बचपन और बचपना आज है कहां? चैनल, इंटरनैट के मकड़जाल में आज के जमाने के बच्चे समय से पहले ही काफी बड़े हो जाते हैं. खाना खिलाने के लिए आज की मम्मियों के पास बच्चे के पीछे भागदौड़ करने का समय नहीं है. बच्चा चुपचाप बैठ कर एक जगह खाना खा ले, इस के लिए वे बच्चे का मनपसंद चैनल लगा कर थाली परोस कर दे देती हैं. या फिर कुछ मम्मियां अपनी मनपसंद सीरियल लगा कर बच्चों को खिलाने बैठ जाती हैं. पर हर टीवी सीरियल में सासबहू का टंटा, संयुक्त परिवार का षड्यंत्र, राजनीतिक प्रपंच के अलावा पतिपत्नी के साथ ‘वो’ की उपस्थिति आदि ही होते हैं.
छोटे बच्चे के कच्चे मन पर इन सब की विपरीत और नकारात्मक प्रतिक्रिया होती है. कुछ मांएं अकसर यही समझती हैं कि बच्चा है, यह सब प्रपंच उस के पल्ले नहीं पड़ेगा जबकि टीवी सीरियल के सामने बच्चों को बिठा कर वे उन्हें छल, प्रपंच, षड्यंत्र की एबीसीडी सिखा रही हैं. बच्चे अपने अनुभव से छल, प्रपंच और षड्यंत्र के बारे में जाननेसमझने या उन का सामना करने के बजाय टीवी सीरियल से इस का पाठ पढ़ते हैं. इसीलिए छुटपन के बाद बचपन को जिए बिना सीधे बड़े हो जाते हैं.
पता भी नहीं चलता कि बचपन कहीं बहुत पीछे छूट गया है. बच्चों का बढ़ना प्रकृति के नियम के अनुरूप न होने के कारण समाज में कई तरह की समस्याएं जन्म लेने लगती हैं. समाजशास्त्रियों की नजर में ऐसे बच्चे ‘मेल एडजस्टेड चाइल्ड’ की श्रेणी में आते हैं. समाजशास्त्री अकरामुल हक कहते हैं कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के लिए यह एक बहुत बड़ा संकट है. हाल के दिनों में दिल्ली समेत पूरे देश में यह संकट देखने में आया भी है. भारत के संशोधनागारों और जेलों में 15 साल तक की उम्र के कैदियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.
हक कहते हैं, ‘‘विकास और उन्नति के नाम पर आयातित अनावश्यक तकनीक के सैलाब में बचपन बलि चढ़ रहे हैं. ऐसे बच्चे कब ‘मेल एडजस्टेड चाइल्ड’ की श्रेणी में आ जाते हैं, इस की किसी को खबर भी नहीं हो पाती है. ‘पर्मिसिबल सोसाइटी’ के नाम पर आज हम लोग जहां पहुंच चुके हैं वहां बचपन का कोई नामलेवा नहीं है. इंटरनैट के मकड़जाल के चलते महज एक क्लिक से बड़ों की दुनिया बेपरदा हो जाती है.’’
हक का कहना है कि वैश्विकता के नाम पर टीवी चैनलों में जीवन और समाज की परतों को एकदम से नंगा कर के परोसा जा रहा है. बच्चों के लिए आयातित विदेशी कार्टून चैनल भारतीय समाज और मानस के अनुरूप नहीं हैं. अगर मामला सिर्फ दोस्ती तक होता तो और बात थी, पर यहां तो सैक्स भी परोसा जाता है.
सैक्स फैंटेसी और आक्रामकता
शिशु विशेषज्ञ शांतनु राय का कहना है, ‘‘विपरीत लिंग के प्रति आकर्षक की उपलब्धि स्वाभाविक तौर पर एक खास उम्र में हो ही जाती है. ‘‘उम्र बढ़ने के साथ हार्मोनल बदलाव आते हैं. अच्छेबुरे की समझ भी आती है. पर जब 10-12 साल के उम्र के बच्चे टीवी और इंटरनैट की बदौलत बड़ों की दुनिया की झलक पा जाते हैं, चूंकि शारीरिक रूप से हार्मोनल बदलाव नहीं होता और वे इन बातों के लिए सक्षम नहीं होते, तो ‘सैक्स फैंटेसी’ का खेल चलता है. लेकिन इस से एक समय में हताशा जन्म लेती है.
और तब आक्रामक रवैया सिर उठाने लगता है. यहीं से समस्या शुरू होती है.’’ हमारे समाज में खुलापन नहीं होने के कारण मातापिता से ‘बड़ों की गुप्त दुनिया’ के बारे में बातचीत संभव नहीं होती है. वहीं, मातापिता भी स्वाभाविक रूप से बढ़ते बच्चों से घुलमिल नहीं पाते हैं. दोनों ओर से एक दूरी बन जाती है. कभीकभार ऐसे बच्चों का आक्रामक रवैया उन पर हावी हो जाता है और तब इस की कीमत परिवार और समाज को चुकानी पड़ती है.
बच्चों को जिधर जाने से रोका जाएगा, वे उधर ही जाना चाहेंगे. कुछ मातापिता टीवी या विज्ञापन देखने के मामले में बच्चों को ‘गाइड’ करने के नाम पर बताते हैं, क्या देखना चाहिए और क्या नहीं. इस का उन के मन पर गहरा असर होता है और मनाही की ओर उन के कदम जानेअनजाने बढ़ते जाते हैं. मनोचिकित्सक आरती मुखर्जी का कहना है कि आजकल पेरैंट्स नौकरीशुदा होते हैं और बच्चे आया की देखरेख में पलते हैं. स्कूल के बाद घर लौट कर बच्चे कोई खेल खेलने के बजाय टीवी या कंप्यूटर पर लग जाते हैं. टीवी या कंप्यूटर पर बैठ कर जाहिर है सोशल स्किल तैयार नहीं होती, बल्कि एकाकीपन हावी होता है. इस से व्यक्तित्व का विकास बाधित होता है और डैवलपमैंट डिसऔर्डर, बिहेवियर डिसऔर्डर, कौंटैक्ट डिसऔर्डर, पर्सनैलिटी डिसऔर्डर जैसी समस्याएं दूर करने के लिए काउंसलिंग की जरूरत पड़ती है. काउंसलिंग के साथ में दवा की भी जरूरत पड़ सकती है.
इस के अलावा आरती मुखर्जी के कुछ और भी सुझाव हैं. वे कहती हैं कि इन तमाम समस्याओं से बच्चों को दूर रखने के लिए मातापिता को चाहिए कि बच्चों में कुछ जरूरी रचनात्मक हौबी, जैसे पेंटिंग्स, किताब पढ़ना, खेलकूद का विकास करें. मातापिता के पास समय नहीं है तो टीवी के सामने बिठा देना गलत होगा. टीवी देखने का समय तय कर दें
टीवी देखते हुए कुछ देर उस के साथ बैठना चाहिए. बच्चे इंटरनैट पर बैठें, पर निगरानी जरूर रखें. कंप्यूटर की सैटिंग इस तरह कर दें कि बच्चे वयस्क साइट में न जा सकें. कितना भी थकेहारे हों, दफ्तर से घर लौट कर बच्चों के साथ थोड़ा वक्त जरूर बिताएं. सब से जरूरी बात यह है कि बच्चे मातापिता से अपनी हर बात शेयर करें, उन से मातापिता का दोस्ताना संबंध हो. बच्चे मातापिता की नकल करते हैं, इसीलिए उन्हें अपने आचरण को सुधारना भी जरूरी है.