कोरोना संकट ने सिर्फ कई चीजों को खत्म ही नहीं किया, यह कई नयी चीजों को लेकर भी आया है. इन्हीं में से एक है वर्चुअल रैली. यूं तो वर्चुअल रैली एक तरीके से संचार माध्यमों के जरिये लाइव होना ही है, जो कि हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में पिछले कई सालों से और कई तरीकों से लोग होते रहे हैं. लेकिन 7 जून 2020 को जब गृहमंत्री अमित शाह ने बिहार में वर्चुअल रैली करते हुए आगामी विधानसभा चुनावों का शंखनाद किया तो निश्चित रूप से यह भारत में पहली व्यवस्थित वर्चुअल रैली थी. अमेरिका में बड़े पैमाने पर और यूरोप में कुछ छिटपुट स्तर पर वर्चुअल चुनावी रैलियां होती रही हैं. भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ से लेकर अपने कई दूसरे कार्यक्रमों के जरिये हिंदुस्तान के कोने कोने तक लाइव पहुंचते रहे हैं. मगर जहां तक वर्चुअल रैली का सवाल है तो यह पहली चुनावी रैली है जो विशुद्ध रूप से वर्चुअल तरीके से सम्पन्न हुई.

इस तरह अगर कहा जाए कि भारत में वर्चुअल रैलियों का राजनीतिक युग 7 जून 2020 से शुरु होता है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. यूं तो भाजपा के आईटी सेल ने दावा किया है कि गृहमंत्री अमित शाह की 7 जून की रैली को देश विदेश में 50 लाख से ज्यादा लोगों द्वारा देखा गया. लेकिन फिल्टर आंकड़े बताते हैं कि 50 तो नहीं लेकिन 5 लाख लोगों ने जरूर अमित शाह की रैली को सुना या कहें उन्हें टीवी मोबाइल या ऐसे ही दूसरे संचार माध्यमों के जरिये बोलते हुए देखा और सुना. 5 लाख लोग कम नहीं होते. कुछ गिनी चुनी रैलियों में 5 लाख लोग इकट्ठा होते हैं. भले राजनीतिक पार्टियां अपने छुटभैय्ये नेताओं की रैलियों को भी लाखों लोगों की रैलियां बता दें. इस तरह कहा जा सकता है कि न सिर्फ देश की पहली वर्चुअल रैली धमाकेदार रही बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि अमित शाह ने वर्चुअल स्तर पर सचमुच किसी जन नेता के तौरपर अपना प्रभाव छोड़ा.

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बिहार की इस शुरुआती वर्चुअल रैली के बाद उत्साहित अमित शाह ने ओडीसा और फिर पश्चिम बंगाल को भी वर्चुअल रैली के जरिये संबोधित किया. भाजपा का कहना है कि वह अगले कुछ महीनों में बिहार, पश्चिम बंगाल और उडीसा सहित जिन जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, वहां अपने तमाम नेताओं की 1000 रैलियां आयोजित करेगी. सवाल है क्या पहली दो तीन रैलियों से ही मान लिया जाए कि वर्चुअल रैलियां वास्तविक रैलियों का सम्पूर्ण विकल्प हैं? अगर अब तक की सम्पन्न वर्चुअल रैलियों के प्रभाव को लोगों पर हुए असर के रूप में देखा जाए तो निश्चित रूप से यह कहना अभी पूरी तरह से सही नहीं होगा कि वर्चुअल रैलियां सही मायनों मंे एक्चुअल राजनीतिक रैलियों का विकल्प हैं.

इसकी एक वजह यह है कि भाजपा का आईटी सेल और सोशल मीडिया भले इस बात को जोर शोर से कह रहे हों कि अमित शाह की वर्चुअल रैलियों का लोगों में असर वास्तविक रैलियों से भी ज्यादा हुआ है. लेकिन कई भाजपायी कार्यकर्ता ही, जो इन रैलियों को सुना और कहीं न कहीं इनमें शामिल रहे, वे कहते हैं, ‘वास्तविक रैलियां जीवंत रैलियां होती हैं, उनकी कोई जगह नहीं ले सकता.’ वर्चुअल रैलियां दरअसल हमेशा इस बात का उसमें शामिल लोगों को भी एहसास दिलाती रहती हैं कि ये आभासी रैलियां हैं. सवाल है वर्चुअल रैलियां आखिर हैं क्या? दरअसल वर्चुअल रैलियां जैसा कि हमने पहले भी कहा नेताओं के भाषणों का लाइव प्रसारण जैसा ही कुछ हैं. बस लाइव रैलियों के दौरान नेताओं के इन भाषणों को एक साथ संचार के सभी माध्यमों में प्रसारित कर दिया जाता है. इसमें फेसबुक पेज, यू-ट्यूब और विभिन्न टीवी चैनलों के जरिये प्रसारण भी शामिल होता है.

