तालाबंदी ने मानो कई तरह के सबक सिखाए हैं. स्कूल का चुनाव नाम देख कर नहीं जेब और फीस देख कर करना चाहिए. निजी कंपनियों ने बडे़ पैमाने पर अपने कर्मचारियों को विश्वव्यापी आपदा में बिना सहारे के छोड़ दिया. ऐसे पैरेंट्स बच्चों की पढ़ाई को ले कर तनाव से गुजर रहे हैं. महंगी शिक्षा के बाद भी उस के प्रतिफल में नौकरियां नहीं हैं, जिस से बेरोजगारों को निजी कंपनियों में बकरे की तरह हलाल होना पड़ता है. ऐसे में महंगी शिक्षा का कोई औचित्य समझ से परे है.
लखनऊ के आशियाना इलाके में प्रवीण विश्वकर्मा रहते हैं. प्रवीण ने ओला टैक्सी चलाने के लिए बैंक से कर्ज लिया था. उस के 2 बच्चे सैंट मैरी स्कूल में पढ़ते हैं. दोनों बच्चों की फीस प्रतिमाह 4,800 रुपए देनी पड़ती थी. लौकडाउन के दौरान बिजनैस बंद हो गया. टैक्सी के लिए लिया बैंक का कर्ज भारी पड़ने लगा. बच्चों की फीस माफी के लिए प्रवीण ने सरकार से ले कर स्कूल तक सब से फरियाद कर ली. इस के बाद भी कहीं कोई राहत नहीं मिली.
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रुचि खंड, लखनऊ के रहने वाले गायत्री श्रीवास्तव का बेटा एलपीएस स्कूल में कक्षा 7वीं में पढ़ता है. 2,500 रुपए महीने उस की फीस जाती है. लौकडाउन में वेतन से 30 प्रतिशत की कटौती होने लगी. ऐसे में उस के लिए बच्चे की फीस देना संभव नहीं हो रहा था. अब वह बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाने के लिए प्रयास कर रहा है. परेशानी की बात यह है कि बडे़ स्कूल से बच्चा अब छोटे स्कूल में पढ़ना नहीं चाहता है.
गोरखपुर के रहने वाले जीतेंद्र की नौकरी के पैसों से जब 2 बच्चों की स्कूल फीस भारी पड़ने लगी, तो वह अपने जिले गोंडा वापस आ गए. यहां अपने घर में एक दुकान खोल कर काम करना शुरू किया. बच्चे अब गोरखपुर की जगह गोंडा के स्कूल में पढ़ने लगे.
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लखनऊ की पारा कालोनी में रहने वाले वेदप्रकाश के दोनों बच्चों का आरटीई कानून के तहत प्राइवेट स्कूलों में प्रवेश हुआ था. आरटीई कानून यानी राइट टू एजुकेशन के तहत गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का खर्च सरकार देती है.
वेदप्रकाश कहते हैं कि 2 साल से बच्चों के बैंक खाते में यह पैसा नहीं आया है. पिछले साल मेहनतमजदूरी कर के बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठा लिया. तालाबंदी में इस साल मजदूरी नहीं मिली, तो अब बच्चों की फीस कैसे जमा हो?
पैरेंट्स अब यह सोचने लगे हैं कि उन को महंगे स्कूल की जगह अपनी जेब के लायक स्कूल की तलाश की जाए. तालाबंदी के बाद ‘भारत अभिभावक संघ’ का आंदोलन बताता है कि तालाबंदी, बेरोजगारी और निजी नौकरियों के जाने का बच्चों की शिक्षा पर बहुत प्रभाव पड़ा है.
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‘राष्ट्रीय राष्ट्रवादी पार्टी’ के अध्यक्ष प्रताप चंद्रा तालाबंदी के बाद से पूरे देश में पैरेंट्स की लड़ाई लड़ रहे हैं. इस के लिए ‘भारत अभिभावक संघ’ बनाया गया. इन की 3 सूत्रीय मांग है. पहली, ‘नो स्कूल नो फीस‘, दूसरी, ‘औनलाइन पढ़ाई तो औनलाइन की फीस तय हो’, तीसरी, ‘शिक्षा नियामक आयोग बने‘.
‘राष्ट्रीय राष्ट्रवादी पार्टी’ और ‘भारत अभिभावक संघ’ ने मिल कर दिल्ली, जयपुर, जबलपुर, भोपाल और लखनऊ सहित देश के तमाम शहरों में अलगअलग तरह से अपना आंदोलन चलाया.
