54 साल के रामकेवल सरकारी नौकरी करते है. शहर और गांव में उनका अच्छा घर है. गांव में उनकी इज्जत वैसी नहीं है जैसी ऊंची जातियों के लोगों की होती है. गांव की सडक से जब रामकेवल गुजरते है तो कुछ लोग नमस्कार जरूर कर लेते है पर उसका श्रद्वा भाव वैसा नहीं होता जैसा ऊंची जाति के लोगों के प्रति होता है. ऊंची जाति लोग जब राह से गुजरते है तो दूर से ही ‘बाबा पैलगी‘ होने लगती है.

एससीबीसी लोगों को उनके नाम से पुकारा जाता है. जबकि ऊंची जातियों के लोगों को उनके नाम से नहीं पुकारा जाता. एससीबीसी जातियों के लोग अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढाने के लिये ही हर वो काम करते है जो ऊंची जातियों के लोग करते है.

रामकेवल कहते है ‘आजादी के बाद आरक्षण के जरीये हमें नौकरी मिली. हमने नौकरी पूरी मेहनत से की. जब हमारा प्रमोशन होता है और हम अपनी खुशियां ऊंची जातियों के सहकर्मियों के साथ बांटना चाहते है तो वह लोग हमारी मिठाई भी ऐसे खाते है जैसे कि मिठाई कड़वी लग रही हो.

कई लोग बधाई देते हुये भी ऐसे शब्दों का प्रयोग करते है जिसमें उनका कड़वापन दिखता है. नौकरी मिलने से हमें आर्थिक सुरक्षा तो मिल गई पर आज भी सामाजिक बराबरी का दर्जा नहीं मिला. इस बात की कुंठा एससीबीसी में होने लगती है.जिस वजह से सामाजिक बराबरी नहीं आ रही है.‘

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सरनेम बदल कर भी नहीं मिलती बराबरी:

यह कुंठा रामकेवल के मन में नहीं है डाक्टरी की पढाई कर रही उनकी बेटी दिव्या कहती है हास्टल से लेकर क्लास तक ऊंची जातियों के बच्चे केवल यही बात कहते रहते है कि हमे नौकरी की चिंता करने की जरूरत ही नहीं है. हमें तो आरक्षण के बल पर नौकरी मिल ही जायेगी ? वह यह नहीं सोचते कि क्या सारे दलित छात्रों को सरकारी नौकरी मिल ही जाती है.

आरक्षण भेदभाव को खत्म करने की जगह पर भेदभाव को और भी गहरा करता जा रहा है. रामकेवल कहते है ‘हमारी पीढी में हमारे नाम ऐसे रखे जाते थे जिससे हमारी जाति का अंदाजा लगाया जा सके. हमने अपनी बच्चों के नाम ऐसे रखे जिससे उनकी जाति का अंदाजा नाम से न लगाया जा सके पर इसके बाद भी सामाजिक स्तर पर भेदभाव खत्म नहीं हुआ.

ऊंची जातियों के लोग एससीबीसी पर यह आरोप लगाते है कि हम अपने नाम के आगे ऊंची जातियों से मिलता जुलता ‘सरनेम‘ लगा लेते है. असल में एससीबीसी अपने पहचान छिपाकर समाज में बराबरी का दर्जा हासिल करने के लिये यह मजबूरी बस करते है. अगर सरकारी नौकरी मिलने से बराबरी मिल जाती तो ‘सरनेम‘ बदलने की जरूरत नहीं होती.

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बराबरी का दर्जा नहीं दिला पा रही आर्थिक मजबूती:

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्वरोजगार योजना’ के तहत ‘नवीन रोजगार छतरी योजना‘ 3484 लाभार्थियों के खाते में 17.42 करोड़ रूपये आन लाइन ट्रांसफर किया. योगी आदित्यनाथ ने आर्थिक समानता को ही समाजिक बराबरी का आधार ठहराते हुये कहा ‘समाज में एक तबका मजबूत और दूसरा तबका कमजोर हो तो ऐसा समाज कभी भी आत्मनिर्भर नहीं बन सकता है. इसके संतुलन के लिये जरूरी है कि यह सामाजिक के साथ आर्थिक स्तर पर होना चाहिये.

कोरोना संक्रमण काल में न केवल आर्थिक हालात खराब हुये बल्कि सामाजिक व्यवस्थायें भी प्रभावित हुई. इन हालातों में उत्तर प्रदेश सरकार लोगों की मदद करके उनको स्वावलंबी बना रही है. योगी आदित्यनाथ ने कहा कि प्रधानमंत्री ने हर बैंक शाखा को लक्ष्य दिया है कि कम से कम 2 अनुसूचित जाति जनजाति और महिला लाभार्थियों को अनिवार्य रूप से से बैक लोन उपलब्ध कराया जाये.‘

आरक्षण को लेकर जब भी बहस होती है सबसे पहले या मुददा उठा दिया जाता है कि इसका आधार सामाजिक की जगह आर्थिक होना चाहिये. आरक्षण के आर्थिक आधार के पक्षधर अपना तर्क देते है कि ऊंची जातियों में भी गरीब लोग होते है. ऐसे में उनको भी आरक्षण की जरूरत होती है. यह तर्क आरक्षण की मूल भावना के खिलाफ है. संविधान कभी इसकी अनुमति नहीं देता है.

विष्वषुद्र महासभा के अध्यक्ष जगदीष चैधरी कहते है ‘संविधान ने जब अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये आरक्षण देने का प्रावधान बनाया था उसी समय इस मसले पर यह तय हुआ था कि आरक्षण सामाजिक स्तर पर दिया जायेगा आर्थिक स्तर पर नहीं दिया जायेगा. आरक्षण की मूल भावना रोजगार देना या सरकारी नौकरी देना नहीं है. आरक्षण की मूल भावना एससीएसटी जातियों को सामाजिक रूप से बराबरी का दर्जा देना है.

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आरक्षण के जातीय आधार का विरोध करने वालों ने पिछले 73 सालों में इस बहस को खत्म ही नहीं होने दिया. यह लोग हर बार आरक्षण के आर्थिक आधार की बात करते रहे. आरक्षण का आर्थिक आधार तब ही हो सकता है जब संविधान में संशोधन किया जाये.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी पार्टी भाजपा शुरू से ही आरक्षण के जातीय आधार का विरोध करते रहे है. ऐसे में उनकी सरकार में जब भी और जहां भी यह मौका मिलता है आरक्षण के आर्थिक आधार की वकालत करने से चूकते नहीं है. भारतीय जनता पार्टी ने अपने मूल सिंद्वातों में आरक्षण के आर्थिक आधार के बिन्दू को जोड रखा है. जो संविधान में दिये गये जातीय आधार के पूरी तरह से खिलाफ है.

विष्वषुद्र महासभा के चैधरी जगदीष पटेल कहते है ‘जब संवैधनिक पदों पर बैठे लोग ही संविधान की मूलभावना के खिलाफ बातें कर रहे तो दूसरों से क्या उम्मीद की जा सकती है. आरक्षण का आर्थिक आधार संविधान द्वारा दिये गये आरक्षण का विरोध करने का एक जरीया बन गया है. इसकी चर्चा ने ही समाज में आरक्षण और गैर आरक्षण के बीच भेदभाव को बढा दिया है. यह भेदभाव तबतक नहीं खत्म होगा जब तक संविधान की मूलभावना के तहत एससीबीसी जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल जाता है

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