कागज पे लिखते थे जो अधर,

होंठों को छू कर

उंगलियों को फिर उस पर

लगा नहीं सकते

आदत थी मासूम मेरी

तेरी सूरत सोच कर हम बेजबां

तन्हा रातों में तकिए को

दिल से लगा नहीं सकते

आकाश में देखे थे जो बादल

तेरे साथ खुद को जोड़ कर

गीली रेत पर वह आशियां

अब बना नहीं सकते

तुम जो उड़ते ऊंचाइयों पर

हमारे सपनों के पंख लगा के

गूंथ कर उस फलक पर

पक्के रंग लगा नहीं सकते

बदलते हैं रास्ते खुद ही

नाकाम होती रहें कोशिशें

प्यासे सागर को

मीठे दरिया से मिला नहीं सकते

बुन कर उलझते तानेबाने

आसपास शामिल सांसों में

सुलझे जवाबों के सवाल

लकीरों से मिटा नहीं सकते

बहुत सोचते हैं, समझाते हैं

अपने दिल को

इक तुझे खोने के डर से

अब तुझे पा नहीं सकते

क्यों लिख देते हैं अपने ये

कुछ सोए जज्बात

दिल की बात शायद

तुम से छिपा नहीं सकते.

       

– प्रणय विरमानी

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