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‘‘मुकीम नईमा और बच्चों को घर ले जाने के लिए कह रहा है,’’ वजू के लिए पानी बरतन में डालते हुए नईमा की अम्मी ने अब्बू को बतलाया. उन के मिसवाक करते हाथ एकदम से थम गए.

‘‘ठीक है, आज हाफिज साहब से बात करूंगा, कोई न कोई रास्ता तो कलामे पाक में लिखा होगा. लेकिन याद रखना, मुकीम को मेरी गैरहाजरी में घर में कदम मत रखने देना. तलाक के बाद बीवी शौहर के लिए हराम होती है.’’ हाफिज साहब ने मुकीम के पछतावे और नईमा के बिखरते परिवार के तिनके फिर से जोड़ने की पुरजोर कोशिश पर गौर करते हुए ‘हलाला’ की हिदायत दी. ‘हलाला’, बीड़ी वाले सेठ की पढ़ीलिखी बीवी ने यह सुना तो आश्चर्य और शर्म से मुंह पर हाथ रख लिया. छी, इस से ज्यादा जलालत एक औरत की पुरुष समाज में और क्या हो सकती है? अपने शौहर के जुल्मों को माफ कर के, उस के हाथों बेइज्जत हो कर, फिर उसी के साथ दोबारा जिंदगी गुजारने के लिए गैरमर्द को अपना जिस्म सौंपना पड़े. छी, गलती मर्द करे, लेकिन सजा औरत भुगते. ये बंदिशें, ये सख्तियां सिर्फ औरत को ही क्यों सहनी पड़ती हैं? मर्द इस इम्तिहान से क्यों नहीं गुजारे जाते. क्या यही हैं इसलाम में मर्द और औरत को बराबरी का दरजा देने की दलीलें? सुन कर उन की कौन्वैंट में पढ़ी बेटी बोल पड़ी, ‘‘सब झूठ, सब बकवास. हदीसों में औरत के मकाम को बहुत बेहतर बताया गया है लेकिन 21वीं सदी में भी मुसलमान औरतों के इख्तियारों को मर्द जात अपनी सहूलियत के मुताबिक तोड़मरोड़ कर अपनी मर्दानगी का सिक्का जमाने का मौका नहीं चूकती है.’’

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