भारत के ग्राउंडवाटर (भूमिगत जल) संसाधनों का आवश्यकता से अधिक प्रयोग किया जा रहा है, जो खतरे की घंटी है. विशेषज्ञ अब काफी समय से इस बारे में चेतावनी देते आ रहे हैं. 2011 के सैंपल मूल्यांकन के अनुसार भारत के 71 जिलों में से 19 (लगभग 26 प्रतिशत) में ग्राउंडवाटर की स्थिति गंभीर या शोषित है, जिसका अर्थ यह है कि उनके जलाशयों की जो प्राकृतिक रिचार्ज क्षमता है उसके बराबर या उससे अधिक पानी उनसे निकाला जा रहा है. 2013 के एक अन्य मूल्यांकन के अनुसार यह प्रतिशत बढ़कर 31 हो गया है, इस मूल्यांकन में उन जिलों के ग्राउंडवाटर ब्लॉक्स को भी शामिल किया गया जो खारे (सेलाइन) हो गये थे.
ग्राउंडवाटर का शोषण हर जगह एक सा नहीं है, यानी विभिन्न जगहों पर अलग-अलग है. अधिकतम ओवरड्राफ्ट (आवश्यकता से अधिक निकाला जाना) उत्तर पश्चिम राज्यों (राजस्थान, पंजाब व हरियाणा) में है. पंजाब व हरियाणा गेहूं गोदाम हैं और बावजूद इसके कि इन राज्यों में नहरों का अति-विकसित नेटवर्क है यह ग्राउंडवाटर पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं.
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देश के वार्षिक ग्राउंडवाटर संसाधन में बारिश का कुल योगदान 68 प्रतिशत है, और अन्य स्रोतों जैसे नहरों से जमीन के भीतर पानी जाना, सिंचाई से जल का वापसी फ्लो, तालाब व जल संरक्षण स्ट्रक्चरों को मिलाकर 32 प्रतिशत का जल योगदान मिलता है. इसके अतिरिक्त जनसंख्या में वृद्धि का अर्थ है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति जो जल की वार्षिक उपलब्धता रहती थी उसमें कमी आयी है, 2001 में यह 1816 क्यूबिक मीटर थी प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष, जो 2011 में 15 प्रतिशत घटकर 1544 क्यूबिक मीटर रह गई.
इस पतन के अनेक कारण हैं. आंकड़े बताते हैं कि 1960 के दशक के मध्य से ही भारत का नहर नेटवर्क किसानों की जल मांग की पूर्ति नहीं कर पा रहा है. दूसरे शब्दों में जल की जिस रफ्तार से मांग बढ़ी है उस गति से नहरों का निर्माण नहीं हुआ है. इसलिए अधिकतर किसान अपने खेतों पर ट्यूबवेल लगवाने लगे ताकि हरित क्रांति फसलों की जरूरतों को पूरा किया जा सके जिन्हें अधिक पानी व खाद की आवश्यकता होती है. फिर कुछ राज्यों में चुनावी वायदों के तहत मुफ्त बिजली दी गई इस पानी को पंप करने के लिए, इससे भी ट्यूबवेल पर निर्भरता बढ़ी.
पिछले दो दशक के दौरान मानसून पूर्व वर्षा की मात्रा में कमी आयी है, जिससे ग्राउंडवाटर पर निर्भरता में वृद्धि हुई है. मसलन, भारत में इस साल मानसून पूर्व वर्षा में जबरदस्त कमी आयी है. एक मार्च और मई के पहले सप्ताह के बीच देश को कम से कम 70 एम एम वर्षा मिलनी चाहिए थी, लेकिन केवल 55 एम एम ही, जोकि 20 प्रतिशत की कमी है. इस कमी के तुरंत संकेत वाटर स्टोरेज में जाहिर हैं.केन्द्रीय जल आयोग से मिले आंकड़ों के अनुसार भारत के मुख्य जलाशयों में मई के दूसरे सप्ताह में, वर्ष के इस समय के लिए, अपने एक दशक के औसत की तुलना में 10 प्रतिशत जल की कमी है. इन स्रोतों से कम जल का अर्थ है कि भारत के ग्राउंडवाटर रिजर्व पर गर्मियों की फसल की सिंचाई और पीने व औद्योगिक प्रयोग के लिए अधिक दबाव पड़ेगा.
