ति से करते हुए कहा था, ‘चक्की का महत्त्व भगवान की प्रतिमा से अधिक है क्योंकि चक्की अन्न के दानों को पीसती है और भूख बुझाती है.’ लेकिन समय के साथ धर्म का प्रचार इतना प्रचुर होता चला गया कि सबकुछ इस के लपेटे में आने लगा.

धर्म ने समाज में औरतों को मर्दों की तुलना में दोयम दर्जा दिया. सदियों से उन में यह भावना बिठाई कि उन का वजूद पुरुषों से है. पुरुषों की देखरेख करना, उन के लिए जीना, उन की सुखसुविधाओं का ध्यान रखना ही स्त्रीजीवन का एकमात्र उद्देश्य है. धर्म के ठेकेदारों की इस दोगली सोच के कारण औरतें पिछड़ती चली गईं. अब आलम यह है कि उन की बुनियादी जरूरतों के बारे में किसी को सोचने की आवश्यकता नहीं लगती, खुद औरतों को भी नहीं. वे भी धर्म का चश्मा पहने केवल पुरुषों के बारे में सोच कर संतुष्ट हैं. मानव समाज पुरुषों और औरतों, दोनों से बनता है. फिर यह कैसी विडंबना है कि पूरा समाज, पुरुषों और औरतों समेत, केवल पुरुषों के बारे में ही सोचता है. औरतों की खैरखबर लेने का होश किसी को नहीं. न विकास की ओर ध्यान देने वाले नीतज्ञों को, न राजनेताओं को, न समाजसेवियों को और न ही स्वयं औरतों को. औरतें आज पुरुषवादी सोच से पीडि़त औरतों को केवल चुप करवाने में ही अपनी ऊर्जा नष्ट करती रहती हैं. धर्म का इस में बहुत बड़ा योगदान है.

धर्म हमें सिखाता है कि पुरुष श्रेष्ठ हैं, चाहे वह पिता हो, भाई हो, पति हो, या बेटा. उन के जीवन के बारे में सोचना, उन की सुविधाओं का ध्यान रखना और उन के लिए व्रतअनुष्ठान करना ही औरतों का धर्म है. तभी उन के संस्कारों को अच्छा माना जाता है. सदियों से पोषित ऐसी सोच के कारण पीढ़ीदरपीढ़ी यह समाज औरतों को कमतर रखने की प्रबल कोशिश में लगा रहता है. औरतों के अधिकार, उन की विचारधारा, उन की सुरक्षा और उन की बराबरी के विषय में सोचने का समय किसी के पास नहीं. जब तक औरतें स्वयं अपने बारे में नहीं सोचेंगी, हालात नहीं बदलेंगे. यदि पूंजीपतियों को अपने उत्पाद औरतों को बेचने हैं तो उन्हें उन की जरूरतों की ओर ध्यान देना ही होगा. औरतों को अपनी बुनियादी जरूरतों के बारे में खुल कर चर्चा करनी होगी और आवाज उठानी होगी. अब नहीं तो कब? द्य शोध के हैरतभरे परिणाम ऐक्शन एड संस्था ने पब्लिक टौयलेट की नामौजूदगी में औरतों को होने वाली मुसीबतों को उजागर करते हुए एक मुहिम चलाई. मुहिम का मुद्दा था, ‘अच्छा शहर वही है जहां स्वच्छ सफाई व्यवस्था है.’

19 नवंबर को विश्व शौचालय दिवस के उपलक्ष्य में ऐक्शन एड इंडिया ने कुछ समय पहले एक शोध किया जिस में उस ने दिल्ली में मौजूद 229 शौचालयों का सर्वे किया. शोध का परिणाम इस प्रकार रहा- द्य 35 फीसदी शौचालयों में अर्थात हर 3 में से 1 शौचालय में महिलाओं के लिए अलग सैक्शन नहीं था. द्य 71 फीसदी शौचालय साफ नहीं थे. द्य 53 फीसदी शौचालयों में पानी की सुविधा नहीं थी. द्य 61 फीसदी शौचालयों में साबुन की सुविधा नहीं थी. द्य 50 फीसदी महिला शौचालयों में लाइट नहीं थी, न तो अंदर और न ही परिसर में. द्य 46 फीसदी शौचालयों में गार्ड मौजूद नहीं था. मतलब, सुरक्षा को ले कर चिंताजनक स्थिति. द्य 30 फीसदी शौचालयों में दरवाजे नहीं थे. द्य 45 फीसदी शौचालयों में दरवाजे को बंद करने के लिए चिटकनी नहीं थी.

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