गांधी जी की दिली ख्वाहिश थी कि वह सवा सौ साल तक जीयें.एक ऐसे दौर में जब पुरुषों की औसत आयु महज 40 साल थी,यह काफी बड़ी महत्वाकांक्षा समझी जा सकती थी.लेकिन इसे शेखचिल्ली की चाहत तो कतई नहीं कहा जा सकता था ; क्योंकि अस्वाभाविक मौत मरने के बाद भी वह औसत से लगभग दो गुना जीये. जनवरी 1948 में जब उनकी हत्या हुई वह 78 साल 3 महीने के थे.इसलिए अगर वह स्वाभाविक मौत करते तो यह कहना कतई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि वह कम से कम 10 साल तो और जीते ही.क्योंकि जब उनकी हत्या हुई उन दिनों वह भावनात्मक रूप से जरूर काफी आहत थे,इस कारण कमजोर भी काफी दिखते थे,लेकिन उन दिनों भी वह 5-5 दिनों का उपवास कर लेते थे,हर दिन 10-10 लोगों को चिट्ठियां लिखवा लेते थे.दिन में दर्जनों लोगों से बातें करते थे (शाम-सुबह की अपनी नियमित प्रार्थनाओं के बावजूद). इस सबसे पता चलता है कि गांधी उन दिनों शारीरिक और मानसिक, दोनों ही तरह से पूर्ण स्वस्थ थे.

लेकिन अगर एक मिनट को मान लें कि गांधी अपनी इच्छानुसार 125 साल तक जीते तो वह आजाद भारत में करीब 47 साल तक रहते.इस तरह वह नेहरू से लेकर नरसिंह राव तक की सरकारें देखते.वह आजाद भारत के 7 प्रधानमंत्रियों को देखते. मगर ऐसा हो न सका.आजाद भारत में वह 47 साल क्या 47 महीने भी न जी सके.वह आजाद भारत में महज 168 दिन तक ही जिंदा रहे. सवाल है अगर 47 साल न सही,आजाद भारत में गांधी महज 10 साल और जीते तो क्या आज का हिन्दुस्तान ऐसा ही होता जैसा की यह है ? न …बिलकुल ऐसा नहीं होता. सवाल है तब आज का भारत कैसा होता ? यानी वह मौजूदा हिन्दुस्तान से कैसे और कितना भिन्न होता ? इस अनुमान को अगर महज दो शब्दों में कहें तो तब आज का भारत ज्यादा और वास्तविक लोकतंत्र होता.तब हम सम्पन्न इतने भले न हुए होते लेकिन हमारी नागरिक चेतना बहुत सम्पन्न होती. अगर गांधीजी महज 1957-58 तक ही जी जाते तो आज जो तमाम समस्याएं भारत के लिए नासूर बनी हुई हैं, तब शायद इनमें से कई या कोई भी नहीं होती.

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आजादी के सात दशकों बाद भारत आज जिन समस्याओं से घिरा है वे हैं-गरीबी, भ्रष्टाचार, उजड़ते गांव,कश्मीर और ढीठ पाकिस्तान. गांधीजी ने अगस्त 1947 में ही घोषणा कर दी थी कि वह लाहौर जायेंगे, रावलपिंडी जायेंगे. क्योंकि 1946 में ही बंगाल, बिहार, पंजाब और सिंध भयानक साम्प्रदायिक हिंसा में डूब गए थे. इस कारण उनका जनवरी 1946 से लेकर जनवरी 1948 तक का ज्यादातर समय इस आग को बुझाने में ही खर्च हुआ. कभी नोआखाली, कभी कलकत्ता, कभी भागलपुर और कभी दिल्ली में वह साम्प्रदायिक आग ही बुझाते रहे.इसके अगले पड़ाव अमृतसर, लाहौर और रावलपिंडी थे.लेकिन दिल्ली ने उन्हें आगे नहीं जाने दिया.

