ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती वाले पेरिस समझौते को मंजूरी देने में शिंजो अबे प्रशासन को अब और ज्यादा वक्त नहीं गंवाना चाहिए. अब लगभग पक्का हो चुका है कि यह अंतरराष्ट्रीय जलवायु समझौता अगले महीने की शुरुआत में 60 से अधिक देशों की मंजूरी के साथ लागू हो जाएगा. अगर इस समझौते के प्रभावी होने के पहले जापान ने इसे अपनी मंजूरी नहीं दी, तो इसे लागू करने के बारे में जो शुरुआती कानून बनेंगे, उस प्रक्रिया में जापान भाग नहीं ले पाएगा.

दुनिया के पांचवें सबसे बड़े उत्सर्जक देश जापान का इस समझौते के बारे में ऐसा सुस्त रवैया काफी अफसोसनाक है, क्योंकि यह समझौता भागीदार देशों से अपेक्षा करता है कि वे समझौते के वक्त की अपनी प्रतिबद्धता से आगे बढ़कर कुछ खास करेंगे. पिछले साल दिसंबर में पेरिस में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में इस ऐतिहासिक करार को स्वीकार किया गया था. इसमें यह लक्ष्य तय किया गया था कि वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को औद्योगिक युग से पहले के तापमान के स्तर से दो डिग्री सेल्सियस के भीतर रखा जाए.

साल 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के उलट, जिसने सिर्फ विकसित देशों पर उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य थोपा था, पेरिस समझौते में विकसित और विकासशील, दोनों प्रकार के देशों ने स्वैच्छिक रूप से अपने कटौती लक्ष्य तय किए. लेकिन समस्या यह है कि देशों द्वारा प्रस्तावित स्वैच्छिक योजना घोषित लक्ष्य को हासिल करने के लिहाज से आधी-अधूरी है. भारत ने, जो कि कुल वैश्विक उत्सर्जन का लगभग चार प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस छोड़ता है, यह एलान किया है कि उसने पेरिस समझौते को मंजूरी देने की प्रक्रिया पूरी कर ली है. भारत ऐसा करने वाला 62वां देश है.

यूरोपीय संघ इसे मंजूरी देने के संकेत दे चुका है. दुनिया के दो सबसे बड़े ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जक देश- चीन और अमेरिका पहले ही इस करार को अपनी मंजूरी दे चुके हैं. पेरिस समझौते के लक्ष्य को पाने के लिए सामाजिक और आर्थिक ढांचे में काफी बड़ा परिवर्तन करना पड़ेगा, लेकिन जापान में अभी इस संदर्भ में कोई गंभीर चर्चा होती हुई नहीं दिख रही.

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