ये भी पढें- घर की आर्थिक जिम्मेदारियों में बेटियां भी हाथ बंटाए
इस का मतलब यह हुआ कि संवेदनशील महिलाएं दूसरे की भावना को बहुत गहराई से अनुभव करती हैं. जो दूसरे की भावना को गहराई से अनुभव करती हो, वह अपने प्रति कितना संवेदनशील होगी? ऐसी महिला को अगर कोई मजाक में भी कोई बुरी बात कह देता है तो कई दिनों तक उस की नींद हराम रहती है. उसे खाना भी नहीं अच्छा लगता. उस की भावनाओं पर हुए इस आघात का सीधा असर पहले मैंटल हैल्थ पर और फिर उस के बाद फिजिकल हैल्थ पर पड़ता है.
12-13 साल की संवेदनशील बेटी जब देखती है कि उस के पैरेंट्स उस के भाई को ओवर पेंपरिंग कर रहे हैं और उस के प्रति अन्याय कर रहे हैं तो उस की संवेदनशीलता पर नकारात्मक असर पड़ता है. युवा होने पर जब दर्जनों लड़के शादी के लिए रिजैक्ट कर देते हैं तो उन की संवेदनशीलता घायल होती है, क्योंकि उन के सपने जो धराशायी होते हैं. यह बात सच है कि महिलाए अधिक संवेदनशील होती हैं. परंतु सभी महिलाओ में यह बात एकसामान नहीं होती. कालेज में भेदभाव सहना पड़ता है तो अधिक संवेदनशील लड़कियां मन से घायल होती हैं. कम संवेदना रखने वाली महिलाएं ‘यह सब तो जिंदगी में चलता रहता है’ मन को यह आश्वासन दे कर शांत हो जाती हैं. हमारे समाज में सभी व्यक्ति सभी कामों में आसपास के सभी लोगों की संवेदना का ख़याल नहीं रख सकते. परिणामस्वरूप हर मौके और हर स्थान पर अधिक संवेनशील महिलाओं का हृदय घायल होता रहता है. सो, वे बातबात में हताशा, निराशा और आघात से पीड़ित होती रहती हैं. आसपास के लोग उन की इस अधिक संवेदनशीलता के बारे में व्यंग्य भी मारते रहते हैं. परंतु वे अपनी संवेदना की धार गोठिल नहीं होने देतीं.
प्रैक्टिकल महिला :संवेदना तर्क के म्यान में रहती हो, ऐसी महिलाएं नहीं अच्छी लगतीं. पीड़ा देने वाली बातों की वास्तविकता को ध्यान में रख कर वे आगे बढ़ती हैं. अन्याय की सोच को खंगाल कर खुद को स्वस्थ करती हैं. ऐसी महिला को समाज में प्रैक्टिकल महिला कहा जाता है. अगर इसे तर्क के रूप में सोचें तो महिलाओं को प्रैक्टिकल होना ही चाहिए. पर प्रकृति ने सभी का भावनात्मक तंत्र पहले ही बना दिया है, इसलिए संवेदनशील महिलाएं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकतीं. उदाहरण के लिए, एक संवेदनशील महिला का पति सब के सामने कहता है कि ‘तुम्हारे पास अक्ल नाम की कोई चीज नहीं है.’ यह कहने वाले पति को पता पहीं कि उस की इस बात से पत्नी का दिल टूट जाएगा और वह कमरे में जा कर अकेले में रोएगी और कई दिनों तक इसी बात को बिसूरती रहेगी. इस से उस के चेहरे की हंसी और आंखों की नींद गायब हो जाएगी. इस बीच वह अपने काम भूल जाएगी और छोटीछोटी बातों पर दूसरे पर गुस्सा करेगी. इस का असर उस के अपने मन के साथ तन पर भी पड़ेगा. जबकि उस की जगह कोई प्रैक्टिकल महिला होगी तो वह पति को तार्किक जवाब दे कर खुश होगी अथवा पति का स्वभाव ही ऐसा है, यह सोच कर इस बात पर वहीं पूर्णविराम लगा देगी.