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कावेरी जल के पानी के बंटवारे को लेकर तमिलनाडु व कर्नाटक के बीच जो तनाव है, उसमें भी ग्राउंडवाटर एक मुद्दा है. इस साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने जो इस संदर्भ में अपना ऐतिहासिक फैसला दिया उसमें तमिलनाडु को निर्देश दिया कि वह कर्नाटक से कावेरी जल मिलने पर निर्भर रहने की बजाये अपना 10 टीएमसी (थाउजेंड मिलियन क्यूबिक फीट) ग्राउंडवाटर प्रयोग करे. निर्णय में यह भी कहा गया था कि अगर ग्राउंडवाटर को नियमित निकाला नहीं जायेगा तो वह ‘बेकार चला जायेगा’. इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने अनुमति प्रदान की कि ग्राउंडवाटर रिजर्व का प्रयोग अपनी मर्जी के अनुरूप किया जा सकता है.
लेकिन इसमें एक समस्या है- ग्राउंडवाटर क्योंकि रिजर्व है इसलिए उसका न्यायोचित प्रयोग किया जाना चाहिए, खासकर इसलिए कि इसके आवश्यकता से अधिक प्रयोग से स्वास्थ्य संबंधी खतरे बढ़ जाते हैं. पश्चिम बंगाल, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखंड में आर्सेनिक प्रदूषण की गंभीर समस्याएं हैं और इसका एक कारण यह है कि अधिक गहराई से निरंतर ग्राउंडवाटर निकाला जा रहा है. अनेक वर्षों से पंजाब व हरियाणा कैंसर मामलों में निरंतर वृद्धि रिपोर्ट कर रहे हैं; क्योंकि रसायनिक खाद मिट्टी में मिल रहे हैं जो ग्राउंडवाटर को प्रदूषित कर रहे हैं.
पूर्व में अनेक प्रयास किये जा चुके हैं कि राज्य ग्राउंडवाटर का प्रयोग सही से करें. केंद्र ने ‘मॉडल’ ग्राउंडवाटर विधेयक गठित किया है, जो राज्यों के लिए अनिवार्य नहीं है. लेकिन 11 राज्यों व 4 केंद्र शासित प्रदेशों ने इसे अपनाया है. बहरहाल, इन राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में इस कानून का ग्राउंडवाटर शोषण पर सीमित प्रभाव ही पड़ा है.
पिछले साल केन्द्रीय जल मंत्रालय एक विधेयक लेकर आया जिसके तहत विभिन्न वर्ग जो ग्राउंडवाटर का प्रयोग करते हैं उन्हें इसकी फीस चुकानी होगी. इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस विधेयक के जरिये यह प्रयास किया गया है कि संसाधन के रूप में ग्राउंडवाटर पर नजरिया बदले. वर्तमान में स्थिति यह है कि भूमि के मालिक को ही उस भूमि के ग्राउंडवाटर का मालिक समझा जाता है. इस विधेयक के जरिये ग्राउंडवाटर का मालिक राज्य को बनाने का प्रयास किया गया है. अब देखना यह है कि क्या राज्य इस दृष्टिकोण को स्वीकार करेंगे? लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या किसान, जिस ग्राउंडवाटर को अभी तक अपना मानते आ रहे हैं, उसे राज्य की सम्पत्ति मानकर राज्य को उसका पेमेंट देने के लिए तैयार हो जायेंगे? इससे तो निरंतर ऋण में डूबते किसानों पर अधिक बोझ बढ़ जायेगा.