गांधीजी सितम्बर 1947 में ही लाहौर जाना चाहते थे.लेकिन पहले बंगाल और बाद में दिल्ली की आग बुझाते हुए 1947 का पूरा साल गुजर गया. इसलिए उन्होंने 16 जनवरी 1948 के बाद पाकिस्तान जाना तय किया था.उन्होंने इस सम्बन्ध में जिन्ना को खत भी लिख दिया था और जिन्ना उनका इंतजार भी कर रहे थे.सवाल है उनके पाकिस्तान जाने से होता क्या ? ..और यह भी कि गांधीजी आखिर पाकिस्तान जाना ही क्यों चाहते थे ? दरअसल वह नहीं चाहते थे कि लोगों का इस किस्म से विस्थापन हो जिस तरह से भारत और पाकिस्तान से हो रहा था. गांधीजी भारत आये लाखों हिन्दुओं को अपने साथ लेकर पाकिस्तान जाना चाहते थे और उधर से वापसी में अपने साथ उन लाखों मुसलामानों को लेकर आना चाहते थे,जो हिंदुस्तान छोड़कर गए थे.वह इन अपनी अपनी जगह से उजड़े लोगों को फिर से उनकी जमीन में ही बसाना चाहते थे.उनके घर, उनकी जायदाद, वापस दिलवाना चाहते थे.

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पता नहीं यह होता या नहीं होता,लेकिन गांधी जी जिस तरह हर असंभव को संभव कर डालते थे,उससे अगर मान लें कि ऐसा हो जाता तो यह दुनिया के विस्थापन इतिहास की एक नई घटना होती. यह असंभव इसलिए नहीं था क्योंकि हम तमाम ऐतिहासिक बयानों और दस्तावेजों में देख सकते हैं कि गांधीजी का पाकिस्तान में सम्मान था.उन्होंने भारत से पाकिस्तान के हिस्से के 55 करोड़ रूपये दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया था.खुद की जिंदगी को दांव में लगाकर पाकिस्तान को यह रकम दिलवाई थी.इसलिए भी न केवल पाकिस्तान में बल्कि पूरी इस्लामिक दुनिया में गांधीजी का कद बहुत बड़ा हो गया था.इस कद की पृष्ठभूमि में लगता है पाकिस्तान उनकी बात मान लेता.अगर शरणार्थियों की अपने-अपने देश वापसी हो जाती तो बंटवारा लगभग बेमतलब हो जाता.क्योंकि तब दोनों ही देशों में दोनों समुदाय के लोग होते.तब पाकिस्तान आज की तरह न तो कट्टर इस्लामिक देश बनता और न ही भारत में हिंदुओं के ध्रुवीकरण की कोशिश होती.

यह असंभव इसलिए नहीं लगता क्योंकि आखिरकार उन्होंने इस असम्भव से लगने वाले फार्मूले को नोआखाली में प्रयोग किया था.वहां मुसलमानों ने तमाम हिन्दुओं के जलाए गए मकान और पूजास्थल अपने हाथों से बनाये थे,इसी तरह हिन्दुओं ने भी तमाम मस्जिदों को अपने श्रम और पैसे से बनवाया था. इसलिए अगर गांधीजी आजादी के कुछ सालों बाद तक जिंदा रहते तो भारत-पाकिस्तान दो दुश्मन देशों के रूप में उभर ही नहीं सकते थे. उनके रहते पाकिस्तान और भारत दो देश होते हुए भी एक ढीले ढाले संघ में बदल जाते और वह दोनों देशों में बारी बारी से रहते.क्योंकि उन्होंने कभी भी भारत को अपना और पाकिस्तान को पराया देश नहीं माना था. वह हमेशा दोनों देशों को अपनी दो आंखों जैसा समझते थे.