संवेदनाओं को घायल करना : हमारे परिवारों में महिलाओं की संवेदनाओं को अनेक तरह से घायल किया जाता है. उस के मायके वालों को ताना मार कर उसे चोट पहुंचाई जाती है. घर के महत्त्वपूर्ण निर्णय से उसे बाहर रखा जाता है. उस की स्वतंत्रता और इच्छाओें का गला घोंटा जाता है. मैरिटल रेप होता है. बच्चों से ले कर परिवार के किसी भी सदस्य की जिंदगी में कुछ गलत होता है, तो उस का दोष महिलाओं के सिर मढ़ दिया जाता है. अगर वह कुछ कहना चाहती है तो ‘तुम्हें इस बारे में क्या पता’ यह कह कर उस का अपमान किया जाता है. तर्क की लगाम से संवेदना को लगाम में रखने वाली महिलाओं पर इस सब का कोई असर नहीं होता. कुछ जो लड़ाकू स्वभाव की महिलाएं होती हैं, वे लड़झगड़ कर अपना अधिकार पाने की कोशिश करती हैं. जबकि, संवेदनशील महिलाएं अगर इस तरह का कोई अन्याय होता है तो सिर्फ रोती हैं, दुखी होती हैं, खुद को सब से अलग कर लेती हैं. अपने ऊपर हुए अन्याय के लिए खुद को जिम्मेदार मानती हैं. हमेशा गिल्टी फील करती हैं.इस सब का क्या परिणाम होता है? उन की तबीयत खराब होती है. शरीर में तरहतरह की गड़बड़ियां होती हैं. बीमारियां लगती हैं. खुद को व्यर्थ और असहाय समझती हैं. अतिशय विचार, अतिशय गिल्टी और अतिशय भावनात्मकता मन पर हमेशा नकारात्मक असर करती है.
ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति ही मानसिक रोग का शिकार बनते हैं. उदासी, डर, आत्मविश्वास का अभाव, हमेशा तनाव, सैल्फ रिस्पेक्ट की कमी, अपराधबोध, चिड़चिड़ापन, हमेशा रोना आना और जीवन से रुचि का खत्म हो जाना जैसे कई मानसिक सवाल पैदा होते हैं. ये उसे तनमन से असमय बूढ़ा बना देते हैं.
तरहतरह के लांछन : जो महिला अधिक संवेदनशील और रो कर संतोष कर लेने वाले स्वभाव की होती है, उसे लोग और दुखी करते हैं. परंतु दुख की बात यह है कि हमारे यहां न तो महिला की संवेदनशीलता का न तो उस के मानसिक सवालों को जितनी चाहिए उतनी मात्रा में गंभीरता से महत्त्व नहीं दिया जाता. महिला बारबार रोती है तो उसे नाटक मान लिया जाता है. उदास रहती है तो कहा जाता है कि यह है ही ऐसी, जब देखो तब मुंह लटकाए रहती है. तनाव का अनुभव करती है तो आरोप लगता है कि यह काम बिगाड़ने वाली है. महिलाओं के इन मानसिक सवालों के लिए खुद महिलाएं ही नहीं, अगलबगल के लोग या वातावरण भी जिम्मेदार हो सकता है, इस बात पर भी सोचना चाहिए.
यहां बात संवेदनहीन बनने की नहीं है. सही बात तो यह है कि संवेदनशील होना गर्व की बात है. संवेदना जीवंतता की निशानी है और अपने आसपास जड़ लोगों का साम्राज्य हो तो हमें जीवतंता पर मोटी चमड़ी का थोड़ा आवरण चढ़ाना पड़ता है. जिन लोगों को हमारे आंसुओं की कद्र न हो, उन के लिए क्यों रोना? अपना लगाव, भावना, अनुकंपा, सहानुभूति या संवेदना एकदम कुपात्रें को दान नहीं की जा सकती.
हमारी संवेदनशीलता हमारे ही सुख में रुकावट पैदा करने लगे, तो वह हमारे लिए खराब बन जाती है. मानसिक समस्याएं बुरे या निर्लज्ज लोगों को समझ में नहीं आतीं क्योंकि वे तनाव लेने में नहीं, तनाव देने में विश्वास करते हैं, जो सरासर गलत है. उन के सामने अधिक संवेदनशील बनना खुद पर अत्याचार करना है. इतना भी संवेदनशील नहीं होना चाहिए कि जिस से जीवन में बहुत ज्यादा ऊबड़खाबड़ दिखार्द दे, हमेशा पीड़ा ही होती रहे.
हर दुखी या गलत व्यक्ति अपने कर्म के हिसाब से भोगता है. अपवादस्वरूप मामलों के सिवा अब खुद के जलने का समय नहीं रहा. संवेदना की इस भावना को इस तरह व्यक्त करो कि मानसिक समस्याओं का तूफान आप की खुशियों और जीवन के उत्साह को तबाह न कर सके. बी सैंसिटिव बट बी केयरफुल…