सरकार को जगाने के लिए वह ‘मोदी पूजा‘ कर रहे हैं. ‘भारत अभिभावक संघ’ के अजय सिंह कहते हैं , ‘मोदी की खिलाफत कर के कोई बात नहीं कर सकते, तो उन की पूजा कर के तो अपने मन की बात उन तक पहुंचाने का प्रयास कर ही सकते हैं. भारत अभिभावक संघ की मांग को दबाने के लिए सरकार ने आधीअधूरी तैयारी के बीच 9वीं से 12 वीं कक्षा तक के स्कूलों को खोलने का काम किया है.’
बेरोजगारी में कैसे लाएं फोन और लैपटौप:
तालाबंदी के दौरान स्कूलों की फीस की अपनी परेशानी है. पैरेंट्स की नौकरी जाने से हालात बिगडे. दूसरी तरफ औनलाइन पढ़ाई के लिए एंड्रौयड फोन और लैपटौप का इंतजाम करना पैरेंट्स पर भारी पड़ रहा था. आरटीई के तहत दाखिला पाए बच्चों की हालत और भी खराब है.
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आरटीई ऐक्टिविस्ट अजय पटेल कहते हैं, ‘आरटीई के तहत प्राइवेट स्कूलों में प्रवेश पाए छात्रों में से 40 फीसदी की पढ़ाई बंद हो गई है. प्राइवेट स्कूल औनलाइन पढ़ाई कराने लगे, पर इन बच्चों के पास एंड्रौयड फोन खरीदने तक के पैसे नहीं थे. ऐसे में कैसे पढ़ाई हो?’
यही हाल प्राइमरी स्कूलों के बच्चों के साथ भी हुआ. गांव के कई छात्रों ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और वह अब कामधंधे की तलाश करने लगे. गांवों में 90 फीसदी बच्चों के पास एंड्रौयड फोन नहीं हैं. ऐसे में वे कैसे औनलाइन पढ़ाई कर सकते हैं. यह समझने वाली बात है. साथ ही, इंटरनैट की स्पीड भी गांवदेहात में अलग परेशानी है.
वर्ल्ड इकोनौमी फोरम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के हर 5 में से 2 पैरेंट्स अपने बच्चों को औनलाइन पढ़ाई के संसाधन न जुटा पाने के कारण और उन की जानकारी न होने के कारण डिप्रेशन का शिकार हो गए. इन में ज्यादातर प्राइवेट संस्थानों में काम करने वाले थे. 30 फीसदी पैरेंट्स इस कारण परेशान थे, क्योंकि उन के 2 बच्चे एकसाथ ही पढ़ते थे. उन को अलगअलग एंड्रौयड फोन की जरूरत थी. 25 फीसदी पैरेंट्स की आर्थिक हालत बेहद खराब हो गई. वह स्कूल की फीस नहीं भर पाए. उन के लिए एंड्रौयड फोन का इंतजाम करना मुश्किल था. एंड्रौयड फोन के साथ ही साथ इंटरनैट और बिजली का इंतजाम करना अलग समस्या थी.
फीस के मुताबिक नहीं है रोजगार :
स्कूलों में जिस तरह की फीस ली जा रही है, उस के अनुसार रोजगार नहीं है. सरकारी क्षेत्रों में नौकरी में वेतन और सुरक्षा है, तो वहां नौकरियां कम हैं. निजी क्षेत्रों में नौकरियां हैं, तो वहां हर तरह का शोषण है. पैरेंट्स बच्चों को अपना पेट काट कर पढ़ाते हैं. बच्चे पढ़लिख कर या तो बेरोजगार होते हैं या फिर निजी नौकरियों में शोषण का शिकार. इंजीनियरिंग को सब से बेहतर कैरियर माना जाता है. यहां पर ग्रेजुएट करने के बाद ही रोजगार मिल जाता था. यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में पूरे देश में इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या तेजी से बढ़ी. उत्तर प्रदेश में इंजीनियरिंग कालेजों को देखने का काम डा. एपीजे अब्दुल कलाम टैक्निकल यूनिवर्सिटी यानी एकेटीयू देखती है.
एकेटीयू से जुडे़ पूरे प्रदेश में 756 कालेज हैं, जिन में से 220 इंजीनियरिंग के हैं. 2019-20 के इंजीनियरिंग सत्र में यहां 79 हजार, 693 सीटें थीं, जिन में से 41,155 सीटें ही भर पाई थीं. साल 2020 में इंजीनियरिंग की राज्य प्रवेश परीक्षा एसईई में 1 लाख, 62 हजार छात्रों ने आवेदन किया है, वहीं साल 2019 में 1 लाख, 30 हजार छात्रों ने यह परीक्षा दी थी. परीक्षा में केवल 95 हजार छात्र शामिल हुए थे.