अगर गांधीजी 1957-58 तक भी जिंदा रहते तो गांवों की वह दुर्दशा नहीं होती जो आज दिख रही है. गांधीजी का समूचा आर्थिक दर्शन गांवों को आत्मनिर्भर ईकाई के रूप में विकसित करना था,जबकि आजादी के बाद जो योजना आयोग बना वह महानगरीय ढांचे वाले औद्योगिक विकास के सपने को समर्पित था. वास्तव में यह नेहरू जी के सपनों के भारत की रूपरेखा को मूर्त रूप देने के लिए था.जाहिर है उसमें नगर केन्द्रित यूरोपीय मॉडल को ज्यादा तरजीह दी गयी थी. लेकिन जिद्दी बुड्ढा गांधी जिंदा होता तो गांवों से इस तरह अनाथों वाला सलूक नहीं होने पाता. तब हमारा औद्योगिक सपना कुटीर और हाथ उद्योग से खाद पानी हासिल करता. नतीजे में आज खुशहाल गांवों वाला भारत होता.इस तरह अगर आजादी के बाद एक दशक तक गांधी जीते तो यह संभव था कि आज देश में उतने करोड़पति नहीं होते जितने हैं. लेकिन तब निश्चित रूप से देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले इतने लोग भी नहीं होते जितने आज हैं. भारत में अमीरी और गरीबी में इतना अंतर नहीं होता.

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आजाद भारत में कम से कम 10 साल गांधी और रहते तो हम नैतिक रूप से एक मजबूत समाज होते. भ्रष्टाचार को तब हम बेशर्म होकर गले नहीं लगा रहे होते जैसा कि इन दिनों कर रहे हैं. ऐसा इसलिए होता क्योंकि तब सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की इतनी खातिर नहीं हुई होती.गांधीजी ने भारत के आजाद होने के बाद कांग्रेस के भंग किये जाने की वकालत की थी,यह बात तो बहुत लोग जानते हैं.लेकिन शायद बहुत लोग उनके यह कहने की पृष्ठभूमि न जानते हों. दरअसल इसकी तात्कालिक वजह यह थी कि उन्हें तमिलनाडु के एक व्यक्ति कोंडी वेंकटप्पैय्या ने पत्र लिखा था, जिसमें कहा गया था कि वहां कांग्रेस का स्थानीय विधायक न्याय के साथ बेईमानी कर रहा है और इससे कमाई कर रहा है.

इस सूचना से गांधीजी के कान खड़े हुए थे और उन्होंने तुरंत सरदार पटेल तथा नेहरू को बकायदा बुलाकर कांग्रेस को भंग किये जाने का मशवरा दिया था, जो सरदार पटेल को बुरा भी लगा था.लेकिन अगर गांधीजी जिंदा रहते तो कांग्रेस को भंग होना ही पड़ता क्योंकि कोई और नहीं करता तो वह खुद ही इसकी सार्वजनिक घोषणा कर देते.ऐसे में नेहरू पटेल जैसे नेता उनके साथ आ जाते और मोरारजी देसाई व श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे कांग्रेसी दूसरा खेमा बना लेते.इससे कांग्रेस इतनी मजबूत नहीं रह पाती कि आजादी के बाद कई दशकों तक लगातार शासन में रहती याकि देश में इमरजेंसी लगा सकती. सिर्फ देश के स्तर पर ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी गांधीजी के जिंदा होने से बहुत फर्क पड़ता.सन 1950-51 में कोरिया को जिस तरह अमरीका की दादागीरी झेलनी पडी,वैसा नहीं होता.हैरी एस ट्रूमैन गांधीजी की इज्जत करते थे,गांधीजी उन्हें पत्र लिखते और कोरिया को युद्ध की विभीषिका नहीं झेलनी पड़ती. गांधीजी के जिंदा रहने से यूरोपीय युवा विश्वयुद्ध के बाद साठ के दशक में उतने अवसाद से नहीं गुजरते जितने अवसाद से वे गुजरे. क्योंकि तब नैतिकता, अहिंसा और शान्ति की जिंदा मिसाल के रूप में दुनिया में गांधी मौजूद होते. …और सबसे बड़ी बात यह होती कि हम आत्मविश्वास से भरे भारतीय होते जिसके कारण हमारा नागरिक बोध, हमारी नागरिक चेतना और हमारी नागरिक आजादी बहुत मजबूत होती.

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