सार्क देशों के शासनाध्यक्षों का 19वां सम्मेलन रद्द कर दिया गया है. यह बैठक अब कब होगी, इसकी अब तक कोई घोषणा नहीं की गई है. इससे समझा जा सकता है कि 31 वर्षों के सफर में सार्क की 18 बैठकें ही क्यों हुईं? जाहिर है, सदस्य मुल्कों के शासनाध्यक्ष किसी न किसी वजह से सार्क चार्टर के मुताबिक सालाना बैठक से बचते रहे हैं. इस बार इसकी बैठक इसलिए रद्द की गई है, क्योंकि भारत, बांग्लादेश और अफगानिस्तान ने इसमें न शामिल होने का फैसला किया है.

भारत का गुस्सा उरी हमले को लेकर है, तो बांग्लादेश अपने अंदरूनी मामलों में, खासतौर से युद्ध अपराधियों के मुकदमों और सजा के मामले में पाकिस्तान की दखलंदाजी से नाराज है. अफगानिस्तान ने भी अपने यहां पाकिस्तान की कथित भूमिका की वजह से सार्क सम्मेलन से किनारा करने का फैसला किया है. बेशक, इससे ऐतराज नहीं कि कई मसलों पर पाकिस्तान के रुख से इस क्षेत्र में तनाव और अस्थिरता बढ़ी है, और संभवत: इस्लामाबाद इससे भी बड़ी चोट का हकदार है. मगर पाकिस्तान को घेरने के लिए सार्क सम्मेलन एक बेहतर मंच हो सकता है.

यह दलील दी जा सकती है कि जिन मसलों के कारण इन तीन मुल्कों ने इस सम्मेलन में न जाने का फैसला किया, वह उनका पाकिस्तान के साथ आपसी मसला है. यह कहने में भी कोई दिक्कत नहीं कि जिस अतिवाद और दहशतगर्दी फैलाने की वजह से पाकिस्तान पर अंगुली उठाई गई है, उसे ये मुल्क द्विपक्षीय बातचीत में ज्यादा तवज्जो नहीं देते, लिहाजा इस मसले को सार्क सम्मेलन का एजेंडा बना दिया जाना चाहिए.

बहरहाल, दहशतगर्दी का समाधान एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करके नहीं, बल्कि एक-दूसरे से बातचीत करके ही निकल सकता है, और इसके लिए सार्क सम्मेलन का होना निहायत जरूरी है. इतना ही नहीं, अगर यूं ही बहिष्कार जारी रहा, तो आने वाले दिनों में मौजूदा परिस्थिति का उदाहरण देते हुए किसी गैर-वाजिब मसले पर भी यही रुख अपनाया जा सकता है. हमें कमजोर नहीं, बल्कि एक मजबूत सार्क चाहिए. तमाम कमियों के बावजूद हम इसे खत्म होने नहीं दे सकते.

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