कोरोना वायरस महामारी के कारण जहां विश्वभर में हालात काफी बदले हैं, वहीं युवाओं की जीवनशैली में काफी बदलाव आया है. उन के जीने का नजरिया अब बदलने लगा है.
बड़ीबड़ी कंपनियों में मासिक वेतन के अतिरिक्त अन्य सुविधाएं भी उपलब्ध होती हैं. इस वजह से आजकल के युवा अपने वेतन को अब तक लग्जरी जीवन जीने में खर्च कर रहे थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है.
बदल डाली शौक
एक मल्टीनैशनल कंपनी में सीईओ रही सोनाली को ब्रैंडेड कपड़ों व होटलों पर अपनी तनख्वाह खर्च करने का बेहद शौक था. लग्जरी जीवन जीना उन की प्राथमिकता थी. मगर अब वे सोचसमझ कर खर्च करती हैं. वजह है कोरोना से उपजी समस्या.
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विशाल ने 1 साल पहले अपनी स्टूडियो खोली थी. काम अच्छा चल रहा था. मगर इस से पहले कि काम को अच्छी गति मिलती उस के पहले लौकडाउन लग गया. लगभग 2 महीने तक स्टूडियो बंद रहा जबकि कर्मचारियों का वेतन भुगतान जारी था जबकि उस की तुलना में बिक्री बहुत कम थी.
आर्थिक स्थिति की अनिश्चितता से चिंता के कारण उन्हें असहज महसूस होने लगा.
विशाल बताते हैं,” मैं आर्थिक स्थिति की अनिश्चितता के कारण चिंतित और असहाय महसूस कर रहा हूं. अब तो मुझे काम के अर्थ पर भी संदेह होता है.”
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2 महीने तक उन्होंने अपने यहां काम कर रहे आदमियों को वेतन दिया पर आमदनी शून्य होने के कारण उन्हें काम से हटाना पड़ा.
लग्जरी लाइफ से तोबा
वनीता को भी लग्जरी लाइफ जीने का शौक था. कामवाली के भरोसे अकेली रहने वालों को काम चलाना सुविधाजनक लगता है.
लौकडाउन के कारण उन्हें घर पर ही रहना पड़ा. धीरेधीरे उस ने अपनी मां के साथ रसोई में काम करना शुरू किया. घर में रहने की वजह से इनोवैटिव कुकिंग शुरू कर दी, जिस से न केवल उसे खुशी हुई अपितु बचत भी खूब हुई. औफिस का काम घर से ही चल रहा था तो इस वजह से आधी तनख्वाह मिलती थी. इस से उस के अंदर सुरक्षा की भावना थी कि कुछ पैसा तो हाथ में है.
उधर फास्ट फूड खाने के कारण जो वजन बढ़ रहा था, घर में काम करने से कम हुआ और शरीर में स्फूर्ति भी रहने लगी.
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बदलेबदले से हैं हालात
इस कोरोना काल में भारत भी आर्थिक समस्या से जूझ रहा है. बेरोजगारी बढ़ रही है. प्राइवेट सैक्टर में कंपनियां छंटनी कर रही हैं. मध्यवर्गीय व सभी कर्मचारियों की हालत एकजैसी हो रही है. सभी एकजैसी मानसिक स्थिति से गुजर रहे हैं. भारत में 90 के दशक के बाद के बच्चे भी भव्य खर्चे में आत्मसुख तलाश रहे थे और अभिव्यक्ति का लाभ उठा रहे थे, लेकिन हालात पहले जैसे नहीं रहे.
सब से बड़ा असर उन युवाओं पर पड़ा जो हाल ही में आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़े होने वाले थे. लेकिन एक झटके में उन के हाथ से नौकरी चली गई. मानसिक स्थिरता की जगह चिंता और असंतोष का भाव उन को परेशान करने लगा.
धानी व मयंक जैसे लोग आवेगपूर्ण उपभोग करते थे. लेकिन महामारी आने के कारण उन के विवेकपूर्ण और समझदारी से चलने की वजह ने उन्हें बचा लिया.
भविष्य को ले कर संशय
बेरोजगारी और व्यवस्था को दुरुस्त रखने के लिए सरकार ने नीतियों में ढील तो दी है लेकिन महामारी ने युवाओं का नजरिया बदल दिया है. अब वे खुद को जोखिम से बचाने के नएनए तरीके ढूंढ़ रहे हैं. युवाओं ने नएनए तरीके का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और औनलाइन कमाने का जरीया ढूंढ़ने में लगे हैं.
