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शौहर अंधा हो, बहरा हो, लूलालंगड़ा हो, पर है तो घर का दरवाजा न. लेकिन घर की चौखट निकली नहीं कि, समझो, जमानेभर की बदबूदार और लूलपटभरी हवाएं बेलौस घर में घुसने की कोशिश करने लगती हैं.

रात को अम्मी ने फुसफुसा कर नईमा को समझाया था, ‘‘मुकीम के पास वापस जाने के लिए सारे रास्तों पर तो जैसे ताले लग गए हैं. शायद एक यही, करामत अली, टेढ़ीमेढ़ी पगडंडी की तरह तुम्हारे काम आ सके. दो कदम ही तो साथ चलना है. हौसला रख, निकाह के बाद दूसरे दिन तलाक देने की शर्त मान ले तो समझो, तुम्हारी सारी परेशानी दूर हो जाएगी. कोई गैर तो है नहीं, है तो मुकीम का ही खून.’’ सुलगते हुए रेगिस्तान के मुसाफिर के आबले पड़े पैरों पर कोई ठंडी झील का पानी डाल दे, ऐसा एहसास नईमा को खुशी की हलकी सी किरण दिखला गया.अब एक ही रास्ता है बिखरी जिंदगी को फिर से संवार लेने का. किसी से दूसरा निकाह यानी हलाला फिर तलाक ले कर मुकीम से निकाह. लेकिन सारे रिश्तेदारों ने तो इनकार कर दिया. शायद बदनाम करामत अली मेरी घरवापसी के लिए सीढि़यां बन जाए.

आखिरकार नईमा ने करामत अली से निकाह कर के, फिर तलाक ले कर मुकीम के साथ हलाला निकाह करने का फैसला कर ही लिया. नईमा के अब्बू अपनी जिम्मेदारी उठातेउठाते थक कर चूर हो गए थे. धन का अभाव आदमी को तोड़ देता है. इसलिए उन्होंने नईमा के फैसले पर मौन स्वीकृति दे दी. वह रात कयामत की रात थी. नईमा करामत अली की ज्यादतियां बरदाश्त करती रही. एक अदद घर और बच्चों की बेहतरीन जिंदगी की ख्वाहिश जीतेजी नईमा के लिए अजाबे कब्र बन गई. समाज, मजहब, मुल्लामौलवी सब कानों में रुई ठूंसे, आंखों पर पट्टी बांधे, नईमा की दर्दीली चीखें सुनते रहे. फजां खामोश, हवा खामोश, सुलग रही थी तो बस एक हाड़मांस की औरत.

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