उत्तर प्रदेश के सरकारी इंजीनियरिंग कालेजों में 3 कालेज सब से बेहतर माने जाते हैं. इन में पहला मदन मोहन मालवीय टैक्निकल यूनिवर्सिटी यानी एमएमटीयू, गोरखपुर है. यहां हर साल 900 नए छात्रो का प्रवेश होता है. यह कालेज अपनी प्रवेश परीक्षा अलग से कराता है और एसईई से केवल 10 फीसदी बच्चों का प्रवेश लेता है.
दूसरे नंबर पर कानपुर का हरकोर्ट बटलर टैक्निकल यूनिवर्सिटी यानी एचबीटीयू है. यहां पर एसईई से प्रवेश होेते हैं. यहां पर 600 सीेटों पर प्रवेश होता है. लखनऊ का आईईटी इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट औफ टैक्नोलौजी है. यहां 800 बच्चों को प्रवेश दिया जाता है. बांदा और नोएडा के 2 सरकारी कालेजों को मिला कर देखें, तो केवल 18 सौ नए बच्चों का प्रवेश इन में मिलता है. सरकारी स्कूल में 40 से 50 हजार रुपए सालाना फीस है और 50 से 60 हजार रुपए होस्टल के खर्च होते हैं यानी अगर छात्र को सरकारी इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश मिल जाता है, तो 1 लाख से 1 लाख, 10 हजार के बीच सालाना फीस देनी पड़ती है. कुछ छात्र के और खर्च जोड़ दिए जाएं, तो 1 लाख, 50 हजार रुपए औसतन सरकारी स्कूल में सालाना खर्च होता है.
इंजीनियरिंग करने वाले छात्रों को सब से अधिक प्राइवेट स्कूलों में प्रवेश मिलता है. यहां पढ़ाई पर आने वाले खर्च का कोई तय मानक नहीं है. सरकार के दबाव के बाद भी 70 हजार से ले कर 1 लाख, 30 हजार रुपए तक केवल फीस होती है. इस के अलावा 90 हजार से ले कर 1 लाख, 20 हजार रुपए तक होस्टल का खर्च होता है. दोनों को मिला लें, तो 2 लाख से ले कर 2 लाख, 50 हजार रुपए तक का खर्च आता है. इस में 10 हजार रुपए कम से कम प्रति माह बच्चे के अपने खर्च होते हैं. प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले छात्र पर 3 लाख रुपए सालाना का औसत खर्च आता है.
सरकारी स्कूल का छात्र 4 साल के बाद 6 लाख रुपए खर्च कर के इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल करता है और प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाला छात्र 12 लाख रुपए खर्च कर के अपनी डिगरी हासिल करता है.
जब बात प्लेसमैंट की आती है, तो 100 फीसदी प्लेसमैंट का दावा करने वाले प्राइवेट कालेज 8 से 10 हजार से अधिक वेतन की नौकरी नहीं दिला पाते. छात्र अगर अपनी योग्यता के अनुसार नौकरी पाना चाहते हैं, तो सरकारी नौकरी पाने के लिए कोचिंग करते हैं. यहां 60 से 80 हजार साल की फीस और बडे़ शहर में रहनेखाने का खर्च अलग करना पड़ता है.
अगर सरकारी नौकरी मिल गई, तो 60 से 70 हजार का वेतन मिल जाता है. अगर नहीं तो वापस उन को भी 8 से 10 हजार के वेतन में समझौता करना पड़ता है. मल्टीनैशनल कंपनी में भी जौब मिली, तो कुछ फीसदी की बात छोड़ दें, तो 30 से 40 हजार रुपए प्रति माह की नौकरी ही मिलती है.
शिक्षा नियामक आयोग जरूरी :
‘राष्ट्रीय राष्ट्रवादी पार्टी’ के अध्यक्ष प्रताप चंद्रा कहते हैं, ‘स्कूल की फीस और जौब की हालत को देखते हुए उस के अनुसार नीतिगत फैसले लेने के लिए शिक्षा नियामक आयोग की जरूरत है. स्कूलकालेज महंगी फीस वसूल सकें, इस के लिए ही सरकार कोविड 19 के खतरों के बाद भी स्कूल और कालेज खोलना चाहती है.
