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मेरे पिता सरकारी नौकरी में थे. हालाँकि अच्छे पद पर थें, इज्जत भी थी, लेकिन ईमानदार होने के कारण अथाह पैसा नहीं था. शिक्षा को महत्व देने वाले इस परिवार की मैं छोटी लड़की थी. मम्मी-पाप आम भारतीय अभिभावकों जैसे ही थें. मेरी आगामी बोर्ड परीक्षाओं के लिये परेशान. सम्पा दीदी के दिल्ली जाकर पत्रकारिता के कोर्स करने की जिद को लेकर परेशान. बड़े भैया की हर साल बढ़ती फीस को लेकर परेशान. दिनोदिन बढ़ती महँगाई और महँगी होती शिक्षा के बीच अपनी स्थिर कमाई का सामंजस्य बिठाते माँ-बाप, अपने बच्चों की मनोदशा को क्या पढ़ पातें!

बड़े भैया शिलांग से मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थें. एक तरह से अच्छा ही हुआ जो वे यहाँ नहीं थें. भैया जानते ही चीख-चिल्लाकर घर को सिर पर उठा लेतें. वैसे जब सम्पा दीदी को पता चला था, हंगामा कम उसने भी नहीं किया था. उसने मुझे सलाह मिश्रित डाँट की कड़वी घुट पिलायी थी.

हुआ यूँ कि, उस शाम अखिल का मोमो खाने का मन कर गया था. अब अखिल कहे और मैं न करूँ, ऐसा तो हो नहीं सकता. लेकिन महीने के आखिरी दिन थें और मेरी जमा-पूँजी समाप्त हो चुकी थी. मम्मी से माँगने पर मात्र पैसा संचय करने पर ज्ञान प्राप्त होता, यह मुझे मालूम था. माँगने पर तो वैसे पापा भी यह ही देते, बल्कि कुछ अधिक ही. लेकिन पापा से माँगता ही कौन था!

मैं तो पापा के वॉलेट से बिना उनकी अनुमति लिये, पैसे निकाल लिया करती थी. मेरे सरल पापा थोड़े भुलक्कड़ भी थें, जिसका फायदा मुझे मिल जाया करता था. मैं अपने ही घर में चोरी करने लगी थी. कभी-कभी मेरी आत्मा मुझे कचोटा करती थी. लेकिन, ठीक उसी समय हृदय मुझे समझा लेता कि, प्रेम में सब जायज है. लेकिन उस शाम पापा भी घर पर नहीं थें.

हारकर मुझे दीदी से पैसे माँगने पड़े, और वहीं मुझसे गलती हो गयी. पैसे के लिये मेरी बैचैनी देखकर उसे मुझपर शक हो गया था. जब मैं उससे पैसे लेकर घर से निकली, तो यह जान ही नहीं पायीं कि वो भी मेरे पीछे-पीछे निकल आयी थी.

उसने मुझे अखिल के साथ अंतरंग होकर बैठे देख लिया. मेरे घर लौटते ही वो बिफर पड़ी थी.

दीदी ने कहा-“यह तेरा अखिल के साथ क्या चल रहा है?”

मैंने कहा-“मैं उससे प्यार करती हूँ”

-“प्यार करती हूँ मतलब!?”

-“प्यार करती हूँ, मतलब प्यार करती हूँ”

-“वो तुझे मूर्ख बना रहा है! तुझे दिखता नहीं है. अब मुझे समझ आया तू उसका होमवर्क क्यों करती रहती थी.तेरा जेबखर्च इतनी जल्दी कैसे समाप्त हो जाया करता था. अरे पागल वो तेरा इस्तेमाल कर रहा है.

-“ऐसा कुछ नहीं है! वो अगर पढ़ाई में थोड़ा कमजोर है तो क्या उसकी सहायता करना गलत है!दूसरी बात, उसके पापा की आमदनी उतनी नहीं है कि वो मुझपर खर्च कर सकें. बेचारा खुद ही शर्मिन्दा होता रहता है. और फिर प्यार में खर्च कौन करता है, वह इतना जरूरी नहीं होता. कहीं लड़की कर देती है, कहीं लड़का दीदी, तुम ऐसा कहोगी, मैं नहीं जानती थी. क्या हो गया फेमिनिज्म की उन सभी बातों का क्या वे सभी किताबी थीं”

-“अब इसमें फेमिनिस्म कहाँ से आ गया. आ गया तो सुन ही लो, समय बराबरी का है. लड़का हो या लड़की.यदि दोनों में से कोई भी एक अधिक खर्च करें, और दूसरा उससे बेझिझक करायें, तो समझ लेना चाहिये कि, यहाँ रिश्ता प्रेम का नहीं है, स्वार्थ का है”

-“तुम प्यार को क्या जानो”

-“पुतुल, तू सही कह रही है. मैं प्रेम को नहीं जानती! पर मैं उसे जानती हूँ और तुझे भी. उसके पिता की आर्थिक तू ठगी जा रही है”

-“मेरा भला-बुरा मैं देख लूंगी. तुम बस मम्मी से कुछ मत कहना”

इसके बाद हम दोनों के बीच एक चुप बैठ गया. दीदी ने किसी से कुछ नहीं कहा और मुझसे भी कहना छोड़ दिया.

मेरा समय, अखिल के साथ और उसके बाद, उसके साथ के एहसास के साथ बीतने लगा था. अखिल को नित नये उपहार देना मेरी आदत बन गयी. उसकी बाइक में तेल डलवाना तो मेरी जिम्मेदारी थी ही, कभी-कभी उसका फोन भी रिचार्ज कराना पड़ता था. हर दूसरे दिन अखिल का मन रेस्टुरेंट में खाने का हो जाया करता था. अखिल की प्रसन्नता मेरे लिये महत्वपूर्ण थी. उसकी उदासीनता मेरे लिये असहनीय थी. मुझे ऐसा लगता कि अखिल जैसे लड़के का मुझ जैसी लड़की को प्यार करना, एक एहसान हो; और मैं उसकी कीमत अदा कर रही थी. मैं यह समझ ही नहीं पा रही थी कि प्रेम व्यापार नहीं होता.

अखिल से निकटता बनाये रखने के क्रम में, मैं अपनी सहेलियों से दूर होती चली गयी. उनका क्रोध फब्तियाँ बनकर मुझपर बरसता था.

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