त्यौहारों पर सांस्कृतिक चेतना और परंपरा की प्रगाढ़ता से उत्पन्न होने वाले उत्साह के बजाय क्या उन्माद ज्यादा बढ़ता जा रहा है? यह सवाल इसलिए कि प्रकाश के पर्व दीपावली के बहाने देशभर के शहरों और महानगरों में पटाखों का जो बेकाबू धूम-धड़ाका पिछले दिनों हुआ है, उसने आबोहवा को इस हद तक जहरीला बना दिया कि वह जानलेवा साबित हो रहा है. वातावरण में पटाखों के प्रदूषण का असर अभी तक कायम है. यही वजह है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल-एनजीटी यानी राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने शुक्रवार को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में प्रदूषण से बिगड़े हालात पर केंद्र और राज्य की केजरीवाल सरकार को फटकार लगाते हुए कहा है कि दोनों ही सरकारें प्रदूषण के खिलाफ कदम नहीं उठा रही हैं.

दिल्ली सरकार के यह सफाई देने पर कि प्रदूषण को लेकर उसने गुरुवार को दो बैठकें की हैं, एनजीटी ने कहा कि आप 20 बैठकें कर लीजिए, लेकिन उससे क्या फर्क पड़ेगा? कोई एक काम बताइए, जो आपने प्रदूषण को कम करने के लिए किया हो. यही नहीं, एनजीटी ने हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली और यूपी के पर्यावरण सचिवों को भी तलब करके इन सभी राज्यों से 8 नवंबर तक रिपोर्ट मांगी है कि वे कैसे प्रदूषण कम करने के लिए काम करेंगे और अब तक क्या किया है.

जाहिर है कि प्रदूषण की समस्या जितनी गंभीर है, सरकारों का काम उतना ही अप्रभावी और अगंभीर है. टालमटोल का रवैया कैसा है, यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि एनजीटी की फटकार पर दिल्ली सरकार ने एनजीटी से कहा कि दिल्ली में प्रदूषण के बढ़ने की मुख्य वजह खेतों में जलाया जानेवाला फसलों का उच्छिष्ट यानी पुआल वगैरह है. जाहिर है कि दूसरे पर दोषारोपण वाले इस जवाब से झल्लाकर एनजीटी को कहना पड़ा कि क्रॉप बर्निंग के आलावा दिल्ली में प्रदूषण बढ़ने की कई और वजहें भी हैं, क्या आपने उन पर कोई काम किया है?

एनजीटी ने कहा कि आप अभी तक दस साल पुरानी डीजल गाड़ियों को दिल्ली की सड़कों से नहीं हटा पाए हैं. आखिर हम अपने बच्चों और नौनिहालों को क्या दे रहे हैं? प्रदूषण उनके लिए कितना जानलेवा है, इसपर तो सोचना होगा. दरअसल, निर्माण कार्य के दौरान उठने और उड़ने वाली धूल भी शहरों में प्रदूषण बढ़ाने का बड़ा कारण है. इसके अलावा फालतू प्लास्टिक और कूड़े को जलाने से भी हमारा वायुमंडल खासा प्रदूषित हो रहा है. जहां तक पटाखों की बात है, उनसे निकलने वाले रसायन हवा में कम से कम 20 घंटे तक रहते हैं और इसके बाद वे जमीन पर, पानी में और सब्जियों-फसलों व घास में उतर आते हैं. जाहिर है कि यही प्रदूषण खाने-पीने और सांस के जरिए हमारे शरीर में प्रवेश कर जाता है.

गौरतलब है कि इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में ही गाइडलाइन दी है, लेकिन कोई उनका पालन नहीं करता. पटाखे कहां जलाने हैं, कबतक जला सकते हैं, इनमें रसायन के इस्तेमाल का तरीका क्या होना चाहिए, आदि-आदि सभी बातों का गाइडलाइन में बाकायदा जिक्र है, लेकिन अफसोस कि सरकारें अबतक कुछ नहीं कर पाई हैं और प्रदूषण का अजगर हमारी सेहत को निगलता चला जा रहा है.

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