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अजनबी तो वो कभी नहीं था, लेकिन इतना करीब भी कहाँ था. सभी के बीच भी तन्हाई का यह एहसास, पहले नहीं था. उसकी गली से गुज़रती तो मैं पहले भी थी, लेकिन अब एक अलग सी बेचैनी मेरा रास्ता रोक देती है. मेरे घर वो बचपन से आता था, लेकिन अब उसके जाने के बाद उसकी खुशबु ढूँढ़ती रहती हूँ. पहले सपने रातों को आते थें, अब सपनों में ही रहती हूँ.

अखिल को सदा से देखा था. प्रथम कक्षा से हम साथ ही थें. हमारा बचपन तिलियामुड़ा की इन गलियों में एक साथ खेलकर किशोर हुआ था. त्रिपुरा के इस छोटे से शहर में जीवन दौड़ता नहीं था, धीमी गति से चलता था. सूर्य और चंद्रमा का अनुपम तथा विलक्षण मिलन संध्या को आकर्षक बना देता था. बच्चों में मिट्टी से सन कर खेलने के प्रति आकर्षण आज भी जीवित था. कोई भी कहीं पहुंचने की शीघ्रता में नहीं था, जो जहाँ था, वहाँ प्रसन्न था.

मैं भी खुश थी, जीवन से संतुष्ट. लेकिन इस साल के आरंभ में बहुत कुछ बदल गया. हमारी वार्षिक परीक्षा समाप्त हो गयी थी. दसवी के क्लास आरम्भ होने में दस दिन का समय था. मेरी सहेली ने अपनी बड़ी बहन की शादी में मुझे बुलाया, तो मैं चली गयी. वहां अखिल भी था. काफी भाग-दौड़ कर रहा था. बार-बार हमारी नजरें मिल रही थीं. यूँ तो नजरें पहले भी कई बार मिली थीं, लेकिन इस बार जो मिलीं, मैं मंत्रमुग्ध सी उसे देखती रह गयी.

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लंबा, गोरा, सुदर्शन, नहीं काफी सुदर्शन, नीले रंग की शर्ट और काली पैंट पहने हुये आकर्षक लग रहा था. मैं अखिल की तुलना में उतनी सुंदर नहीं थी. रंग सांवला. वैसे, लोग कहते थें, साँवली होने के बावजूद मैं सुंदर लगती हूँ. वैसे सुंदरता की परिभाषा मैं समझ नहीं पाती. मेरी लम्बाई पाँच फुट दो-ढाई इंच होगी. गोलाकार चेहरा, आंखें बड़ी-बड़ी, तीखा नाक-नक्श, चिकने होंठ, कंधें तक लंबें बाल, पेट के निचले हिस्से में चर्बी गायब है. कोई कहता है, स्वास्थ्य ठीक नहीं, कोई कहता है, ठीक ही तो है. वैसे मैंने पढ़ाई के अतिरिक्त कभी कुछ सोच ही नहीं था. अपने स्वास्थ्य, चेहरा, नाक-नक्श आदि को लेकर सोचना कभी सोच में भी नहीं आया था. लेकिन, उस रात घर लौटने के बाद आईने के सामने मैंने खुद को देखा. अपने साँवले रंग के कारण मन ही मन दुःख हुआ.

उस दिन हमारी कोई बातचीत नहीं हुयी, उसने मेरी ओर एक बार भी नहीं देखा. लेकिन इसके बाद छुट्टियों के वे दिन, मेरे लिये असह्य हो गये थें. अखिल को एक बार फिर देखने की इच्छा होती थी. बात करने का मन करता था. मैं पढ़ने में अच्छी थी. अपना काम भी समय पर पूरा कर लिया करती थी. मैथ्स और फिजिक्स में अखिल का हाथ जरा तंग था. इस कारण मेरी मदद लेने कभी-कभी घर आया करता था. लेकिन आजकल स्कूल बन्द होने के कारण, उसका भी यूँ आना बंद हो गया था.

मैं चुप रहने लगी थी. इसी बीच मैंने कुछ कविताएँ भी लिखीं. सारी की सारी अखिल को लेकर. कविता को डायरी को कोर्स की पुस्तकों के नीचे दबा के रखती, ताकि किसी के हाथ न लगे. हाथ लगते ही झमेला! मम्मी-पापा का तो सोचकर भी, मन डर जाता है। सम्पा दीदी तो अवश्य झमेला कर देगी. दीदी वैसे तो कॉलेज के प्रथम वर्ष में है लेकिन, प्रेम का सुख उसे प्राप्त ही नहीं हुआ. सब कहते हैं, वो सुंदर नहीं है. फिर वही, सुंदरता का अजीब मापदण्ड! लेकिन, प्रेम क्या मात्र शारीरिक होता है! प्रेम! तो क्या जो मुझे हो रहा था, वह प्रेम था! लेकिन, ये प्रेम कैसे हो सकता था, दोनों में कोई बातचीत नहीं, आँखों में आँखें नहीं, हाथों में हाथ नहीं, मात्र सपना है-यह कैसा प्रेम था!

मुझमें आ रहें परिवर्तन को मेरी माँ ने समझा. उन्होंने और पिताजी ने इसका इलाज भी निकाल लिया. मेरा नाम अपोलो कोचिंग सेंटर में लिखा दिया गया. आरम्भ में मैं कुछ खास प्रसन्न नहीं हुयी थी. लेकिन कोचिंग सेंटर के बैच नम्बर बारह की क्लास में घुसते ही, मेरा सिर अपनी माँ के प्रति श्रद्धा से झुक गया था. उस दिन मैंने जाना कि जो होता है, वह वाकई अच्छे के लिये ही होता है. जब बीरेन सर ने मुझे अखिल की पास वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया, मेरा कलेजा उछलकर हाथ में आ गया था.

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सफेद शर्ट, नीली जीन्स, कोल्हापुरी चप्पल. क्या ख़ूब जँच रहा था. मैं उसे नहीं देख रही थी. सर जो कह रहे थें, वो लिखने की असफल कोशिश कर रही थी. और अखिल, वो मुझे भला क्यों देखेगा! लेकिन, क्लास समाप्त होने के बाद मैंने जाना कि, वो मुझे देख रहा था. मैं जन्म से एक घेरे में रहने वाली लड़की. छोटे से एक घेरे में मेरी दुनिया, जिसमें अब वो भी प्रवेश कर चुका था. दरअसल, एक बात मैं बहुत अच्छी तरह उस दिन समझ गयी कि प्रेम मेरे भीतर प्रवेश कर चुका है और अब मेरे जीवन में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहेगा.

ऐसा ही हुआ. शहर की ठंड में गर्मी घुलने लगी और मौसम के साथ हमारा रिश्ता भी गर्म होने लगा था. स्कूल में हम साथ रहतें और स्कूल के बाद घण्टों हाथ थामें तुरई फॉल के पास बैठें रहतें. यहाँ तक कि घर आकर भी जब मैं उसका होमवर्क कर रही होती थी, तो ऐसा लगता कि जैसे अखिल को छू रही हूँ. सब कुछ अजीब, लेकिन अच्छा लगता था.

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