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अभी मेरी सांस में सांस वापस आई भी नहीं थी कि अंदर से अंकलजी के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी. ‘यह राक्षस फिर आ गया इस घर में.’ अब तो मेरी सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे ही रह गई. मुझे लगा, अंकलजी को शायद पता चल गया. मैं तो उठ कर भागने ही वाला था कि अंदर से एक थैली उड़ती हुई आई और बाहर आंगन में आ कर गिरी. उस में से ढेर सारा प्याज निकल कर चारों तरफ फैल गया.

‘तुझे कितनी बार मना किया है लहसुनप्याज खाने को, सुनता क्यों नहीं,’ अंकलजी आग्नेय नेत्रों से उपकार को घूरते हुए बोले. अंकल जी को देख कर मुझे शिवजी की तीसरी आंख याद आ गई, लगा कि आज हम दोनों भस्म हुए ही हुए.

उपकार मुंह नीचे किए चुपचाप बैठा था. मुझे काटो तो खून नहीं. और अंकल जी बड़बड़ाते हुए घर से बाहर चले गए.

मैं ने तुरंत टेबल के नीचे से डब्बा निकाला और बाहर की तरफ जाने लगा.‘यह डब्बा तो छोड़ता जा, कल ले जाना,’ उपकार की दबीदबी सी आवाज आई.‘इतना सुनने के बाद तुझे अभी भी चिकन खाना है,’ मैं हैरत में डूबा हुआ उपकार को देख रहा था.

जवाब में उपकार ने मेरे हाथ से डब्बा ले लिया. उसी समय अंकलजी वापस आए और मैं उन को नमस्ते कर के घर से निकल गया.

पूरे एक हफ्ते तक मैं ने उपकार के घर की तरफ रुख न किया. पूरे एक साल तक मैं ने चिकन को हाथ भी नहीं लगाया. घर वाले हैरान थे कि मुझे क्या हो गया. कहां मैं इतने शौक से चिकन खाता था और कहां मैं चिकन की तरफ देखता भी नहीं.

मैं अकसर उपकार को समझाता कि एक ब्राह्मण के लिए मांसाहार उचित नहीं है.  साथ ही, उस को अपने पिताजी की भावनाओं का सम्मान करते हुए लहसुनप्याज भी नहीं खानी चाहिए. लेकिन, उस पर कोई असर हो तब न. उलटे, उस को तो मेरे घर का चिकन इतना अच्छा लगा कि कभी भी मेरे घर आ जाता और मां से चिकन बनवाने की फरमाइश कर बैठता. छोटी बहन नयना तो चिकन बहुत ही स्वादिष्ठ बनाती थी.

मां कहती थी, ऐसा स्वादिष्ठ चिकन पूरे महल्ले में कोई नहीं बनाता था. पता नहीं मां ऐसा, बस, अपनी बेटी के मोह में कहती थी या सचमुच नयना सब से अच्छा चिकन बनाती थी. हमें तो महल्ले की किसी कन्या के हाथ का बना चिकन खाने का सौभाग्य मिला नहीं था, इसलिए नयना का बनाया चिकन ही हमारे लिए सब से अच्छा था.

यों ही समय कटता चला गया और फिर हमारी ग्रेजुएशन पूरी हो गई. उपकार ने पूरी यूनिवर्सिटी में टौप किया था. मैं भी उस के साथ पढ़पढ़ कर ठीकठाक नंबर से पास हो गया था. उपकार ने तो अपने ही कालेज में एमएससी में ऐडमिशन ले लिया था जबकि मुझे दिल्ली में एक एक्सपोर्ट कंपनी में नौकरी मिल गई. महीने में एक बार ही मैं घर आ पाता. उपकार मुझ से मिलने आ जाता और फिर चिकन खा कर ही जाता.

देखतेदेखते 2 साल गुजर गए. उपकार को अपने ही कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई. बधाई देने के लिए मैं उस के घर गया, तो उस ने बड़ी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया. मुझे लगा जैसे वह मुझ से कुछ कहना चाह रहा है लेकिन कह नहीं पा रहा था.

‘क्या बात है, कुछ कहना चाह रहे हो?’ मैं ने उस से पूछ ही लिया.‘हां, नहीं…  कुछ नहीं.’ मेरे पूछने पर वह थोड़ा हड़बड़ा गया.‘कालेज में सब ठीक तो है?’ मुझे लगा शायद उसे नई नौकरी में एडजस्ट करने में कोई दिक्कत हो रही हो.

‘कालेज में तो सब ठीक है, असल में, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं, पर डरता हूं कि पता नहीं तुम क्या सोचो,’ उस ने थोड़ी हिम्मत जुटाई.

‘अरे, तो बोल न. अगर कुछ चाहिए तो बता. बस, मुझ से चिकन लाने को मत बोलना,’ मैं बोल कर जोर से हंस दिया.

‘मैं चिकन नहीं, चिकन वाली को इस घर में लाना चाहता हूं,’ उपकार ने धीमी सी आवाज में कहा.‘मतलब?’ मैं सच में कुछ नहीं समझा था.‘मैं नयना से शादी करना चाहता हूं, अगर तुम को कोई आपत्ति न हो.’ आखिर उस ने हिम्मत कर के बोल ही दिया.

‘नयना, अपनी नयना.’ मुझे उपकार की बात सुन कर एक झटका सा लगा, लेकिन अगले ही पल मुझे लगा नयना के लिए उपकार से अच्छा लड़का और कहां मिलेगा.

‘हां,  हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं,’ उपकार ने नजरें नीची किए हुए कहा.सच कहूं तो मुझे तो बहुत खुशी होगी अगर नयना को इतना अच्छा घरपरिवार मिल जाए,’ मैं ने मुसकरा कर कहा लेकिन अगले ही पल मेरी आंखों के आगे अंकलजी यानी उपकार के पिताजी का चेहरा घूम गया.

‘लेकिन तुम्हारे पिताजी? वे तो लहसुनप्याज को भी घर में नहीं आने देते, भला एक मांसाहारी, गैरब्राह्मण लड़की को अपनी बहू बनाने के लिए कैसे तैयार होंगे,’ मैं ने अपनी शंका उपकार के सामने रखी.

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