‘देश की सरकार संसद, विधानसभा, अदालतें खोलने से कतरा रही है. फीस लेने के चक्कर में स्कूल खोलने का काम कर रही है. आकंडे़ बताते हैं कि 3 लाख करोड़ रुपए देश में एक साल में प्राइवेट स्कूलों की फीस से पैसा एकत्र होता है. यह पैसा पैरेंट्स की जेब से जाता है, जिस के बदले उसे कुछ नहीं मिलता. वह यह समझ लेता है कि उस का बच्चा पढ़लिख कर नौकरी के लायक बन गया है. असल में स्कूल एक पढ़ालिखा बेरोजगार तैयार कर रहे हैं.’
प्रताप चंद्रा कहते हैं, ‘शिक्षा एक बड़ा बिजनैस बन गया है. पैरेंट्स अपनी पढ़ाई का 50 फीसदी बच्चों के स्कूल में खर्च करते हैं. फीस के साथ ही साथ बहुत सारे दूसरे खर्च भी इस में जुडे़ हैं.
‘पूरे देश के स्तर पर कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है कि शिक्षा में एकरूपता आ सके और उस के अनुसार रोजगार मिल सके. स्कूली क्षेत्रों में रोजगार की बुरी हालत है. यहां कर्मचारियों का शोषण होता है. वेतन बढ़ोतरी का कोई नियम नहीं है. किस कर्मचारी को कितना वेतन मिलेगा, यह मालिक की मरजी पर टिका होता है. 20-22 साल से नौकरी करने वाले की जौब भी एक झटके में जा सकती है. तालाबंदी के दौरान 30 से 50 प्रतिशत तक वेतन कटौती की गई. जिन लोगों को नौकरी से हटाया गया, उन के बकाया पैसे लेने के लिए दौड़ाया जा रहा है. पुराने कर्मचारियो को हटा कर कम पैसे में नए लोगों से काम ले कर पुराने कर्मचारियों को हटाने का प्रयास किया जा रहा है. ऐसे में जरूरी है कि शिक्षा व्यवस्था को देखने के लिए शिक्षा नियामक आयोग बनाया जाए, जिस से पैरेंट्स के साथ ही साथ वहां काम करने वाले कर्मचारियों के हित भी सुरक्षित रह सकें.
बकरे सा हलाल होती बेरोजगारों की फौज :
इंजीनियरिंग, पौलीटैक्निक और आईआईटी कालेजों से साल दर साल बेरोजगारों की फौज कालेजों से बाहर निकलती है. उत्तर प्रदेश के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि हर साल पौलिटैक्निक से तकरीबन 1 लाख, 54 हजार छात्र डिप्लोमा लेते हैं. आईटीआई से 2 लाख छात्र निकलते हैं. 1 लाख के करीब इंजीनियरिंग से छात्र निकलते हैं. 4 लाख से ऊपर टैक्निकल छात्र रोजगार की उम्मीद ले कर कालेजों से बाहर आते हैं. इन में से अधिकांश के परिवार पढ़ाई के खर्च से इतना टूट चुके होते हैं कि वे किसी भी वेतन पर काम करने को तैयार हो जाते हैं. प्राइवेट कंपनियां इन को बकरे की तरह हलाल करती हैं. नौकरी के 10-15 साल में जब यह पूरी तरह से हलाल हो जाते हैं, तब उन को नौकरी से बाहर निकाल दिया जाता है क्योंकि उन की जगह कम वेतन पर काम करने वाले बेरोजगार तैयार मिल जाते हैं.
निजी नौकरियों की बात हो या सरकारी नौकरी की, अंगरेजी शिक्षा वालों को अधिक महत्व दिया जाता है. इस कारण ही पैरेंट्स अंगरेजी स्कूलों की फीस की मार सहने को तैयार हो जाते हैं. उत्तर प्रदेश प्रोविंशियल सिविल सर्विस यानी यूपीपीसीएस 2018 के परिणामों को देखें, तो यह बात साफ हो जाती है.
जानकारी के मुताबिक, मुख्य परीक्षा में 1,100 से अधिक विज्ञान के छात्र शामिल हुए. 800 से अधिक ने साक्षात्कार दिया. इन में से ज्यादातर अंगरेजी माध्यम के थे. 976 पदों में चुने गए छात्रों में सब से अधिक संख्या अंगरेजी माध्यम के छात्रों की थी. कुल चुने गए छात्रों में से 600 अंगरेजी माध्यम और हिंदी के केवल 350 छात्र थे. हिंदी और अंगरेजी के बीच यही अंतर निजी स्कूलों में छात्रों को पढ़ने के लिए मजबूर करता है.