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सवाल है क्या इस तरह की रैलियां भविष्य के लिए ज्यादा अनुकूल होंगी? सोचने में ऐसा ही लगता है और इसकी एक तात्कालिक वजह कोरोना संकट भी है. कोरोना संक्रमण से पहले कभी लोगों ने नहीं सोचा था कि ऐसा भी कभी हो सकता है कि लोगों का एक साथ इकट्ठा होना संकट का सबब बन जाए. फिलहाल ऐसा ही है और जिस तरह से कोरोना की त्रासदी बड़े आराम से हिंदुस्तान में रूकने का संकेत दे रही है, उससे ये भी हो सकता है कि अब भविष्य में लाखों की तादाद में लोगों का एक साथ कहीं एकत्र होना, कहीं किताबी किस्सा न बन जाए.

सिर्फ इसलिए वर्चुअल रैलियों का भविष्य मजबूत नजर आ रहा है वरना ये किसी भी रैलियांे का वास्तविक विकल्प नहीं हो सकतीं. इसकी कई वजहें हैं पहली बात तो वही कि वास्तविक रैलियों का मजा ही कुछ और होता है. वहां लोगों की नेताओं के साथ जीवंत कैमेस्ट्री देखते ही बनती है. लोग उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ते हैं. जबकि वर्चुअल रैलियां सब कुछ के बावजूद नेताओं से नहीं आपको महज एक स्क्रीन से जोड़ती हैं. दूसरी बात यह है कि वर्चुअल रैलियां बहुत खर्चीली होती हैं. दिखने में भले लगे कि इनमें तमाम खर्चे बच जाते हैं, जो किसी स्टेडियम या बड़े मैदान पर की गई रैली में होते हैं, जैसे लोगों का खाना, रैली स्थल तक पहुंचने का परिवाहन खर्च आदि. लेकिन भले ये खर्च वर्चुअल रैली में न दिखते हों, लेकिन इसके खर्च दूसरी तरह के और काफी ज्यादा हैं. मसलन इसे राजनेताओं द्वारा हजारों जगह एलईडी के जरिये दिखाते हैं, जिसका काफी ज्यादा खर्च आता है. साथ ही अगर इस रैली को कई चैनलों द्वारा प्रसारित कराया जा रहा है तो उसका खर्च भी अच्छा खासा होता है.

कहने का मतलब वर्चुअल रैलियां लागत के मामले में अगर वास्तविक रैलियों से ज्यादा खर्च वाली नहीं होतीं तो कम भी नहीं होतीं. हां, इन रैलियों से व्यस्त नेताओं को ज्यादा से ज्यादा रैलियां संबोधित करने का मौका तो मिल जाता है, साथ ही वास्तविक रूप में वह जहां जहां नहीं पहुंच पाते, इस माध्यम से वे हर छोटी से छोटी जगह पर पहुंच जाते हैं बशर्ते आपके पास पहुंचाने का मजबूत माध्यम हो. वर्चुअल रैलियां कई मायनों में पुराने दौर की रैलियों से बेहतर होंगी तो कई मायनों में ये बदतर भी होंगी. जहां तक बेतहरी का सवाल है उनमें प्वाइंट यही है कि इसके जरिये राजनेता कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा जगहों तक पहुंच सकते हैं. उन्हें अपनी जान को जोखिम में डालकर यात्राएं भी नहीं करनी पड़ेंगी और इन यात्राओं के कारण थकान भी नहीं होगी.

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लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि पहले से ही जीवन में इस कदर तकनीकी का वर्चस्व हो गया है कि हम ज्यादातर जगहों पर सदेह होने की जगह वर्चुअल ही होते हैं. अगर राजनीति में भी यही हुआ, जो कि शुरु हो गया है, तो वर्चुअल दौर की यह राजनीति आज के दौर से भी कम जिम्मेदार होगी. नेता जब लोगों के बीच में होते हैं या उन्हें लोगों के पास जाना होता है, तब तो वे फिर भी ज्यादा आम लोगों के करीब होते हैं और उनकी बात भी सुनते हैं. लेकिन जब उन्हें लोगों से सदेह आमने सामने मुलाकात न करनी हो तो नहीं लगता कि तब वे आज जितने भी जिम्मेदार रहेंगे. वर्चुअल रैली की यह सबसे बड़ी खामी होगी.

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