संजय ने दुकान बढ़ाने के लिए अपनी आधी जमापूंजी दुकान में लगा दी. लेकिन आमदनी बंद होने के कारण मुश्किलें बढ़ गईं. दुकान का किराया देना और पैसे की तंगी न हो इसलिए औनलाइन काम शुरू किया, लेकिन उस में भी गिरावट आ गई. ग्राहक पैसा देना नहीं चाहते. दुकानें खुली हैं लेकिन ग्राहक नहीं हैं. इसलिए कुछ ही हफ्तों के बाद उन्हें अपने इस व्यवसाय को बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
शीतल की नईनई नौकरी लगी थी. कंपनी ने आर्थिक स्थिति में गिरावट की वजह से लोगों को निकाल दिया. उन लोगों में वह भी शामिल थी. अपनी मानसिक स्थिति को व्यस्त रखने के लिए उस ने औनलाइन लिखना शुरू कर दिया और औनलाइन सामान बेचे. पुरानी चीजें भी बेचीं.
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औनलाइन काम करने से फिलहाल बहुत ज्यादा पैसा तो नहीं मिल रहा है लेकिन उसे आत्मसंतुष्टि जरूर मिली कि कुछ तो कमा रहे हैं. लेकिन अभी भी भविष्य को ले कर बहुत संशय है.
जमीन पर रहना अच्छा है
सोनाली व निक दोनों नौकरी कर के अच्छा कमाते थे. हाल ही में उन्होंने बड़ा सा घर लिया था. दोनों वित्तीय कर्मचारी हैं. महामारी से पहले कमीशन में प्रति वर्ष अच्छा पैसा कमाते थे, लेकिन भुगतान हाल के महीनों में पूरी तरह से सूख गया है.उन के लिए वित्तीय तौर पर बहुत बड़ा झटका था. अपने फ्लैट का भुगतान करने के लिए उन्हें 60% कटौती करनी पड़ी.
वे कहती हैं कि मुझे कुछ योजना बनानी होगी. सौंदर्य प्रसाधन व स्वयं पर खर्च कम करने होंगे. औफिस खुलने के बाद टेकआउट मिल लेने की जगह घर का बना भोजन ले कर जा रही हूं. मेस का खाना बंद कर दिया है. धीरेधीरे बचत करनी होगी और अपने खर्चों पर विशेष ध्यान देना होगा.
वे कहती हैं,”महामारी के कारण पूरे 2 महीने तक घर पर रहना मुझे इस बात का एहसास कराता रहा कि बगैर भागदौड़ की जिंदगी में ज्यादा सुकुन था. मुझे लगता है कि जमीन पर अपने पैरों के साथ रहना बहुत अच्छा है.”
साकेत ने कहा,” पहले मुझे खर्चे व फ्लैट की किस्त के लिए सोचना नहीं पड़ता था. लेकिन अब हर कार्य को करने से पहले योजना बनानी पड़ती है.”
वहीं सौरभ कहते हैं कि हालात बेहद खराब हैं. रोटी कमाने के लिए हम बाहर आए हैं. इस वेतन में परिवार के लिए क्या व कैसे करेंगे, कल का पता नहीं है.
मगर सवाल कई हैं
यों कोरोना महामारी ने लोगों की जिंदगी बदल दी है. युवाओं की सोच व निति में परिवर्तन आया है.सब से बड़ी बात है कि भले भविष्य में स्थितियां सामान्य हो जाएं लेकिन युवाओं को दोहरी मार पड़ रही है. आने वाले आर्थिक संकट से देश के युवा कैसे उबरेंगे, यह एक चुनौती होगी.
समय का यह घाव क्या स्थितियां सामान्य कर सकेंगी? क्या भारत की अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए सरकार की नीतियां काम करेंगी? सवाल कई हैं पर फिलहाल
बेरोजगारी बढ़ने से युवाओं की मानसिक स्थिति उन्हें अवसाद में धकेल सकती है. युवाओं का रुझान नए ट्रैंड स्थापित करने में हो रहा है लेकिन सफलता व रास्ते बेहद दूर हैं. अलबत्ता देश की आर्थिक स्थिति को बढाने में युवाओं का बड़ा योगदान जरूर होगा.